कृपा कर क्रोध मत कीजिए (अन्तिम भाग)
समाज में दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं—एक वे जो क्षण भर भी अकेले नहीं रह सकते। यदि उन्हें अकेला रहना पड़ जाय तो वह पागल हो जावें, और दूसरे वे जो समाज में आने से डरते हैं। जब तक समाज में रहते हैं सतर्क रहते हैं, सदा उससे भागने की चेष्टा में रहते हैं और जब वे उससे अलग हो जाते हैं तो अपने−आपको सुखी पाते हैं। पहले प्रकार के व्यक्ति बहिर्मुखी कहलाते हैं और दूसरे प्रकार के अन्तर्मुखी। पहले प्रकार के लोग प्रसन्न चित्त दिखाई देते हैं। दूसरे प्रकार के लोग दुखी दिखाई देते हैं पर होते हैं शान्त। पहले प्रकार के लोगों का क्रोध अति प्रबल होता है। वे सभी से अपने प्रसन्न रखे जाने की आशा करते हैं। पर जब यह आशा पूरी नहीं होती तो उनका क्रोध अपरिमित हो जाता है। जब इस क्रोध का प्रदर्शन किसी दूसरे व्यक्ति पर नहीं होता, तो वह निराशा में परिणत हो जाता है।
इस तरह समाज में अधिक रहने कि इच्छा क्रोध और निराशा मूलक होती है। यह इच्छा मनुष्य को परावलंबी बनाती है तथा स्वावलंबन को कम करती है। ऐसी ही अवस्था में क्रोध हमें अपने आवेश में उड़ा लेता है। जिस प्रक्रिया से हम स्वावलम्बी बनते हैं उसी से हम क्रोध पर विजय पाते हैं। अंतर्मुखी होना स्वार्थी बनना नहीं है। जो दूसरों की सेवा से बचना चाहते हैं, वे वास्तविक अन्तर्मुखी नहीं हैं वे स्वार्थी हैं। अन्तर्मुखी दूसरों की सेवा करने में सब से आगे और दूसरों से सेवा ग्रहण करने में सब से पीछे रहता है।
प्रत्येक भाव के संस्कार हमारे अदृश्य मन में रहते हैं और इन संस्कारों के अनुसार हमारा आचरण बनता जाता है। जो व्यक्ति अपने मन के कुसंस्कारों को तुरंत मिटा देता है वह बड़ा बुद्धिमान है। क्रोध के संस्कार प्रेम से मिटते हैं। जिसे व्यक्ति के प्रति क्रोध कि या जाय उसके प्रति शीघ्रातिशीघ्र प्रेम प्रदर्शित करना चाहिए। कभी भी अपनी भूल को स्वीकार करना बुरा नहीं है। भूल स्वीकार करने से मन बलवान होता है तथा उसकी भूल करने की प्रवृत्ति जाती रहती है। यहाँ यह सोचना उचित नहीं कि क्रोध जिस व्यक्ति पर किया गया वह तुच्छ है अथवा उससे हमारा कोई प्रयोजन आगे न होगा। हमें दूसरों से कुछ प्रयोजन भले ही न हो अपने आप से तो अवश्य प्रयोजन है।
दूसरों के प्रति क्रोध करके हम अपने आपके प्रति अन्याय करते हैं इस अन्याय का प्रतिकार हमें तुरंत करना चाहिए। यदि ऐसा न किया जाय तो अन्याय की प्रवृत्ति प्रतिक्षण बढ़ती जाती है जिसका आगे चलकर भयंकर परिणाम होता है। अन्याय का प्रायश्चित पश्चात्ताप में नहीं है, न्याय में है। दूसरों के प्रति किए अनर्थ का पाप उनकी सेवा करने से दूर होता है। क्रोध का प्रतिकार प्रेम है न कि आत्मग्लानि, वह उसका स्वाभाविक परिणाम है। प्रेम, क्रोध और उसके सभी परिणामों को नष्ट करता है।
अखण्ड ज्योति, अप्रैल 1955 पृष्ठ 7
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