भगवान की कृपा या अकृपा
एक व्यक्ति नित्य हनुमान जी की मूर्ति के आगे दिया जलाने जाया करता था। एक दिन मैंने उससे इसका कारण पूछा तो उसने कहा- ”मैंने हनुमान जी की मनौती मानी थी कि यदि मुकदमा जीत जाऊँ तो रोज उनके आगे दिया जलाया करूंगा। मैं जीत गया और तभी से यह दिया जलाने का कम चल रहा है।
मेरे पूछने पर मुकदमे का विवरण बताते हुए उसने कहा- एक गरीब आदमी की जमीन मैंने दबा रखी थी, उसने अपनी जमीन वापिस छुड़ाने के लिए अदालत में अर्जी दी, पर वह कानून जानता न था और मुकदमें का खर्च भी न जुटा पाया। मैंने अच्छे वकील किए खर्च किया और हनुमान जी मनौती मनाई। जीत मेरी हुई। हनुमान जी की इस कृपा के लिए मुझे दीपक जलाना ही चाहिए था, सो जलाता भी हूँ।
मैंने उससे कहा-भोले आदमी, यह तो हनुमान जी की कृपा नहीं अकृपा हुई। अनुचित कार्यों में सफलता मिलने से तो मनुष्य पाप और पतन के मार्ग पर अधिक तेजी से बढ़ता है, क्या तुझे इतना भी मालूम नहीं। मैंने उस व्यक्ति को एक घटना सुनाई-’एक व्यक्ति वेश्यागमन के लिए गया। सीढ़ी पर चढ़ते समय उसका पैर फिसला और हाथ की हड्डी टूट गई। अस्पताल में से उसने सन्देश भेजा कि मेरी हड्डी टूटी यह भगवान की बड़ी कृपा है। वेश्यागमन के पाप से बच गया।
मनुष्य सोचता है कि जो कुछ वह चाहे उसकी पूर्ति हो जाना ही भगवान ही कृपा है। यह भूल है। यदि उचित और न्याययुक्त सफलता मिले तो ही उसे भगवान की कृपा कहना चाहिए। पाप की सफलता तो प्रत्यक्ष अकृपा है। जिससे अपना पतन और नाश समीप आता है उसे अकृपा नहीं तो और क्या कहें?
बिनोवा
अखण्ड ज्योति मार्च 1964 पृष्ठ 1
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