मातृत्व का सम्यक् बोध ही नवरात्रि का मूल (भाग १)
नवरात्रि के नौ दिनों में सम्पूर्ण देश मातृमय हो रहा है। हम सभी देशवासियों का मन अपने मूल में उतरने की कोशिश में है। मनुष्य अपने जन्म और जीवन के आदि को यदि सही ढंग से पहचान सके, उससे जुड़ सके तो उसके सारे पाप-ताप अनायास ही शान्त हो जाते हैं। युगशक्ति जगन्माता गायत्री और उसके काली, दुर्गा, तारा आदि विविध रूपों की उपासना का रहस्य यही है। श्रद्धा, भक्ति एवं विश्वास रूपिणी माँ को सभी भूतों-प्राणियों, चर-अचर सभी में अनुभव कर मन अनायास पवित्रता से भर जाता है। माँ की उपासना से हमारी आत्मा को ढाँकने-ढाँपने वाला कुहासा कुछ-कुछ ही सही हटता है। नवरात्रि के पर्व की खासियत यही है कि समग्र भारतीय मन समेकित रूप में माँ के द्वार-दरबार पर आ खड़ा होता है।
सभी की कोशिश रहती है, अपने अनादि और आदि को देखने की, अपनी अनन्त जीवन यात्रा को आगे बढ़ाने की। जिसमें कुछ भी पुराना नहीं होता, नित्य नया-नया घटित होता रहता है। माँ की शक्ति के प्रभाव से बीज और वृक्ष का चक्र यूँ ही चलता रहता है। जीवन चक्र का कोई भी सत्य हो, सबमें बीज अवधारणा में है। बीज का अंकुरण, उसका पौधा बनना, तना बनना, फूल बनना, फल बनना और फिर बीज बन जाना। समूचा वृक्ष फिर से बीज में समा जाता है। अपनी नयी पूर्णता पाने के लिए। यही है चिर पुरातन, किन्तु नित्य नूतन सृष्टि का सनातन क्रम। इस सबका मूल, अनादि और आदि है ‘माँ’। मनुष्य के ही नहीं सृष्टि के अन्तर्बाह्य में मातृत्व का वास है।
माँ को केन्द्र में रखकर नवरात्रि के उत्सव का उल्लास छाता है। गली-गली में मेला जुड़ता है। इन मेलों का भी अपना एक खास कोमल मन होता है। मानव मन में समायी भाव संवेदना की अभिव्यक्ति होता है, मेला और मिलन। हमारे देश के मनीषियों ने चेताया है कि अलग-अलग आयु, लिंग और योग्यता के लोग मेले में मिलते हैं तो वे गिने जाने के लिए नहीं, अपनी किसी तोल, भाव के लिए नहीं, अलग से पहचान के लिए नहीं, वे भाव रूप में एक होने के लिए होते हैं। सबकी अलग-अलग मनौतियाँ होती हैं, सब अलग-अलग आए होते हैं, लेकिन माँ के द्वार पर सबका मिलन-मेला महान् माँगल्यमय होता है। विषम होते हुए भी सब एक क्षण के लिए सम हो जाते हैं।
अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 12
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