शक्ति संचय के पथ पर (भाग 2)
आज साम्प्रदायिक दंगों का वातावरण गरम है। जगह-जगह से साम्प्रदायिक दंगों के दिल दहला देने वाले समाचार प्राप्त होते रहते हैं। जिनसे प्रतीत होता है कि थोड़े से गुंडे उबल पड़ते हैं और हजारों नर नारियों को गाजर मूली की तरह काट कर रख देते हैं। अपार धन जन की हानि कर देना उनके बायें हाथ का खेल है। हम अनाथ बालकों की तरह रोते चिल्लाते और इधर-उधर भागते हैं अखबारों में लेख छापते हैं प्रस्ताव पास करते हैं, और अन्त में माथा पीट कर चुप हो बैठते हैं। गुण्डों का हौसला बढ़ाते हैं, वे एक के बाद दूसरा आक्रमण अधिक जोर से करते हैं और अधिक उत्पात मचाते हैं। हर उत्पात के साथ उनकी पशुवृत्ति तृप्त होती है और लूट का माल हाथ लगता है। इस घटनाक्रम की बार-बार पुनरावृत्ति होती रहती है।
इस दुखद स्थिति पर गंभीरता पूर्वक विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि हम या तो अशक्त हो गये हैं या हमने अपने को इस रूप में रखा है कि दूसरों द्वारा अशक्त समझे जाने लगे हैं। जरूरत से ज्यादा जो सीधे होते हैं वे बकरी की भाँति सताये जाते हैं। इसी कारण हिन्दू जाति को अनेकों प्रकार के संकटों का आये दिन सामना करना पड़ता है। हिन्दू धर्म, दया, शान्ति, क्षमा और सहिष्णुता का धर्म है। हमारी धार्मिक शिक्षाएं शान्ति का उपदेश देती हैं। यह शिक्षा बहुत ही उच्च एवं महान हैं। यह जितनी उच्च हैं, उतने ही उच्चकोटि के व्यक्तियों द्वारा प्रयोग में लाये जाने योग्य हैं।
जिस समय आर्य जाति सब प्रकार उन्नत अवस्था में थी चक्रवर्ती साम्राज्य उसके हाथ में था उस समय वह इन शिक्षाओं को चरितार्थ करने की स्थिति में थी, जिसमें बल है, जो दंड देने की योग्यता से सम्पन्न है उसी वीर को क्षमा शोभा देती है। पैर मैं चींटी काट ले तो मनुष्य चाहे तो उसे क्षणभर में मसल कर रख दे सकता है, ऐसी स्थिति में यदि वह उस चींटी के प्रति क्रोध न लावे और दया पूर्वक उसे क्षमा कर दे तो यह क्षमा उसके लिए शोभनीय है, प्रशंसा के योग्य है। परन्तु यदि कोई भयंकर भेड़िया आक्रमण कर और नृशंसता पूर्वक अपने बालकों को खाने लगे तो उसका प्रतिरोध न करना ‘क्षमा’ नहीं कही जा सकती, यह कायरता या अशक्यता ही ठहरेगी।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति 1946 नवम्बर पृष्ठ 3
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