इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 4)
पुरे समय के लिए तत्काल भावनात्मक नव−निर्माण को ब्राह्मणोचित परम्परा का निर्वाह करने के लिए हर किसी को नहीं कहा जा सकता। जिनने पारिवारिक उत्तरदायित्व पूरे कर लिये हैं, उन्हें वानप्रस्थ में प्रवेश करने के लिए बहुत दिनों से कहा जा रहा है। जुलाई 73 की अखण्ड−ज्योति में इस संदर्भ में अधिक जोर दिया गया है और जो घर की जिम्मेदारियों से निवृत्त हो चुके उन्हें परमार्थिक−जीवन में प्रवेश करने के लिए वानप्रस्थ में प्रवेश करने का अनुरोध किया गया है। दूसरे स्तर के क्लिष्ट वानप्रस्थ वे होंगे —जो अभी शेष जीवन पुरी तरह इस महान लक्ष्य के लिए समर्पित करने की स्थिति में तो नहीं है, पर अधिकाधिक साहस इसके लिए जुटाते रहेंगे।
अब इस श्रृंखला में एक नई कड़ी और जोड़ी जा रही है कि जिन्हें जब जितना अवकाश हुआ करे, तब वे उतने समय के लिए परमार्थ प्रयोजनों के लिए अपना समय लगाने का निश्चय करें और उन्हें कहाँ क्या करना है—इसका निर्देश ‘युग−निर्माण योजना’ मथुरा एवं शान्तिकुंज से प्राप्त कर लिया करे। इस प्रकार थोड़ा−थोड़ा समय भी अनेक व्यक्ति देने लगेंगे तो उस सबका सम्मिलित परिणाम बहुत बड़ा हो जायगा। एक लाख व्यक्ति ऐसे थोड़ा−थोड़ा समय देने वाले हों तो उन सबका मिला हुआ कार्य हजारों नियमित एक पूरे जीवन के लिए साधु−संस्था में प्रवेश करने वालों जितना ही हो जायगा। यह प्रक्रिया सरल बैठेगी। इस योजना के अंतर्गत व्यस्त और पारिवारिक बोझ से लदे हुए व्यक्ति भी थोड़ा-बहुत समय देते रहेंगे तो उन्हें यह पश्चाताप न रहेगा कि हम घरेलू झंझटों में उलझे रहने रहने के कारण युग की पुकार को पूरा करने के लिए कुछ भी न कर सके। ऐसे व्यक्ति पूरा न सही—अधूरा सही का थोड़ा-बहुत अवसर पाकर भी आत्म-सन्तोष की एक साँस ले सकते हैं और कह सकते हैं कि मानवता पर छाई हुई विषम-वेला में हम मूक-दर्शक बने रहने वाले अभागों में से नहीं है। जितना कुछ संभव था, उतना तो किया ही।
बँधा रुपया न मिले। एक-एक पैसे वाले सौ सिक्के मिल जायँ तो गिनने, धरने, उठाने का झंझट तो जरूर रहेगा, पर प्रयोजन वही पूरा हो जायगा—जो एक रुपये से सम्भव होता है। पूरे समय के लिए वानप्रस्थ न मिले तो थोड़ा-थोड़ा समय देने वाले अनेकों का सहयोग लेकर भी सामयिक संकट से जूझने का सुयोग बन सकता है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 24
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