मातृत्व का सम्यक् बोध ही नवरात्रि का मूल (भाग 3)
आरती का मतलब होता है श्रद्धास्पद का, पूज्य का, देवी माँ का, भगवान् का दुःख बाँटना। उसकी पीड़ा को अपने माथे पर लेना। उनका भार हल्का कर देना। अपने भिखारीपन को भुलाकर उनकी सेवा में अर्पित होना। उनके साथ अपनी एकात्मता की अनुभूति एवं प्रतीति पाना कि जैसे हम दुःखी-पीड़ित होते हैं, थकते हैं, वैसे ही माँ भी थकती होगी। उसे भूख सताती होगी। इसलिए उनका कष्ट अपने माथे पर लेने के लिए आरती उतारी जाती है। दीपों की लहराती जगमग ज्योति के बीच यह भाव व्यक्त किया जाता है कि ‘मैं प्रस्तुत हूँ माँ। जो तू चाहेगी, कहेगी, वही करूंगा।’ लेकिन हम हैं कि उनसे माँगते ही रहते हैं, उनको सताते ही चले जाते हैं।
माँ मुझे धन दो, यश दो, सन्तान दो, क्या नहीं माँगते। मजे की बात तो यह है कि हमारे पास माँ से माँगने के लिए समय है, उसके पास बैठने के लिए समय नहीं है। इसके लिए बहुत हुआ तो किसी पण्डित, पुजारी को नौकर रख लेंगे। ठीक किसी कुपुत्र या कुपुत्री की तरह, जो अपनी माँ की सेवा न करके, इसके लिए किसी नर्स को रख देती है। भला नर्स की नौकरी और सन्तान की सेवा का सुख या परिणाम क्या समान हो सकता है?
नवरात्रि के दिनों में देश तो मातृमय हो रहा है, हम मन्दिरों और घरों में जुट भी रहे हैं। लेकिन उस परमानन्द के आदिस्रोत से नहीं जुड़ पा रहे, जहाँ से जीवन मिलता और चलता है। कहाँ है मेलों में मिलन का मूलभाव? किधर है विलग के विलीन होने की स्थिति? हमारे अपने-अपने अहं की दीवारें तो यथावत है। माँ को वाणी से तो माँ कह रहे हैं, जोर-जोर से कह रहे हैं, लेकिन हृदय से उसे माँ मान नहीं पा रहे। लगता है कि हम सिर्फ प्रतीक की परिक्रमा, पूजा एवं कर्मकाण्ड तक ही ठहर गए हैं। हम प्रतीति, प्रीति, श्रद्धा, संवेदना, प्रेम एवं माँ के चरणों में अनुराग की एक सच्ची सन्तान की भाँति निष्कपट हो जी नहीं पा रहे। अगर ऐसा होता तो हमारी यह नवरात्रि लोक परम्परा एवं लोक व्यवहार की लीक न रहकर माँ की अलौकिक प्रभा से जगमग कर रही होती। हमारे जीवनों में माँ का दिव्य ज्योति अवतरण हो रहा होता।
कहीं ऐसा तो नहीं कि पिछले वर्ष की ही भाँति हम इस वर्ष की नवरात्रि में फिर से चूक रहे हैं। हम माँ के होकर भी माँ के बन नहीं पा रहे। हम केवल रोटी बनकर उसके सामने माथा नवाते हैं। सुख-साधन, दाम, दुकान की कामना का दम्भ लेकर माँ के पास आते हैं। और यह जबरदस्ती करते हैं कि हम जो चाहते हैं, वह तो तुम्हें देना ही पड़ेगा। हाँ हमें तुम्हारे दुःख से कोई सरोकार नहीं रहा। रोज-मर्रा की तरह नवरात्रि के दिनों में भी हम यह नहीं जान पा रहे कि माँ हमसे यह चाहती है कि हम सब उसकी सन्तानें मिल-जुलकर, एक मन और एक प्राण होकर रहें।
अखण्ड ज्योति- अप्रैल 2002 पृष्ठ 12
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