हरि कीर्तन
‘कीर्तन’ शब्द को यदि उलटा कर दिया जाय तो वह शब्द ‘नर्तकी’ बन जाता है। इस जमाने में हर जगह उलटा चलने ही अधिक देखा जाता है। कीर्तन का वास्तविक तात्पर्य न समझ कर लोग उसका उलटा अर्थ करते हैं और नर्तकी की तरह नाच कूद कर अपनी उचंग पूरी करते हैं। ईश्वर कोई मनचला नवाब नहीं है, जिसे नाच रंग में मस्त रहने की सनक हो। वह अपने प्रिय पुत्रों को नर्तक नहीं, धर्म प्रवर्तक बनाना चाहता है।
कीर्तन का तात्पर्य उन कर्मों के करने से है, जिससे प्रभु की कारीगरी की कीर्ति फलती है, प्रशंसा होती है। हम किसी सुन्दर खिलौने को देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं, वास्तव में वह प्रशंसा जड़ खिलौने की नहीं वरन् उस कुम्हार की है जिसने उसे बनाया है। विद्वान्, धर्मात्मा, तपस्वी, उद्धारक, धर्म प्रवर्तक, अक्सर अवतार कहे जाते हैं, उनमें ईश्वरीय अंश बताया जाता है।
वैसे तो हर मनुष्य में ईश्वरीय अंश है और आत्मा-परमात्मा का अवतार है। पर किसी विशेष व्यक्ति को अवतारी पुरुष करने का तात्पर्य उसके सद्गुणों के निमित्त कर्ता की प्रशंसा करना है। किसी भले आदमी को देखकर उसे अनायास ही ‘ईश्वर का प्यारा’, ‘ईश्वर की पुण्य कृति’, ‘ईश्वर का कृपा भाजन’ आदि शब्द कहते हैं। इन शब्दों का मर्म अर्थ ईश्वर की प्रशंसा करना, उसकी कीर्ति बढ़ाना है।
हमें अपना आचरण, विचार, कर्म, व्यवहार एवं स्वभाव इस प्रकार का बनाना चाहिए, जिससे सर्वत्र हमारी प्रशंसा हो। हमारी भलमनसाहत, नेकी, ईमानदारी, सेवा वृत्ति, नम्रता, परमार्थ प्रियता, त्याग भावना की सुगन्ध चारों ओर उड़ती फिरे। वह कीर्ति असल में हमारे जड़ शरीर की नहीं वरन् उसके कर्ता आत्मा की, परमात्मा की है। यही सच्चा कीर्तन है। इस उलटे जमाने में ‘नर्तकी’ बनने वाले बहुत हैं पर ‘कीर्तन’ करने वाले विरले ही दिखाई पड़ते हैं।
अखण्ड ज्योति फरवरी 1943 पृष्ठ 15
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