प्राप्त का दुरूपयोग न होने दें
जन्मा, कुछ दिन खेला-कूदा, किशोरावस्था आने पर कल्पना की रंगीली उड़ानें भरना, युवा होते-होते विवाह बंधनों में बंधना, जो बोझ लादा उसे वहन करते रहने के लिए दिन-रात कमाने के लिए खटते रहना, बढाए हुए परिवार की बढती समस्याओं को जिस-तिस प्रकार किसी हद तक सुलझाना, ढलती आयु के साथ अशक्तता और रुग्णता का चढ़ दौड़ना, समर्थ संतानों द्वारा समस्त वैभव पर कब्ज़ा जमा लेना, स्वयं को असहाय, अपमानित स्थिति में दिन गुजारने के लिए बाधित होना और रोते-कलपते मौत द्वारा दबोच लिया जाना, क्या यही है आम लोगों की नियति?
अपने आस-पास की ही वास्तविकता से कोसों दूर, भ्रांतियों में उलझे रहकर, अधिकांश लोगों से तो आत्म-समीक्षा तक नहीं बन पड़ती। जिंदगी का बोझ तो किसी प्रकार वहन कर लिया जाता है, पर उसके साथ अपने को, विशाल विश्व को और भारी अरमानो के साथ हमें निहाल करने वाले स्रष्टा को क्या मिला? इस प्रकार विचार करने पर एक ही उत्तर प्रतिध्वनित होता है, कि जो सुयोग-सौभाग्य उपलब्ध हुआ था, वह जलने-भुनने पर उठने वाले काले धुएँ की तरह कुछ बना तो सही; पर अदृश्य अंतरिक्ष में एक विस्मृत तथ्य बनकर न जाने कहाँ तिरोहित (विलीन) हो गया!
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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