माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 3)
हाथी माँस नहीं खाता, बैल और भैंसे माँस नहीं खाते, साँभर नील गाय शाकाहारी जीव हैं, यह शक्ति में किसी से कम नहीं होते। भारतवर्ष संसार के देशों में एक ऐसा देश है जिसमें अधिकाँश लोग अभी भी शाकाहार करते हैं यह प्रत्यक्ष उदाहरण है कि भारतीयों जैसा शौर्य संसार की किसी भी जाति में नहीं है। यदि किसी में है भी तो वह चील−झपट्टे जैसा है। आकस्मिक प्रहार तो एक बच्चे का भी प्राण घातक हो सकता है, उसे शौर्य कभी नहीं कहा जा सकता। वीरता आत्मा की पवित्रता का गुण है और वह माँसाहार से कदापि विकसित नहीं हो सकता।
किन्हीं अंशों में ऐसा न भी हो तो भी मनुष्य का पाचन संस्थान माँसाहारी प्राणियों के पाचन संस्थान की तरह कठोर और बलवान् नहीं होता। वह कम अम्लीय प्रकृति (एसिडिक नेचर) का ही आहार पचा सकता है। माँस में क्लिष्ट प्रोटीनों (काम्प्लेक्स प्रोटीन्स) की मात्रा अधिक होती है, अधिक प्रोटीन युक्त भोजन वैसे ही रक्त को अधिक अम्लीय बना देते हैं। माँसाहारी जन्तुओं का पाचन संस्थान काफी शक्तिशाली होता है। इनका माँस पचता है, तब काफी मात्रा में एमीनो एसिड बन जाता है, उसी एमीनो एसिड को यकृत (लिवर) प्रोटीन्स में बदल देते हैं। इसीलिये लगता है माँसाहार में शक्ति अधिक है।
किन्तु एमीनो एसिड में यूरिया (मूत्र) की मात्रा भी कम नहीं होती। सार्कोलैक्टिक एसिड भी माँसाहार से बनता है। यह दोनों पदार्थ रक्त में उसी मात्रा में शोषित (आब्जर्व) हो जाते हैं। ऐसा दूषित रक्त जब मस्तिष्क में परिभ्रमण करते हुये पहुँचता है, तब अधिक अम्लीय होने के कारण नाड़ी संस्थान (नर्वस सिस्टम) के नियंत्रक मस्तिष्क (पिट्युटरी ग्लैंड) में थकावट (फटीग) और अशुद्धता उत्पन्न करता है। इस थकावट और अशुद्धता को दूर करने के लिये अधिक रक्त की आवश्यकता आ पड़ती है, फलस्वरूप हृदय की धड़कन गति बढ़ जाती है और मस्तिष्क को ज्यादा खून पहुँचने लगता है। इसी कारण रक्त चाप (ब्लड प्रेशर) की बीमारी उठ खड़ी होती है।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 27
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