सद्भावना ही श्रेष्ठ है।
आपरा की सद्भावना अनिवार्य है। हर परस्पर सन्देह और संशय करके तो भय को ही उत्पन्न करेंगे और एक दूसरे का हास और अन्ततः नाश ही करेंगे। हमें आपस में विचार करना सीखना होगा। विश्वास की भित्ति पवित्रता है और पवित्र हृदयों में ही विश्वास उत्पन्न होता है। पवित्र हृदय और निर्मल बुद्धि में सद्भावना का उदय होता है। सद्भावना परम आवश्यक है। सद्भावना से ही आपस का दृष्टिकोण सम्यक् बनता है। सद्भावना के अभाव में तो एक दूसरे में सन्देह और भय की ही उत्पत्ति है। हम आपस में क्यों एक दूसरे से भय करें।
भय की जाँच की जाय तो इसका छिपा हुआ कारण निजी या सामूहिक स्वार्थ ही होता है, और जब वह स्वार्थ किसी देश और जाति भर में फैल जाता है तो एक दूसरे राष्ट्र पर सन्देह होने लगता है। जब राष्ट्र आपस में एक दूसरे की उन्नति और प्रगति को सन्देह की दृष्टि से देखने लगते हैं तो वास्तव में उनकी सम्यक् दृष्टि रहती ही नहीं, वे रंगी हुई ऐनक से ही देखते हैं और चाहे वह रंग उनका अपना ही चढ़ाया हुआ हो, जब तक वह रंग ऐनक के आइनों पर चढ़ा रहेगा, सभी उसी रंग में रंगे दीखेंगे और जब हम दूसरे राष्ट्र को सन्देह की दृष्टि से देखेंगे तो वह हमें क्यों न सन्देह की दृष्टि से देखे? इस प्रकार संदेह और भय का एक चक्र बन जाता है। क्या आजकल राष्ट्र इस प्रकार एक दूसरे से दूर नहीं होते जा रहे?
छिपी हुई दूषित अथवा विशुद्ध मनोवृत्ति व्यवहार में प्रकट हो जाती है। मनोवृत्ति को छिपा कर ऊपर से शिष्टता का व्यवहार भी बहुत देखने में आ रहा है, पर वास्तविकता छिपाये नहीं छिप सकती। हमें सबको मित्र दृष्टि से देखना चाहिए, मन में किसी प्रकार की मलिनता का स्थान नहीं देना चाहिए, पर साथ ही सचेत और सावधान भी रहना चाहिये कि कहीं हमारी सरलता से ही लाभ न उठाया जाये। सतर्क रहना सावधान रहना चाहिए, पर मनोमालिन्य अच्छा नहीं।
अखण्ड ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 15
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