आश्विन नवरात्रि:- शक्ति आराधना की है यह वेला
नवरात्रि शक्ति साधना का पर्व है। वैसे तो माता का प्रेम अपनी संतान पर सदा ही बरसता रहता है, पर कभी-कभी यह प्रेम छलक पड़ता है, तब वह अपनी संतान को सीने से लगाकर अपने प्यार का अहसास कराती है। संरक्षण का आश्वासन देती है। नवरात्रि की समयावधि भी आद्यशक्ति की स्नेहाभिव्यक्ति का ऐसा ही विशिष्ट काल है। यही शक्ति विश्व के कण-कण में विद्यमान है। इसी तथ्य को इंगित करते हुए कहा गया है-
तेजोयस्य विराजते स बलवान स्थूले बुकः प्रत्ययः। - देवी भागवत्
अर्थात्- शक्ति व तेज से प्रत्येक स्थूल पदार्थ में विद्यमान अतुलित बलशाली परमेश्वरी हमारी रक्षा और विकास करे।
वर्षा अपने साथ-साथ हरियाली की छटा लेकर आता है। ग्रीष्म की तपती दोपहरी में वृक्षों की छाया मन को कितना सुकून पहुँचाती है। पर कितने लोग वृक्षों की हरियाली को बनाये रखने में योगदान देते हैं। मनुष्य की दुर्बुद्धि तो क्षणिक लाभ के लिए छाया देने वाली वृक्ष को भी जड़ से काटने पर जुटी हुई है। यही व्यवहार हम उस आद्यशक्ति जगन्माता के साथ कर रहे हैं। परिणाम में हमें उनके प्यार-दुलार के बदले उनका प्रलयंकारी विध्वंस देखने को मिल रहा है। जब पुत्र बार-बार समझाने पर भी नहीं मानता तो माता को अपना रौद्र रूप दिखाने के लिए विवश होना ही पड़ता है। आद्यशक्ति जगन्माता भी इन दिनों हमें बार-बार चेतावनी दे रही हैं कि अब आत्मसुधार एवं सत्कर्म के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है।
उस परम शक्ति की आशा एवं अपेक्षा के अनुरूप स्वयं को गढ़े बिना हमारा त्राण संभव नहीं है। यह पृथ्वी सदाचार पर ही टिकी हुई है। न्याय को अनदेखा नहीं किया जा सकता। सारा विश्व गणित के समीकरण जैसा है, इसे चाहे जैसा उलटो-पलटो, वह अपना संतुलन बनाए रखता है।
मनुष्य पर दैवी और आसुरी दोनों ही चेतनाओं का प्रभाव है, वह जिस ओर उन्मुख होगा वैसा ही उसका स्वरूप बनता जाएगा। जड़ता एवं माया में लिप्त होते चलने पर वह अधोगति का अधिकारी होता है और पाप, पतन और नर्क की दुर्गति में गिर जाता है। परन्तु यदि वह अपनी मूल प्रकृति सदाचार का निर्वाह करे तो बंधन से मुक्ति निश्चित है। फिर उसे पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती। आवश्यकता अपना सही स्वरूप जानने भर की है।
इसके लिए प्रयास करने का सबसे उपयुक्त समय यही है। शास्त्रकारों से लेकर ऋषि-मनीषियों सभी ने एकमत होकर शारदीय नवरात्रि की महिमा का गुणगान किया है। सामान्यतः गायत्री परिवार से जुड़ा प्रत्येक साधक इस समयावधि में गायत्री महामंत्र के 24 हजार का लघु अनुष्ठान अवश्य ही करता है। अनुष्ठान की विधि-व्यवस्था से भी परिजन अपरिचित नहीं हैं। वैसे इसे गायत्री महाविज्ञान के प्रथम भाग से पढ़कर भी जाना जा सकता है। जप के लिए गायत्री महामंत्र से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। इसे गुरुमंत्र भी कहा गया है। यह महामंत्र बाह्य परिस्थितियों को अनुकूल बनाने के साथ-साथ अन्तः चेतना के परिष्कार के लिए भी सर्वश्रेष्ठ है। वेदों में सन्निहित ज्ञान-विज्ञान का सारा वैभव बीज रूप में इन थोड़े से अक्षरों में विद्यमान है। साधना का परिणाम सिद्धि है। यह सिद्धियाँ भौतिक प्रतिभा और आत्मिक दिव्यता के रूप में जिन साधना आधारों के सहारे विकसित होती है, उनमें गायत्री महामंत्र के जप को प्रथम स्थान दिया गया है।
इस बार हमारी साधना बाह्य जड़ता को दूर करने तक ही सीमित न हो। हम अपनी आँतरिक जड़ता को मिटाने का प्रयास करें। व्यर्थ के ईर्ष्या, द्वेष, प्रपंच में निमग्न मन की गतिविधियों को ‘स्व’ की ओर उन्मुख करें। क्योंकि जो जड़ पदार्थों से अधिक प्रेम करेगा, उसे उनका स्वामित्व, संग्रह, उपभोग भी उतना ही उच्चतर लगेगा। मोह और अहंकार के पाश में वे उतनी ही दृढ़ता से बंधेंगे। निर्जीव जड़ पदार्थों से जड़ता ही बढ़ेगी।
नवरात्रि के पावन पर्व पर देवता अनुदान-वरदान देने के लिए स्वयं लालायित रहते हैं। ऐसे दुर्लभ समय का उपयोग हम जड़ता में अनुरक्त होकर न बिताएँ, चेतना के करीब जाएँ। ईश्वर चेतन है इसीलिए उसका अंश जीव भी चैतन्य स्वरूप है। साथ ही उसमें वे सब विशेषताएँ मौजूद हैं, जो उसके मूल उद्गम परमात्मा में है। वह अपने उद्गम केन्द्र का सत्गुण अपने में गहराई तक धारण किए हुए है। जब भी वह चेतना अशक्त या अस्त-व्यस्त होती है तो शरीर का ढाँचा भी लड़खड़ाने लगता है। यदि सच्ची जिज्ञासा का सहारा लिया जाय, तो इस सत्य को अनुभव भी किया जा सकता है। दैवी अनुशासन के अनुरूप जो अपनी जीवनचर्या का निर्धारण करने में सक्षम होता है वही इस सत्य का साक्षात्कार कर पाता है। इस यात्रा में स्वयं से कठोर संघर्ष करना पड़ता है, पर आत्मबल सम्पन्न साधक लक्ष्य तक पहुँच ही जाते हैं।
मनुष्य का जीवन प्रतिक्षण गतिशील है, वह जो कुछ है वह नहीं रहता है। उसे जितना भी हो सके आगे बढ़ना है। अपनी वर्तमान परिधि से निकलकर अधिक विस्तृत सीमाओं में प्रवेश करना है। एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाना है। एक स्तर से चलकर दूसरे स्तर तक पहुँचना है। अपने चेतन होने का प्रमाण देना है। उसे इस महापुरुषार्थ को कर दिखाना होगा कि सुरदुर्लभ मानव जीवन तृष्णा एवं वासनाओं की वेदी पर चढ़ा देने के लिए नहीं है, वरन् उच्च आदर्शों की पवित्र वेदिका पर उत्सर्ग कर देने के लिए है। यदि संकल्पपूर्ण पुरुषार्थ एवं लगन हो तो कोई कारण नहीं कि हम अपनी वर्तमान स्थिति से आगे बढ़कर श्रेय प्राप्त न कर सकें।
नवरात्रि की बेला शक्ति आराधना की बेला है। माता के विशेष अनुदानों से लाभान्वित होने की बेला है। अपनी साधना तपस्या द्वारा हम स्वयं ही अपने बाह्य एवं अंतर को साफ-सुथरा कर लें। अन्यथा जगन्माता को यह कार्य बलपूर्वक करना पड़ेगा। हम चाहें या न चाहें परिवर्तन तो होना ही है, सृष्टि की संचालिनी शक्ति इस विश्व-वसुन्धरा के कल्याण के लिए कटिबद्ध है। आत्मसुधार कर हम भी उसके उद्देश्य में सहयोगी बनें, यही इस नवरात्रि का संदेश है।
अखण्ड ज्योति- सितम्बर 2003 पृष्ठ 28
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