आनन्द की खोज
मित्रो! आनन्द की खोज में भटकता हुआ इन्सान, दरवाजे-दरवाजे पर टकराता फिरता है। बहुत-सा रुपया जमा करें, उत्तम स्वास्थ्य रहे, सुस्वाद भोजन करें, सुन्दर वस्त्र पहनें, बढिय़ा मकान और सवारियाँ हों, नौकर-चाकर हों, पुत्र, पुत्रियों, बंधुओं से घर भरा हो, उच्च अधिकार प्राप्त हो, समाज में प्रतिष्ठा हो, कीर्ति हो। ये चीजें आदमी प्राप्त करता है। जिन्हें ये चीजें उपलब्ध नहीं होती, वे प्राप्त करने की कोशिश करते है। जिनके पास हैं, वे उससे अधिक लेने का प्रयत्न करते हैं।
इन सब तस्वीरों में आनन्द खोज करते-करते चिरकाल बीत गया, पर राजहंस को ओस ही मिली। मोती! उसकी तो खोज ही नहीं की, मानसरोवर की ओर तो मुँह ही नहीं किया, लम्बी उड़ान भरने की तो हिम्मत ही नहीं बाँधी। मन ने कहा-जरा इसे और देख लूँ। आँखों से न दीख पडऩे वाले मानसरोवर में मोती मिल ही जाएँगे, इसकी क्या गारंटी है। फिर ओस चाटी और फडफ़ड़ाया, फिर यही पहिया चलता रहता है। आपने उनमें खोजा, कुछ क्षण पाया भी, परन्तु ओस की बूँदें ठहरीं, वे दूसरे ही क्षण जमीन पर गिर पड़ी और धूल में समा गईं।
यही नष्ट होने की आशंका अधिक संचय के लिए प्रेरित करती रहती है, फिर भी नाशवान चीजों का नाश होता ही है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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