ईर्ष्या नहीं, स्पर्द्धा करो
दूसरों के दुःख से तो बहुत से लोग दुःखी होते हैं पर कुछ दुष्ट स्वभाव के ऐसे लोग भी हैं जो दूसरों को सुखी देख कर भी दुःखी होते हैं। ऐसे लोगों को ईर्ष्यालु कहते हैं। स्वभाव का यह दुर्गुण विचारों को भी नष्ट करता है और शरीर को भी। ईर्ष्यालु व्यक्ति दूसरों को सुखी, सम्पन्न या सफल मनोरथ देखकर मन ही मन जलते हैं और उनकी सम्पन्नता नष्ट करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे मनुष्य व्यर्थ में शत्रुता मोल ले बैठते हैं और शरीर से रोग भी लगा लेते हैं। एक कहानी है कि एक बार कुछ लोग एक बहुत ही दुबले-पतले आदमी को पकड़ कर राजा भोज के पास लाये। राजा ने उससे उसकी इस दशा का कारण पूछा, तो उसने उत्तर दिया कि बाल्यावस्था में, मैं आपका सहपाठी था।
आपकी बुद्धिमत्ता और योग्यता आदि के कारण उस समय मैं आपसे ईर्ष्या करता था। आपके राजा होने के उपरान्त मेरी ईर्ष्या और भी बढ़ गई है, आपका वैभव, यश देखकर मेरे शरीर में आग लग जाती है। आपका दान, यश और वैभव आदि को देखकर मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता है। यही मेरी दुर्दशा का कारण है। तब राजा ने बढ़िया मकान, सेवा के लिए सेवक और धन देकर कहा कि तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करना और जिस चीज की आवश्यकता हो माँग लेना। कुछ दिनों के उपरान्त राजा ने उसे फिर से देखना चाहा तो उस समय भी उसकी दशा पहले जैसी थी। कारण पूछने पर उसने कहा, सब सुख सामग्री मेरे पास है केवल अधिकार नहीं है। राजा ने उसे एक उच्च पद पर नियुक्त करके उसकी यह कामना भी पूरी करदी। पर इससे भी उसकी संतुष्टि नहीं हुई। अन्त में जागीरें तक दी गईं पर वह ज्यों का त्यों रोगी और दुर्बल बना रहा। अन्त में उसने कहा कि मैं आपके सिंहासन पर बैठूँगा। राजा ने समझ लिया कि इस ईर्ष्या के कारण यह अवश्य मर जायेगा, और अन्त में हुआ भी यही वह ईर्ष्या के कारण कुढ़-कुढ़ कर मर गया!
ईर्ष्यालु मनुष्य सदा दूसरों की प्रतिष्ठा या वैभव आदि को नष्ट करने में लगा रहता है। वह दूसरों की बातचीत का गलत अर्थ निकाला करता है और दूसरे के कार्यों का अभिप्राय उसकी समझ में बुरा और दुष्ट होता है। वह दूसरों का अपकार करने का अवसर ढूंढ़ा करता है। ऐसा व्यक्ति कितना भयानक घातक और बुरा होता है बतलाने की आवश्यकता नहीं है। इससे सदा बचना चाहिये। हाँ, ईर्ष्या का एक सात्विक रूप भी होता है उसे स्पर्द्धा कहते हैं और जो बहुत ही श्रेष्ठ और लाभदायक होती है। अपने गुणों के साथ अपने से श्रेष्ठ किसी गुणी के गुणों का मिलान करने और अपने आपको उसके समान गुणी बनाने की इच्छा का नाम स्पर्द्धा है।
ईर्ष्या की भाँति इसमें दूसरों के गुणों या वैभव आदि के ह्रास का दुष्टभाव, मन पर नहीं पड़ता, बल्कि साधु उपायों से उनके समकक्ष बनने की सात्विक और प्रशंसनीय कामना होती है। इससे मनुष्य की आत्मा अविकारमय होकर उन्नत होती है। उसके गुणी ओर यशस्वी होने में उत्तेजना मिलती है। ऐसे मनुष्यों का लक्ष्य सदा महान पुरुषों पर ही रहता है और स्वयं उसके महान बनने में अधिक विलम्ब नहीं लगता। उसके उद्देश्य साफ और महत्वपूर्ण होते हैं और संसार में उसके यश, वैभव और प्रतिष्ठा का अच्छा विस्तार होता है।
अखण्ड-ज्योति फरवरी 1956 पृष्ठ 11
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