दुष्प्रवृत्ति निरोध आन्दोलन (भाग 1)
विवाहोन्माद प्रतिरोध आन्दोलन आज के हिन्दू समाज की सबसे बड़ी एवं सबसे प्रमुख आवश्यकता है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अगले दिनों बहुत कुछ करना होगा। हमारा यह प्रयत्न निश्चित रूप में सफल होगा। अगले दिनों हवा बदलेगी और आज की खर्चीली वैवाहिक कुरीतियाँ पीढ़ी वालों के लिए एक कौतूहल की बात रह जायगी। कुछ वर्षों बाद भावी सन्तान को यह खोज करनी पड़ेगी कि हमारे पूर्वज थे तो बुद्धिमान पर ऐसी मूर्खतापूर्ण रीति-रिवाज के जंजाल में फँसकर इतना कमर तोड़ अपव्यय आखिर करते क्यों थे?
वह दिन निश्चित रूप में आने हैं। समय की माँग, युग की पुकार इतनी प्रबल होती है कि उसके द्वारा बड़े-बड़े प्रवाह मोड़ दिये जाते हैं। इस परिवर्तन का लाभ अगली पीढ़ी को मिलेगा, हमें तो इसके लिए भागीरथ तप ही करना है और प्रतिरोध करते हुए गोली न हो तो कम से कम गाली तो खाते ही रहना है। अन्ध मान्यताओं की भी नशेबाजी जैसी लत होती है, वह मुश्किल से छूटती है। इसलिए काम बहुत कठिन है। पर कठिन काम भी मनुष्य ही करते हैं। हम कठिनाइयों को चीरते हुए आगे बढ़ेंगे और समय को बदल डालने की प्रतिज्ञा पूरी करके रहेंगे।
विवाहोन्माद की जड़े काफी गहरी हैं। उन्माद रोगग्रस्त व्यक्ति के गले कोई बात उतारना काफी कठिन होता है। रूढ़ियों की चुड़ैल जिनकी गर्दन पर सवार है उनके लिए समझ की बात मानना अपनाना काफी कठिन होगा। यह प्रचार करते हुए जहाँ जाया जाय वहाँ प्रथम बार में ही सफलता मिल जाय, इसकी आशा कम ही होगी। कितनी ही बार प्रचारक को निराश और तिरस्कृत होकर लौटना पड़ेगा। ऐसी दशा में मानव मनोविज्ञान के अनुसार यह हो सकता है कि तिरस्कृत करने वाले और तिरस्कार सहने वाले के बीच मनोमालिन्य का अंकुर उत्पन्न हो जाय और उसके कारण आगे मिलने-जुलने या मधुर सम्बन्ध बनाये रहने में बाधा उत्पन्न होने लगे। यदि ऐसा हुआ तो उससे अपने मिशन को नुकसान ही पहुँचेगा।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1965 पृष्ठ 46
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