मातृत्व का सम्यक् बोध ही नवरात्रि का मूल (भाग 2)
जगन्माता की श्रद्धा में डूबे, अपने अनुष्ठान संकल्प-साधना में निमग्न सब ऐसे होते हैं, जैसे वे एक ही वृक्ष के पत्ते हों, फूल हों, फल हों, फल में निहित बीज हों। वे सिर्फ पहचान पाना चाहते हैं, अपने अस्तित्व के मूल की पहचान। अपनी सबकी माँ की पहचान, जो सब कुछ देती है, सतत् अविराम। जीवन भी उससे मिलता है, जीवन यापन के साधना की दात्री भी वही है। हम असंख्य इच्छाओं की पूर्ति की अछोर कल्प वल्ली हैं। लेकिन हमारी ये सभी इच्छाएँ माँ से जुड़कर ही पूर्ण होती है। जब हम अपने अन्तर का सब कुछ माँ के चरणों में न्यौछावर कर देते हैं और एक आन्तरिक शून्यता की अनुभूति पाते हैं, तो माँ बरबस ही इस शून्यता में पूर्णता भर देती है। क्योंकि शून्यता में ही पूर्णता भरती है। और जब अनेक एक साथ मिलकर मेला बनकर, माला की तरह गुँथकर, आन्तरिक शून्यता को पाते हैं, जो जीवन की परम सम्भावना प्रकट होती है।
जीवन की समस्त सम्भावनाओं की कोख क्या है? जिस कोख में ये सम्भावनाएँ, इस प्रकार के भाव और प्रतीति पलती हैं और जहाँ से वह प्रसवित होती है, वह है मनुष्य के लिए जननी की कोख और सृष्टि के लिए धरती की कोख। इसमें फर्क कोख का नहीं, क्रम का है, कर्म का है, ज्ञान का है। हमारी जननी का माँ होना ही हमारे लिए और सृष्टि के लिए विशिष्ट बात है। जन्म देना और जन्म लेना एक भौतिक एवं प्राकृतिक बात है। पर उसका अच्छा या बुरा होना, मंगलमय या अमंगलपूर्ण होना हमारी और प्रकृति की प्रवृत्ति, संकल्प और संस्कार पर निर्भर है। नारी जननी क्यों बनी? धरती पर अंकुर क्यों उगा? यदि वह ऊटपटांग ढंग से उगा होता तो जंगली होगा और यही किसी माली ने जतन से उगाया होगा तो उपवन और उद्यान की महक लिए होगा। यही क्रम है सृष्टि का, यही सार है मनुष्य के जन्मने और जीने का।यही है जननी के माँ होने का पुण्य प्रताप। अनादि को भी अपना आदि माँ से ही मिलता है।
नवरात्रि के नौ दिन इसी अनादि की आदि ‘माँ’ की पहचान करने के लिए है। अपवाद की बात छोड़ दें तो प्रायः किसी को यह सच्ची पहचान मिल नहीं पायी। हम माँ के द्वार दरबार में आते हैं, घर पर पूजा बेरी के ऊपर रखे माँ के चित्र के सामने माथा नवाते हैं, पर हृदय नहीं उड़ेलते। आन्तरिक शून्यता की अनुभूति नहीं कर पाते। और शून्यता के बिना माँ पूर्णता दे भी तो कैसे? हम दिखावे के लिए माँ की आरती उतारते हैं, पर दरअसल हम अपना आरत (दुःख) माँ के माथे मढ़ते हैं। भूखे रहकर मढ़ते हैं, कीर्तन करके मढ़ते हैं, जप करके मढ़ते हैं। उसकी पूजा करने का धोखा देकर मढ़ते हैं। जैसे माँ नहीं अपना दुःख, पीड़ा फेंकने का कोई कूड़ा-घर हो। भला यह कैसी पूजा, जिसमें श्रद्धा कम, लोभ और भय अधिक समाया रहता है। तनिक निहारें तो सही अपने अंतर्मन को कि नवरात्रि के ये नौ दिन हमारी श्रद्धा के हैं या स्वार्थ के? प्रार्थना के हैं अथवा फिर कामना या वासना के।
अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 12
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