इस आपत्ति−काल में हम थोड़ा साहस तो करें ही! (भाग 1)
क्रिया या कलेवर एक जैसे होने पर भी व्यक्तियों की वास्तविकता एक जैसी नहीं हो सकती। किसी ऐतिहासिक व्यक्ति की फिल्म बनाने वाले सुरत का आदमी ढूँढ़ निकालते हैं और उससे ऐक्टिंग भी वैसा ही करा लेते हैं। इतने पर भी वह नर वैसा नहीं हो सकता, जैसा कि वह मृत व्यक्ति था। सूर, कबीर, मीरा, तुलसी, चैतन्य,विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर आदि पर फिल्में बन चुकी हैं। जिनने पाठ किये है, वे देखने वाले को असली या नकली के भ्रम में डाल देते हैं। ’बहुरूपिये’ कई−कई तरह के वेष बदल कर दर्शकों को चक्कर में डाल देते हैं और अपनी कला का पुरस्कार पाते है। इतने पर भी वे उस असली के स्थान पर नहीं पहुँच सकते, जिसकी कि नकल बनाई गई थी।
आज साधु−ब्राह्मणों की नकल बनाने वाले बहुरूपियों की—ऐक्टरों की भरमार है। जटा, कमण्डल, धूनी, चिमटा, दाढ़ी, कोपीन सब ऐसी मानों महर्षि वेदव्यास अभी सीधे ही हिमालय से चले आ रहे हैं। ब्राह्मणों के तिलक−छाप, पगड़ी,दुपट्टा,कथा,मंत्रोच्चार ठीक वैसा ही गुरु−वशिष्ठ का आगमन अभी−अभी हो रहा है। बाहरी दृष्टि से सब कुछ ऐसा बन जाता है कि ‘टू कापी’ कहने में किसी को झिझकना पड़े। किन्तु आचार और विचार में जमीन−आसमान जितना अन्तर होने से उस नकल से कुछ प्रयोजन साधता नहीं—कुछ बात बनती नहीं।
अवाँछनीय लाभ उठाते रहने वाले वर्गों को कष्टसाध्य आदर्शवादी मार्ग पर चलने के लिए तैयार करना प्रायः असम्भव हो जाता है। राजा लोग समय रहते बदल सकते थे। ऐसा करके वे अपना प्रभाव और वर्चस्व भी बनाये रह सकते थे, जनता का हित कर सकते थे और दुर्गति से बच सकते थे, पर उनसे वैसा साहस करते बन नहीं पड़ा। जमींदार,रईस, सामन्त मिटते गये,पर बदले नहीं। जिन्हें मुफ्त में प्रचूर धन वैभव मिल रहा है। बिना तप, त्याग के पूजा−सम्मान पा रहे हैं, उनकी आत्मा इतनी बलिष्ठ न हों सकती कि आदर्शवादी जीवनचर्या अपना सकें, अहंकार को त्याग सकें और कष्टसाध्य सेवा साधना में आने को संलग्न कर सकें। यह इसलिए और भी अधिक कठिन है कि उन्हें आरम्भिक प्रेरणा व्यक्तिवादी स्वार्थपरता की पूर्ति से मिली है। उनका मन, मस्तिष्क इसी लाभ ने आकर्षित किया है। लोक में धन, सम्मान,परलोक में स्वर्ग−मुक्ति का लाभ तनिक −सा वेष बदलने भर से मिल सकता है। यही आकर्षण उन्हें इस राह पर खींच कर लाया है।
दूसरों का शोषण अपनी स्वार्थ −सिद्धि जिन्हें उपयुक्त जंची है, उन्हीं ने इस मार्ग पर छलाँग लगाई है। यदि उन्हें आरम्भ में ही तप, त्याग,संयम,सेवा की बात कही जाती तो कदाचित वे साधु बनने के लिए कदापि तैयार न होते। इस आन्तरिक दुर्बलता का लगातार पोषण ही होता रहा है, समर्थन ही मिलता रहा है। अब वे अपनी मूल मान्यताएँ बदलें तभी उन्हें सेवा−साधना की बात जँच−रुच। यह इतना कठिन है, जिसे लगभग असम्भव भी कहा जा सकता है। जो लोग संसार को माया कहते हैं, सेवा का शूद्रों का कार्य बताते रहे हैं, जिन्हें” तोहि बिरानी क्या पड़ी, तू अपनी निरबेर “ की बात आदि से अन्त तक सुनने को मिलती रही हैं, वे परम गहन सेवा−धर्म स्वीकार करने का, प्रभू समर्पित जीवन जीने का साहस कर सकेंगे,ऐसी आशा नहीं ही की जानी चाहिए।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1974 पृष्ठ 22
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