इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 2)
वर्तमान साधु−ब्राह्मणों का दरवाजा खटखटाते हमें एक युग बीत गया। उन्हें नीच−ऊँच समझाने में जितना श्रम किया और समय लगाया, उसे सर्वथा व्यर्थ चला गया ही समझना चाहिए। निराश होकर ही हमें इस नतीजे पर पहुंचना पड़ा है कि सड़ी वस्तु को पुनः स्वस्थ स्थिति में नहीं लाया जा सकेगा। हमें नई पौध लगाने और नई हरियाली उगाने के लिए अभिनव प्रयत्न करने होंगे। उसी का आरम्भ कर भी रहे हैं।
विश्वास किया जाना चाहिए कि आदर्शवादिता अभी पूरी तरह अपंग नहीं हो गई हैं। महामानव स्तर की भावनायें सर्वथा को विलिप्त नहीं हो गई हैं। लोभ और मोह ने मनुष्य को जकड़ा तो जरूर है, पर वह ग्रहण पूरा खग्रास नहीं है। सूर्य का एक ऐसा कोना अभी भी खाली है और उतने से भी काम चलाऊ प्रकाश किरणें विस्तृत होती रह सकती है। ऋषि−रक्त की प्रखरता उसकी सन्तानों की नसों में एक बूँद भी शेष रही हो—ऐसी बात नहीं है। दम्भ का कलेवर आकाश छू रहा है—सो ठीक है,पर सत्य न अभी भी मरण स्वीकार नहीं किया है। अपराधी में हर व्यक्ति अन्धा हो रहा हैं पर ऐसा नहीं समझना चाहिए कि परमार्थ की परम्परा का अस्तित्व ही समाप्त हो गया।
देश,धर्म, समाज और संस्कृति की बात सोचने के लिए किसी के भी मस्तिष्क में गुंजाइश नहीं रहीं ही, अभी ऐसा अन्धकार नहीं छाया है। अब किसी के भी मन में दूसरों के लिए दर्द ने रह गया हों, दूसरों के सुख में अपना सुख देखने वाले हृदय सर्वथा उजड़−उखड़ गये हों, ऐसी बात नहीं है। धर्म के बीच नष्ट तो कभी भी नहीं हुए हैं। आत्म−सत्ता की वरिष्ठता का आत्यन्तिक मरण हो गया हो— ऐसी स्थिति अभी नहीं आई है। मनुष्य ने पाप और पतन के हाथों अपने को बेच दिया हो और देवत्व से उसका कोई वास्ता न रह गया हो— ऐसा नहीं सोचना चाहिए। मानवी महानता अभी कहीं न कहीं, किसी न किसी अंश में जीवित जरूर मिल जायगी। हम उसी को ढूंढ़ेंगे। जहाँ थोड़ी−सी साँस मिलेगी,यहाँ आशा के चीवर ढुलाऐंगे और कहेंगे—पशुता से ऊँचे उठकर देवत्व की परिधि में प्रवेश करने का प्रयत्न करो।
मरणोन्मुख मनुष्यता तुम्हारी बाट जोहती है। चलो,उसे निराश न करों। हमें आशा है कि कहीं न कहीं से ऐसी आत्मा ढूंढ़ ही निकाली जा सकेगी, जिनमें मानवी महानता जीवित बच रही हो। उन्हें युग की दर्द भरी पुकार सुनने के लिए अनुरोध करेंगे और कहेंगे—मनुष्य जाति को सामूहिक आत्महत्या करने से रोकने का अभी भी समय बाकी है। कुछ तो अभी किया जा सकता है, सो करना चाहिए। अपने को खोकर यदि संस्कृति को जीवित रखा जा सकता है तो इस सौदे को पक्का कर ही लेना चाहिए।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 22
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