Yug Parivartan Ka Aadhar युग परिवर्तन का आधार भावनात्मक नव निर्माण (अंतिम भाग)
जाति या लिंग के कारण किसी को ऊँचा या किसी को नीचा न ठहरा सकेंगे, छूत- अछूत का प्रश्न न रहेगा। गोरी चमड़ी वाले लोगों से श्रेष्ठ होने का दावा न करेंगे और ब्राह्मण हरिजन से ऊँचा न कहलायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव, सेवा एवं बलिदान ही किसी को सम्मानित होने के आधार बनेंगे, जाति या वंश नहीं। इसी प्रकार नारी से श्रेष्ठ नर है उसे अधिक अधिकार प्राप्त है, ऐसी मान्यता हट जायेगी। दोनों के कर्तव्य और अधिकार एक होंगे। प्रतिबन्ध या मर्यादाएँ दोनों पर समान स्तर की लागू होंगी। प्राकृतिक सम्पदाओं पर सब का अधिकार होगा। पूँजी समाज की होगी। व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार उसमें से प्राप्त करेंगे और सामर्थ्यानुसार काम करेंगे। न कोई धनपति होगा न निर्धन, मृतक उत्तराधिकार में केवल परिवार के असमर्थ सदस्य ही गुजारा प्राप्त कर सकेंगे। हट्टे- कट्टे और कमाऊ बेटे बाप के उपार्जन के दावेदार न बन सकेंगे, वह बचत राष्ट्र की सम्पदा होगी। इस प्रकार धनी और निर्धन के बीच का भेद समाप्त करने वाली समाजवादी व्यवस्था समस्त विश्व में लागू होगी। हराम खोरी करते रहने पर भी गुलछर्रे उड़ाने की सुविधा किसी को न मिलेगी। व्यापार सहकारी समितियों के हाथ में होगा, ममता केवल कुटुम्ब तक सीमित न रहेगी, वरन् वह मानव मात्र की परिधि लाँघते हुए प्राणिमात्र तक विकसित होगी। अपना और दूसरों का दुःख- सुख एक जैसा अनुभव होगा। तब न तो माँसाहार की छूट रहेगी और न पशु पक्षियों के साथ निर्दयता बरतने की। ममता और आत्मीयता के बन्धनों में बँधे हुए सब लोग एक दूसरे को प्यार और सहयोग प्रदान करेंगे।
शरीर, मन, वस्त्र, उपकरण सभी को स्वच्छ रखने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। शुचिता का सर्वांगीण विकास होगा। गंदगी को मानवता का कलंक माना जायेगा। न किसी का शरीर मैला कुचैला रहेगा न वस्त्र। घरों को गंदा गलीज न रहने दिया जायेगा। मनुष्य और पशुओं के मल- मूत्र को पूरी तरह खाद के लिए प्रयुक्त किया जायेगा। वस्तुएँ यथा स्थान, यथा क्रम और स्वच्छ रखने की आदत डाली जायेगी। मन में कोई छल- कपट, द्वेष- दुर्भाव जैसी मलीनता न रहेगी।
एकता, समता, ममता और शुचिता इन चार मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर विभिन्न आचार संहिताएँ, रीति- नीति, विधि व्यवस्थाएँ, मर्यादाएँ और परम्पराएँ बनाई जा सकती हैं। भौगोलिक तथा अन्य परिस्थितियों को देखते हुए उनमें हेर- फेर भी यत्किंचित होते रह सकते हैं। पर आधार उनके यही रहेंगे।
यह ध्यान रखने की बात है कि संसार की दो ही प्रमुख शक्तियाँ है- एक राजतन्त्र दूसरी धर्मतन्त्र। राजसत्ता में भौतिक परिस्थितियों को प्रभावित करने की क्षमता है और धर्म सत्ता में अन्तःचेतना को। दोनों को कदम से कदम मिलाकर एक दूसरे की पूरक होकर रहना होगा।
नव निर्माण की पृष्ठभूमि धर्म मूलक ज्ञान होगा। इसी के लिए ज्ञानतन्त्र खड़ा किया गया है और ज्ञान यज्ञ का महान अभियान चलाया गया है। स्वल्प साधनों से भी वह जिस द्रुतगति के साथ बढ़ता जा रहा है उसे देखते हुए पूर्व से सूर्योदय होने के और उसका प्रकाश सर्वत्र फैलने की बात पर सहज ही विश्वास किया जा सकता है।
.... समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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