परिवर्तन चिह्न है प्रगति का
स्थिरता जड़ता का चिन्ह है और परिवर्तन प्रगति का। स्थिरता में नीरसता एवं निष्क्रियता है। किन्तु परिवर्तन नये चिन्तन और नये अनुभव का पथ प्रशस्त करता रहता है। जीवन प्रगतिशील है, अस्तु इसमें परिवर्तन आवश्यक होता है और अनिवार्य भी।
प्रगतिशील परिवर्तन से डरते नहीं, उसका समर्थन करते हैं और स्वागत भी। आकाश में सभी ग्रह गोलक गतिशील हैं। इससे उनका चुम्बकत्व स्थिर रहता और उसके सहारे उनका मध्यवर्ती सहकार बना रहता है। यदि वे निक्रिय रहे होते, तो अपनी ऊर्जा गँवा बैठते ।। जो आगे नहीं बढ़ता वह स्थिर भी नहीं रह सकता। स्थिरता पर संकट आते ही, विकल्प विनाश ही रह जाता है। अस्तु जीवन को गतिशील रहना पड़ता है। जो निर्जीव है- वह भी गतिहीन नहीं है।
युग बदलते हैं। परिवर्तन क्रम में आशा और निराशा के अवसर आते हैं और चले जाते हैं। रात्रि और दिन, स्वप्न और जागृति, जीवन और मरण, शीत और ग्रीष्म, हानि और लाभ, संयोग और वियोग का अनुभव लगता तो परस्पर विरोधी हैं, अन्ततः वे एक दूसरे के साथ गुँथे रहते हैं और दुहरे रसास्वादन का आनन्द देते हैं। ऋण और धन धाराओं का मिलन ही बिजली की सामर्थ्य भरे प्रभाव को जन्म देता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
Recent Post
सार्वभौम सर्वजनीन-माँ की उपासना
दुनिया में जितने धर्म, सम्प्रदाय, देवता और भगवानों के प्रकार हैं उन्हें कुछ दिन मौन हो जाना चाहिए और एक नई उपासना पद्धति का प्रचलन करना चाहिए जिसमें केवल “माँ” की ही पूजा हो, माँ को ही ...
सच्चा आत्म-समर्पण करने वाली देवी
थाईजेन्ड ग्रीनलैण्ड पार्क में स्वामी विवेकानन्द का ओजस्वी भाषण हुआ। उन्होंने संसार के नव-निर्माण की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए कहा- ‘‘यदि मुझे सच्चा आत्म-समर्पण करने वाले बीस लोक-से...
व्यर्थ का उलाहना
हे प्रभु ! हे जगत्-पिता, जगन्नियन्ता कैसे आप मौन, मन्दिर में बैठे हैं। क्या आप देख नहीं रहे हैं कि बाहर संसार में अन्याय और अनीति फैली हुई है। अत्याचारियों के आतंक और त्रास से संसार त्राहि-त्...
अपनों के साथ दुर्व्यवहार
‘आप लोग मुझे क्षमा करें। आपको आज मैं “महिलाओं”, शब्द से संबोधन कर रहा हूँ। सचमुच हम लोग शताब्दियों से गुलामी करते-करते स्त्री जैसे हो गये हैं। आप लोग इस देश या दूसरे किसी देश में ...
पवित्र, श्रद्धालु और धार्मिक बनें
इस संसार को माया इसलिए कहा गया है कि यहाँ भ्रान्तियों की भरमार है। जो जैसा है, वैसा नहीं दीखता। यहाँ हर प्रसंग में कबीर को उलटबांसियों की भरमार हैं। पहेली बुझाने की तरह हर बात पर सोचना पड़ता है। प्...
अन्धकार को दीपक की चुनौती
अन्धकार की अपनी शक्ति है। जब उसकी अनुकूलता का रात्रिकाल आता है, तब प्रतीत होता है कि समस्त संसार को उसने अपने अञ्चल में लपेट लिया। उसका प्रभाव- पुरुषार्थ देखते ही बनता है। आँखें यथा स्थान बनी रहती ...
मानव-जीवन को प्रभावित करने वाले दो आधार
धर्मतंत्र और राजतंत्र, दो ही मानव-जीवन को प्रभावित करने वाले आधार हैं। एक उमंग पैदा करता है तो दूसरा आतंक प्रस्तुत करता है। एक जन-साधारण के भौतिक जीवन को प्रभावित करता है और दूसरा अन्त:करण के मर्मस...
व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व
व्यक्ति की शरीर रचना तो माता-पिता के सम्भोग से अन्य प्राणियों की ही भाँति हो जाती है, किन्तु व्यक्तित्व की रचना बड़ी सावधानी और सूझ-बूझ के साथ करनी होती है।
दार्शनिकों से लेकर वै...
मस्तिष्क वृक्ष की जड़ों के समान
गीता में मनुष्य की तुलना एक ऐसे पीपल के वृक्ष के साथ की है जिसकी जड़ें ऊपर और शाखा, पत्ते नीचे हैं। मस्तिष्क ही जड़ है और शरीर उसका वृक्ष। वृक्ष का ऊपर वाला भाग दिखाई पड़ता है, जड़ें नीचे जमीन में ...
आन्तरिक निकटता चाहिए
दूसरों की तरह हमारे भी दो शरीर हैं, एक हाड़-मांस का, दूसरा विचारणा एवं भावना का। हाड़-मांस से परिचय रखने वाले करोड़ों हैं। लाखों ऐसे भी हैं जिन्हें किसी प्रयोजन के लिए हमारे साथ कभी सम्पर्क करना...