श्रेष्ठ जीवन
मित्रो ! भगवान के दो हाथ हैं। एक हाथ से वह पीडि़त होकर के माँगता है, पतित होकर के माँगता है। आप पतितों की सहायता कीजिए, पीडि़तों की सहायता कीजिए। पीडि़तों की और पतितों की आप सहायता न करें तब? तब बेटे ! मुश्किल है। तब आपको भगवान मिल पाएगा? भगवान का अनुग्रह आपको मिल जाएगा? मैं सोचता हूँ कि तब भगवान आपको नहीं मिलना चाहिए, क्योंकि आपके अंदर न करुणा है, न आपके भीतर सदाशयता है।
आपके भीतर तो केवल हवस काम करती है और इस हवस की आग में आप उन्हें भी जलाना चाहतें हैं, जिसमें आप जल गए; आपका परलोक जल गया; आप का ध्यान जल गया; आपका कुटुंब जल गया। अब कौन रह गया है? अब संतोषी माता और रह गई है और जो कोई भी रह गया है, उसे भी इसी नरक में जला डालिए अभागो! जिसमें कि आप जल रहे हैं। हवसों की आग, ख्वाहिशों की आग, वासनाओं की आग, तृष्णाओं की आग में संतोषी माता को भी भून डालिए।
अरे अभागो! अपने आप को भूनिए, परंतु उनको तो अपनी जगह पर रहने दीजिए। क्या कीजिए? उदात्त जीवन, श्रेष्ठ जीवन, परोपकारी जीवन, शानदार जीवन, दूसरों के दु:खों में सम्मिलित होने वाला जीवन, संसार में सत्प्रवृत्तियों का संवद्र्धन करने वाला जीवन जिएँ। यही अध्यात्म है। यदि आपको यह सब आ गया तो आप निहाल हो जाएँगे।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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