इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 3)
साधु−संस्था को पुनर्जीवित करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं, जिसके सहारे आपत्ति ग्रस्त मानवता की प्राणरक्षा की जा सके। समस्याओं के काल−पाश में गर्दन फंसाये हुए इस सुन्दर विश्व को मरण से केवल साधु ही बचा सकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक दूसरे का मुँह न ताका जाय, वरन् इस आपत्ति−काल से जूझने के लिए अपना ही कदम बढ़ाया जाय।
अखण्ड−ज्योति परिवार की मणिमाला से एक से एक बढ़कर रत्न मौजूद है। समय आने पर उनके मूल्यवान् अस्तित्व का परिचय हर किसी को मिल सकता हे। अब उसी का समय आ पहुँचा। हमें समय की पुकार पूरी करने के लिए स्वयं ही आगे आना चाहिए।
यो साधु और ब्राह्मण का एक समान जीवन−क्रम होता है और उसी विधि से पूरी जिन्दगी की रूपरेखा बनाने की प्रथा है। पर आपत्ति धर्म के अनुसार सीमित समय के लिए उस क्षेत्र में प्रवेश करने और फिर वापिस अपने समय स्थान पर लौट आने की पद्धति अपनानी पड़ेगी। या तो पूरा या कुछ नहीं की, बात पर अड़ने की आवश्यकता सदा नहीं होती। मध्यम मार्ग पर चलने से कुछ तो लाभ होना ही है। पूरी न मिले तो अधूरी से काम चलाने की नीति है। युद्धकाल में प्रत्येक वयस्क नागरिक को बाधित रूप से सेना में भर्ती होने का आदेश दिया जा सकता है। जब तक संकट−काल रहता है तब तक वे सामान्य नागरिक सेना में भर्ती रहते है। स्थिति सुधरते ही वे सेना छोड़कर घर वापिस आ जाते है और अपने साधारण कार्यों में लग जाते है। साधु−संकट के इस महान् दुर्भिक्ष में भी हम सामान्य नागरिकों को थोड़े−थोड़े समय के लिए उन उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने के लिए आगे आना चाहिए। एक−एक घण्टा श्रमदान करके जब बड़े−बड़े सार्वजनिक प्रयोजन पूरे किये जा सकते है तो कोई कारण नहीं कि हम सब स्वल्प−कालीन व्रत धारण करके साधु−संस्था पर छाये हुए दुर्लभ संकट का निवारण करने के लिए कुछ न सके।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 23
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