देव संस्कृति की गौरव गरिमा
सभ्यता और संस्कृति इस युग के दो बहु-चर्चित विषय हैं। आस्थाओं और मान्यताओं को संस्कृति और तदनुरूप व्यवहार, आचरण को सभ्यता की संज्ञा दी जाती है। मानवीय सभ्यता और संस्कृति कहें या चाहे जो भी नाम दें मानवीय दर्शन सर्वत्र एक ही हो सकता है, मानवीय संस्कृति केवल एक हो सकती है दो नहीं क्योंकि विज्ञान कुछ भी हो सकता है। इनका निर्धारण जीवन के बाह्य स्वरूप भर से नहीं किया जा सकता। संस्कृति को यथार्थ स्वरूप प्रदान करने के लिए अन्ततः धर्म और दर्शन की ही शरण में जाना पड़ेगा।
संस्कृति का अर्थ है-मनुष्य का भीतरी विकास। उसका परिचय व्यक्ति के निजी चरित्र और दूसरों के साथ किये जाने वाले सद्व्यवहार से मिलता है। दूसरों को ठीक तरह समझ सकने और अपनी स्थिति तथा समझ धैर्यपूवक दूसरों को समझा सकने की स्थिति भी उस योग्यता में सम्मिलित कर सकते हैं, जो संस्कृति की देन है।
आदान-प्रदान एक तथ्य है, जिसके सहारे मानवीय प्रगति के चरण आगे बढ़ते-बढ़ते वर्तमान स्थिति तक पहुँचे हैं। कृषि, पशुपालन, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प-उद्योग विज्ञान, दर्शन जैसे जीवन की मौलिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित प्रसंग किसी क्षेत्र की बपौती नहीं है। एक वर्ग की उपलब्धियों से दूसरे क्षेत्र के लोग परिचित हुए हैं। परस्पर आदान-प्रदान चले हैं और भौतिक क्षेत्र में सुविधा संवर्धन का पथ-प्रशस्त हुआ है। ठीक यही बात धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में भी है। एक लहर ने अपने सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित किया है। तो दूसरी लहर ने उसे आगे धकेला है। लेन-देन का सिलसिला सर्वत्र चलता रहा है। मिल-जुलकर ही मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ा है। इस सम्पर्क से धर्म और संस्कृति भी अछूते नहीं रहे हैं। उन्होंने एक-दूसरे को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित किया है।
यह सभ्यताओं का समन्वय एवं आदान-प्रदान उचित भी है और आवश्यक भी। कट्टरता के इस कटघरे में मानवीय विवेक को कैद रखे रहना असम्भव है। विवेक दृष्टि से जाग्रत होते ही इन कटघरों की दीवारें टूटती हैं और जो रुचिकर या उपयोगी लगता है, उसका बिना किसी प्रयास या दबाव के आदान-प्रदान चल पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए कट्टरपन्थी प्रयास सदा से हाथ-पैर पीटते रहे हैं, पर यह कठिन ही रहा है। हवा उन्मुक्त आकाश में बहती है। सर्दी-गर्मी का विस्तार व्यापक क्षेत्र में होता है। इन्हें बन्धनों में बाँधकर कैदियों की तरह अपने ही घर में रुके रहने के लिए बाधित नहीं किया जा सकता है। सम्प्रदायों और सभ्यताओं में भी यह आदान-प्रदान अपने ढंग से चुपके-चुपके चलता रहा है।
धर्म और संस्कृति दोनों ही सार्वभौमिक हैं, उन्हें सर्वजनीन कहा जा सकता है। मनुष्यता के टुकड़े नहीं हो सके। सज्जनता की परिभाषा में बहुत मतभेद नहीं है। शारीरिक संरचना की तरह मानवी अन्तःकरण की मूल सत्ता भी एक ही प्रकार की है। भौतिक प्रवृत्तियाँ लगभग एक-सी हैं। एकता व्यापक है और शाश्वत। पृथकता सामयिक है और क्षणिक। हम सब एक ही पिता के पुत्र हैं। एक ही धरती पर पैदा हुए हैं। एक ही आकाश के नीचे रहते हैं। एक ही सूर्य से गर्मी पाते हैं और बादलों के अनुदान से एक ही तरह अपना गुजारा करते हैं फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बँधे रह सकते हैं? औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान-प्रदान का द्वार जितना खोलकर रखा जाय उतना ही स्वच्छ हवा और रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियाँ बन्द रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न स्वच्छ हवा और खुली धूप में मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपनाकर पाया कम और खोया अधिक जाता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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