आत्मिक प्रगति के तीन अवरोध (भाग 1)
आत्मिक प्रगति के पथ पर अवरोध उत्पन्न करने वाली दुष्प्रवृत्तियों में तीन प्रधान हैं। इन्हें ताड़का, सूर्पणखा और सुरसा की उपमा दी जाती है। इन्हें निरस्त किये बिना असुरता के चंगुल में फँसी हुई सीता का-आत्मा का-उद्धार नहीं हो सकता। इन्हें पुत्रेषणा-वित्तेषणा और लोकेषणा कहा जाता है। वासना-तृष्णा और अहंता की प्रवृत्तियाँ ही सबल होने पर इन एषणाओं के रूप में परिलक्षित होती हैं।
इंद्रिय वासनाओं में यों सभी अपने-अपने ढंग की खींचतान करती हैं। पर उनमें रसना और कामुकता को प्रमुख माना गया है। चटोरपन के कुचक्र में पेट पर अभक्ष्य पदार्थों का अनावश्यक भार लदता है। अपच के फलस्वरूप शरीर में अगणित रोग उत्पन्न होते हैं। दुर्बलता और रुग्णता ग्रसित होकर अकाल मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। अस्वस्थता की विपत्ति ढाने में जिह्वा का चटोरापन भयंकर शत्रु से भी अधिक आक्रमणकारी और विघातक सिद्ध होता है। वासना की दूसरी प्रवृत्ति है- कामुकता। यौनाचार की कल्पना और क्रिया में उलझा हुआ मस्तिष्क अपनी अति महत्त्वपूर्ण क्षमता को ऐसे जंजाल में फँसा देता है जिसमें, पाना रत्तीभर और गँवाना पहाड़ भर पड़ता है।
प्रकृति की चतुरता ही कहिए कि उसने प्राणियों की संख्या बनाये रहने के लिए कष्ट साध्य भार उठाने के लिए यौनाचार की सरसता उत्पन्न कर दी। यदि यह उन्माद न चढ़ता तो कदाचित ही कोई प्राणी प्रजनन की अति कठिन और अतीव बोझिल प्रक्रिया को अपने कंधों पर लादने के लिए तैयार होता। वासनाओं में जीभ के चटोरेपन पर रोकथाम करना आवश्यक है। पेट में कोई वस्तु तभी पहुँचने दी जाय जब कड़ाके की भूख उसके लिए तीव्रतापूर्वक माँग करती हो। सात्विक सुपाच्य पदार्थ स्वेच्छापूर्वक शान्त चित्त से सीमित मात्रा में ग्रहण किये जायें। जो खाया जाय औषधि रूप हो। स्वाद की उत्तेजना तो नशेबाजी की तरह है, जिसमें हर दृष्टि से हानि ही हानि उठानी पड़ती है।
दूसरे यौनाचार लिप्सा के सम्बन्ध में और भी गम्भीरता पूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। जो जीवन रस, हमारे ओजस्-तेजस् और ब्रह्म वर्चस् का आधार हैं उसे क्षणिक आवेश में ऐसे ही गँवाते रहने की गलती को सुधारना ही समझदारी है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति अक्टूबर 1977 पृष्ठ 17
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