माँसाहार का पाप पूर्व को भी पश्चिम न बना दे। (भाग 1)
डॉ. बारमस रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) की बीमारी पर एक शोध−कार्य चला रहे थे। अनेक रोगियों का अध्ययन करते समय उन्होंने जो एक सामान्य बात पाई वह यह थी कि रक्तचाप (ब्लडप्रेशर) के अधिकाँश बीमार लोग माँसाहारी थे। उनके मस्तिष्क में एक विचार उठा कि कहीं माँसाहार ही तो रक्तचाप का कारण नहीं है, यदि है तो किन परिस्थितियों में? इस प्रश्न के समाधान के लिये उन्होंने प्रयोग की दिशायें ही बदल दीं। अब वे माँसाहार से होने वाले शरीर पर प्रभाव का अध्ययन करने लगे। उनके प्रयोग और निष्कर्ष बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुये दूसरे वैज्ञानिकों ने भी माना कि माँसाहार केवल शरीर ही नहीं, मानसिक स्थिति को भी प्रभावित करता है। दोनों पर उसकी प्रतिक्रिया दूषित और अस्वाभाविक होती है।
कई माँसाहारी जीवों को कुछ दिन के लिये माँस देना बिलकुल बन्द कर दिया गया। इस अवधि में निर्वाह के लिये उन्हें घास, सब्जी और फल खाने को दिये गये। देखा गया कि ऐसा करने से कुछ दिन में ही इन जानवरों का उतावलापन मन्द पड़ गया, वे काफी शान्त रहने लगे, कम हिंसक हो चले।
एक दूसरे कमरे में कुछ शाकाहारी जीवों को रखकर उन्हें माँसाहार के लिये विवश किया गया। उनमें से कुछ ऐसे थे, जिन्होंने तो आमरण अनशन ही कर दिया, उन्होंने माँस को सूँघा तक नहीं। अन्त में परीक्षण के लिये उन्हें अम्लीय (एसिडिक) आहार दिया गया। इससे उन पर बड़े दूषित प्रभाव दिखाई दिये, उनकी पाचन क्रिया अवरुद्ध हो गई और कई तरह के रोगों ने घेर लिया। उनमें अधिक स्वार्थपरता आ गई, उनका सौम्य स्वभाव नष्ट हो गया, वे गुर्राने और काटने तक लगे। पहले उनके पास जाने में उन्हें कोई भय नहीं लगता था। वे सकरुण आँखों से देखते रहते थे। पर इस तरह के प्रयोग के बाद उनमें संशयशीलता की मात्रा एकाएक बहुत अधिक हो गई।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1970 पृष्ठ 26
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