शक्ति -उपासना से ही राष्ट्र समर्थ−सशक्त हो सकेगा
देवभूमि भारत में आदिशक्ति के प्रति आस्था अत्यंत प्राचीन है। भारत में पूर्वपाषाणकाल और नवपाषाणकाल में शक्ति −उपासना के संकेत मिलते हैं। इतिहासविदों के अनुसार नवपाषाणकाल में कृषि−क्राँति के साथ न केवल साँस्कृतिक प्रगति हुई, वरन् समाज में नारियों का स्थान और धर्म में शक्ति −सिद्धाँत का महत्त्व बढ़ा, परंतु काँस्य−काल में सभ्यता के उदय के साथ ही प्राचीन भारत में शक्ति −उपासना को, शक्ति वाद को व्यापक लोकप्रियता मिली। अन्य देशों में भी शक्ति वाद का प्रमाण मिलता है, जो भारत के शक्ति वाद से मिलता प्रतीत होता है। इतिहासकार आर. पी. चंद्रा की मान्यता है कि भारतीय शक्ति−उपासना एवं सामीजनों की अस्तार्त, मिस्रियों की आइसिस और फ्रीगियनों की साइबिल की परिकल्पना में गहरी समानता है।
प्राचीन भारत में शक्ति−उपासना काफी प्रचलित थी। अन्य देशों में भी इसके विभिन्न स्वरूप मिलते हैं। एशिया माइनर तथा भूमध्यसागरीय प्रदेशों में शक्ति की उपासना प्रायः एक पुरुष देवता के साथ की जाती थी। अफ्रीका में हव अपने पुत्र तनित के साथ, मिस्र में आइसिस के रूप में होसस के साथ, फिनीशिया में अस्थारोथ के रूप में तामुज के साथ, एशिया माइनर में साइबिल के रूप में जियस के साथ पूजी जाती थी। इस प्रकार आर्येतर जातियों का समाज मातृसत्तात्मक था, इसलिए उनके धर्म में माता की प्रधानता प्रतिष्ठित हुई।
मजूमदार, डैल्स एवं कैसल आदि इतिहासविद् काँस्यकालीन मातृपूजक ग्राम−संस्कृतियों के उदय को सैंधव−सभ्यता से पूर्व ले जाते हैं। इन्होंने अफगानिस्तान, बलूचिस्तान एवं सिंध आदि में मातृशक्ति की उपासना का प्रमाण ढूँढ़ निकाला है। प्राचीन भारत में मातृदेवी की उपासना के प्राचीनतम पुरातात्त्विक प्रमाण इन्हीं संस्कृतियों से मिले हैं। हड़प्पा में कुछ ऐसी मूर्तियाँ भी उपलब्ध हुई हैं, जिनके पैर नहीं हैं। ये मूर्तियाँ खिलौने नहीं हो सकतीं। सर आरियल स्टाइन ने इन मूर्तियों को बौद्ध तथा यूनानी मूर्तियों के आधार पर ‘पृथ्वीमाता’ की मूर्तियाँ बताया है। मैके के विचार से इन मूर्तियों की उपासना गृहदेवी के रूप में आलों में रखकर की जाती थी। पिगट के शब्दों में ये मूर्तियाँ मातृदेवी की हैं, जो भयानक तथा रौद्र रूप को प्रकट करती हैं। मार्शल ने भी इन्हें पृथ्वीमाता की मूर्ति माना है। मानव पृथ्वी पर ही उत्पन्न होता है और मृत्यु के बाद इसी में समाहित हो जाता है। इस क्रिया ने मनुष्य का ध्यान प्राचीनकाल में ही आकर्षित किया था। इसी कारण प्राक् ऐतिहासिक काल में पृथ्वी की देवी के रूप में उपासना प्रारंभ हुई। इसका प्रमाण मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की मूर्तियों से मिलता है।
शक्ति −उपासना की यह प्रवहमान कालसरिता सैंधव−सभ्यता के पश्चात भी प्रवाहित हुई और वैदिककाल में तो अपने पूरे उफान में बहने लगी। ऋग्वेद में उषा और अदिति देवियों को महत्त्वपूर्ण स्थान मिले हैं। वेदों में बहुवर्णित देवी उषा हैं। ऋग्वेद में उषा के लिए 20 सूक्त मिलते हैं और उनके नाम का 300 बार से अधिक उल्लेख हुआ है। यह ऋग्वैदिक ऋषियों की सर्वाधिक मनोरम कल्पना है। ऋग्वेद की एक और महत्त्वपूर्ण देवी अदिति हैं। ऋग्वेद में लगभग 80 बार इनका उल्लेख मिलता है। इनके अलावा सरस्वती, दिति, वाणी, सत्रि, पृथ्वी, पुरंधि, पृश्नि, सरण्यू, घिषणा, इग, वृहद्दिवा, राका, सिनीवाली, अरण्यानी, श्रद्धा, अनुमति, अरमति, असनीति, निऋति, श्री, आपः, सिंधू, इंद्राणि, वरुणानी, रुद्राणी, आग्नेयी, सूर्या, रोदसी, शची, सीता, दक्षिणा, मही, भारती, उर्वशी, उर्वरा आदि मातृशक्तियों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
उत्तर वैदिककाल में मातृशक्तियों का महत्त्व पहले से बढ़ा हुआ प्राप्त होता है। इस काल में मातृदेवी का पद स्वतंत्र और विशिष्ट होने लगा। सैंधव धर्म में मातृदेवी का पद संभवतः शिव के बराबर था, परंतु इस काल में उसकी उपासना शिव−पत्नी के रूप में नहीं, बल्कि स्वतंत्र रूप से होने लगी। यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में कुछ इसी प्रकार का संकेत मिलता है। उपनिषदों में शक्ति तत्त्व के दार्शनिक पक्ष का विकास मिलता है। सर्वप्रथम बृहदारण्यक उपनिषद् में शक्ति तत्त्व का द्वैतभाव प्रकाश में आया। अद्वय के अंतर्गत छिपे द्वैतभाव की यह कल्पना शक्ति −तंत्रों में विकसित रूप से उपलब्ध होती है। परवर्तीकाल में शक्त तथा वैष्णव, दोनों ही संप्रदायों ने इस श्रुतिवचन को अंगीकार−स्वीकार किया। श्वेताश्वेतर उपनिषद् में इसी विचार का साँख्यवादी रूप शक्ति −उपासना की महत्ता तथा इसके दार्शनिक स्वरूप की महत्ता के रूप में मिलता है।
शक्ति −उपासना के उदय के इतिहास में सूत्रग्रंथों का महत्त्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि शाक्त मत एक स्वतंत्र मत के रूप में इन ग्रंथों के युग में उदित हुआ है। सूत्र−साहित्य में अनेक प्राचीन तथा नवीन देवियों एवं उनकी उपासना का वर्णन हुआ है। सूत्र−साहित्य में सरस्वती का जिक्र है। अंबिका की भी देवी के रूप में विवेचना हुई है। शाँख्यायन गृह्यसूत्र में श्री एवं भद्रकाली का विश्वदेव संबंधी आहुति के प्रसंग में उल्लेख है।
रामायणकाल में शक्ति −उपासना का आविर्भाव भक्ति वाद के साथ−साथ हुआ। उत्तरकाँड में इसका आख्यान मिलता है। कमलासीन देवी के रूप में लक्ष्मी की कल्पना की गई है। रामायण में सिम्हिका देवी का भी उल्लेख मिलता है। इसके एक स्थान पर सीता का चित्रण ‘कालरात्रि’ के रूप में किया गया है। रामायण के समान महाभारत में भी शक्ति −उपासना का घनिष्ठ संबंध शिवोपासना के साथ दिखाई देता है। शिव की अवधारणा के साथ महाभारत में देवी की अवधारणा जुड़ी थी। इसमें शक्ति −उपासना से संबंधित अनेक कथाएँ मिलती हैं और कुछ शाक्त कथाओं का पूर्ण रूप तथा उनके भिन्न−भिन्न संस्करण मिलते हैं, परंतु महाभारतकाल तक शक्ति −उपासना शैव धर्म का एक अंग बन गई थी। एक स्थान पर शिव की सहचरी के रूप में उसको स्पष्ट रूप से शिव की शक्ति कहा गया है। इससे सिद्ध होता है कि इस समय तक उसका शिव की शक्ति अथवा माया माना जाने लगा था, जिसका उपनिषदों में उल्लेख किया गया है। महाभारत के भीष्मपर्व के प्रारंभ में दुर्गा पूजा का वर्णन है। यहाँ पर दुर्गा को सिंहों की सेनानेत्री, कालशक्ति , कपालधारिणी, कौमारी, काली, कपालिनी, कपिला, कृष्णपिंगला, भद्रकाली, महाकाली, चंडी, तारिणी, सौम्या तथा सुँदर रूप वाली, कात्यायनी, कराली, विजया, जया आदि कहा गया है।
महाभारत के शल्यपर्व में मातृकाओं का वर्णन है। इनको शत्रुओं का संहार करने वाली और कुमार कार्तिकेय की अनुचरी बताया गया है। कहा गया है कि इन्होंने तीनों लोकों को व्याप्त कर रखा है। इसके वनपर्व में देवी तीर्थों का उल्लेख किया गया है। इनमें कामाख्या, श्री पर्वत, भीमा देवी का स्थान, कालिका संगम, गौरीशिखर, धूमावती देवी का स्थान, श्री तीर्थ, देवी तीर्थ और मातृ तीर्थ उल्लेखनीय हैं।
शक्ति −उपासना से संबंधित चक्र अथवा मंडलाकार चक्रिकाएँ मथुरा, कौशाँबी, राजघाट, बसाढ़, पटना तथा तक्षशिला आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुई हैं। मौर्यकाल में शक्ति −उपासना का प्रमाण मात्देवी की मूर्तियों से मिलता है। मौर्यकालीन मातृदेवी की मृण्मूर्तियाँ प्रागैतिहासिक मूर्तियों की अपेक्षा अधिक विकसित हैं। मौर्यकालीन मौजूदा नमूनों में दीदारगंज की यक्षिणी सुँदरतम की यक्षिणी सुँदरतम कही जा सकती है। कौशाँबी की शुँगकालीन मृण्मृर्तियों में जो कला सौष्ठव है, वह दर्शनीय है। इन मूर्तियों से प्रमाणित होता है कि मौर्य एवं शुँगकाल में शक्ति −उपासना प्रचलित थी।
कुषाण−काल में शक्ति वाद पर प्रकाश डालने वाली साहित्यिक कृतियों में सर्वप्रथम अश्वघोष के ‘बुद्धचरित’ नामक काव्य में शिव तथा पार्वती का कई बार उल्लेख हुआ है। यहाँ पर पार्वती को स्कंद की माता कहा गया है। उनकी दूसरी कृति ‘सौदरानंद’ में अंबिका शब्द आया है। कुषाणकालीन सिक्कों से शक्ति −उपासना संबंधी अनेक सूचनाएँ मिलती हैं। इस काल में शक्ति −उपासना में नवीन आयामों की प्रतिष्ठा हुई।
गुप्तकालीन साहित्य में शक्ति वाद की लोकप्रियता प्रसिद्ध है। कालिदास की कृतियों में इसका उल्लेख मिलता है। देवी के लोक−प्रचलित रूप का चित्र ‘कुमारसंभव’ और ‘मेघदूत’ नामक काव्यों में मिलता है। कनिंघम के अनुसार गुप्तकाल में सात मातृकाओं की मूर्तियाँ भी मिलती हैं। गुप्तोत्तरकाल में शक्ति −उपासना का स्वरूप सारभाव से पौराणिक ही रहा। गुप्तोत्तरयुगीन मंदिर में भुवनेश्वर 05 स्थित बैताल देउल का मंदिर उल्लेखनीय है। इस मंदिर में स्थित चतुर्भुजी पार्वती, अष्टभुजी महिषमर्दिनी, अर्द्धनारीश्वर तथा अप्सराओं आदि की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। खजुराहो में शाक्त संप्रदाय से संबंधित चौंसठ योगिनी मंदिर विशेष महत्त्वपूर्ण है। इस काल में अधिकतर शाक्त मतावलंबी दक्षिणमार्गी हो गए।
साहित्यिक दृष्टि से भारत में महाकाव्यों के उपराँत उन पुराणों का युग आता है, जिनकी रचना स्थूलतः गुप्तकाल एवं गुप्तोत्तरकाल की शताब्दियों में हुई। इनमें शक्ति −उपासना की विभिन्न प्रकृतियों का अधिक विकसित रूप मिलता है। मातृदेवी को लगभग सभी पुराणों में शिव की शक्ति माना गया है। सौर पुराण में देवी−तत्त्व का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह शिव की ज्ञानमयी शक्ति है, जिसके द्वारा शिव सृष्टि का निर्माण और संहार करते हैं। शक्ति त्रिगुणात्मिका है। एक अन्य स्थान पर उसे परा अथवा परमशक्ति कहा गया है, जो सर्वत्र व्याप्त है। पुराणकाल में स्वतंत्र शाक्त मत की उपास्य देवी के रूप में शक्ति −उपासना की लोकप्रियता बढ़ी। स्वतंत्र मत के रूप में इस उपास्य देवी का उग्र रूप अधिक उभरा। अपने उग्र रूप में वे महिषासुर, शुँभ, निशुँभ, धूम्रलोचन, रक्त बीज, चंड, मुँड आदि का वध करती है। ब्रह्मवैवर्त्त पुराण के दुर्गाकाँड में देवी के दोनों सौम्य एवं उग्र रूपों का एकत्व स्पष्ट है। वाराह पुराण में उग्र रूप में देवी के सामान्य नाम चंडिका, काली तथा दुर्गा हैं।
शाक्त मत के विकास की दृष्टि से मार्कंडेय पुराण का देवी माहात्म्य विशेष रूपेण महत्त्वपूर्ण और उल्लेखनीय हैं। भंडारकर के अनुसार इस ग्रंथ को शाक्त तक में कुछ वैसा ही स्थान प्राप्त होता है, जैसा वैष्णव मत में श्रीमद्भगवद्गीता को। उसे ‘दुर्गा सप्तशती’ के नाम से जाना जाता है। इसमें वैदिक तथा लौकिक नामों और विशेषणों के द्वारा शक्ति का वर्णन किया गया है। स्वाहा, स्वधा, षट्कार, स्वर, अक्षर, प्रणव की तीन मात्राएँ, चौथी अर्द्धमात्रा, संध्या, सावित्री ये सब देवी के रूप में कहे गए हैं। वही जगती को रचती, पालन करती और संहार करती हैं। वे जगत की उत्पत्ति के समय सृष्टिरूपा, पालनकाल में स्थिति रूपा तथा कल्पाँत के समय संहाररूपा हैं। महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा और महासुरी उसी महादेवी की संज्ञाएँ हैं। वहीं सौंदर्य की अधिष्ठात्री हैं। पर और अपर से परे हैं और सत्−असत् से पूर्ण हैं।
इन्हीं कारणों से धार्मिक व्रतोत्सवों में भी दुर्गा पूजा, गायत्री, उपासना की नवरात्रि, मनसा पूजा, हरितालिका, काली पूजा, सरस्वती पूजा, दीपावली, षष्ठीपूजा, कुमारी पूजा, तुलसी पूजन, सावित्री पूजन, गौ, गंगा पूजन आदि का प्रचलन प्रारंभ हुआ, जिसमें शक्ति की उपासना की जाती है। हमारे पूर्वज महर्षियों द्वारा सौंपी गई यह ऐतिहासिक व साँस्कृतिक धरोहर आज भी समीचीन एवं महत्वपूर्ण है। शक्ति −उपासना को, इस बहुमूल्य साँस्कृतिक निधि को अपनाकर ही देश समर्थ, सशक्त व शक्ति शाली हो सकता है। आदिशक्ति के प्रति जन−जन के मन में जाग्रत आस्था ही हमें हमारा पुरातन वैभव लौटा सकती है। प्रस्तुत नवरात्रि (चैत्र) पर्व पर इन्हीं संकल्पों के साथ शक्ति की आराधना करें।
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