‘‘हम बदलेंगे युग बदलेगा’’ सूत्र का शुभारम्भ (भाग १)
आदत पड़ जाने पर तो अप्रिय और अवांछनीय स्थिति भी सहज और सरल ही प्रतीत नहीं होती, प्रिय भी लगने लगती है। बलिष्ठ और बीमार का मध्यवर्ती अन्तर देखने पर यह प्रतीत होते देर नहीं लगती कि उपयुक्त एवं अनुपयुक्त के बीच कितना बड़ा फर्क होता है। अतीत के देव मानवों के स्तर और सतयुगी स्वर्गोपम वातावरण से आज के व्यक्ति और समाज की तुलना करने पर यह समझते देर नहीं लगती कि उत्थान के शिखर पर रहने वाले इस धरती के सिरमौर पतन के कितने गहरे गर्त में क्यों व कैसे आ गिरे।
आज शारीरिक रुग्णता, मानसिक उद्विग्नता, आर्थिक तंगी, पारिवारिक विपन्नता, सामाजिक अवांछनीयता क्रमशः बढ़ती ही चली जा रही है, अभ्यस्तों को तो नशेगाजी की लानत और उठाईगीरी भी स्वाभाविक लगती है, कोढ़ी भी आने समुदाय में दिन गुजारते रहते है पर सही और गलत का विश्लेषण करने पर प्रतीत होता है कि हम सब ऐसी स्थिति में रह रहे है जिसे मानवी गरिमा से गई गुजरी, सड़ी ही कहा जा सकता है।
उत्थान पतन के विवेचन कर्ता बताते रहे है कि परिस्थिति और कुछ नहीं मनःस्थिति की परिणति मात्र है। चिन्तन, चरित्र और व्यवहार के समन्वय से व्यक्तित्व बनता है। यही है जो शक्तिशाली चुम्बक की तरह अपनी सजातीय परिस्थितियों को खींचता, घसीटता और इर्द गिर्द जमा करता रहता हैं। जो भीतर से जैसा है वह बाहर से भी उसी स्तर के वातावरण से घिरा रहता है। बीज के अनुरूप ही पेड़ का स्वरुप और फलों का स्वाद आकार होता है। व्यक्तित्व को बीज और परिस्थितियों को उसकी परिणति कहा जाय तो उसमें तनिक भी अत्युक्ति न होगी।
समाज व्यक्तियों का समूह मात्र है। लोगों का स्तर जैसा भी भला बुरा होता है समाज का प्रचलन, स्वरूप एवं माहौल वैसा ही बनकर रहता है। व्यक्ति को महत्ता देनी हो तो उसकी मनःस्थिति को ही श्रेय या दोष देना चाहिए। गुण, कर्म, स्वभाव का स्तर ही मनुष्य का वास्तविक वैभव है। उसी के अनुरूप मनुष्य उठते गिरते और सुख दुख पाते रहते हैं। बहुमत जैसा होता है समाज का स्वरूप एवं ढाँचा भी तदनुरूप बनकर खड़ा हो जाता है। मानवी उत्थान पतन के इस तत्व दर्शन को समझने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि परिस्थितियों में सुधार परिवर्तन करना हो तो व्यक्ति के अन्तराल को कुरेदना चाहिए। मनुष्य के दृष्टिकोण, स्वभाव एवं चरित्र में उत्कृष्टता का समावेश हो सके तो ही सयह सम्भव है कि शान्ति, प्रगति और प्रसन्नता का आनन्द लेते हुए हँसती हँसाती, खिलती खिलाती जिन्दगी जियी जा सके। सभ्य सज्जनों का समुदाय ही समुन्नत समाज कहा और स्वर्ग सतयुग कहकर सराहा जाता है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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