सुखद और सरल सत्य ही है
नि:संदेह सत्य का मार्ग उतना कठिन नहीं है। जितना दीखता है। जो वस्तु व्यवहार में नहीं आती, जिससे हम दूर रहते हैं, वह अजनबी, विचित्र तथा कष्टïसाध्य लगती है, पर जब वह समीप आती है, तो वह स्वाभाविक एवं सरल बन जाती है। चूँकि हमारे जीवन में झूठ बोलने की आदत ने गहराई तक अपनी जड़ जमा ली है। बात-बात में झूठ बोलते हैं। बच्चों की हँसी-जिन्दगी में, शेखी बघारने के लिए, लोगों को आश्चर्य में डालने के लिए अक्सर अतिरंजित बात कही जाती है। इनसे कुछ विशेष लाभ होता हो, या कोई महत्त्वपूर्ण स्वार्थ सधता हो, सो बात भी नहीं है, पर यह सब आदत में सम्मिलित हो गया है, इसलिए अनजाने ही हमारे मुँह से झूठ निकलता रहता है।
वेदों में स्थान-स्थान पर सत्य की महत्ता को समझाया गया है और सत्यवादी तथा सत्यनिष्ठï बनने के लिए प्रेरणा दी गयी है। सत्य का मार्ग चलने में सरल है। यह मार्ग संसार सागर से तरने के लिए बनाया गया है। यही मार्ग द्युलोक तक गया है।
स्वार्थ के लिए, आर्थिक लाभ के लिए, व्यापार में झूठ बोलना तो आज उचित ही नहीं, एक आवश्यक बात भी समझी जाने लगी है। ग्राहक को भाव बताने में अक्सर दुकानदार झूठ बोलते हैं। घटिया को बढिय़ा बताते हैं, चीज के दोषों को छिपाते हैं और गुणों को अतिरंजित करके बताते हैं, जिनसे भोला ग्राहक धोखे में आकर सस्ती और घटिया चीज को बढिय़ा समझ कर अधिक पैसे में खरीद ले। दुकानदार की इस आमप्रवृत्ति को, ग्राहक भी समझने लगे हैं और वे मन ही मन दुकानदार को झूठा, ठग तथा अविश्वस्त मानते हैं। उसकी बात पर जरा भी विश्वास नहीं करते। अपनी निज की समझ का उपयोग करते हैं, दुकानदार की सलाह को ठुकरा देते हैं, दस जगह घूमकर भाव-ताव मालूम करते हैं। चीजों का मुकाबला करते हैं, तब अंत में वस्तु को खरीदते हैं।
यह व्यापारी के लिए एक बड़ी लज्जा की बात है कि उसे आमतौर से झूठा और बेईमान समझा जाय, उसकी प्रत्येक बात को अविश्वास और संदेह की दृष्टि से देखा जाय। ऐसे लोग भले ही लाभ कमाते हैं, पर वस्तुत: मानव के मूल्यांकन में ये बहुत ही निर्धन, निम्र स्तर के तथा घटिया लोग हैं। जिसे अविश्वस्त समझा जाय, जिनकी नीयत पर संदेह किया जाय, जिसे ठग, धोखेबाज और बहकाने वाला माना जाय, वह नि:संदेह अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा खो चुका। इतनी कीमती वस्तु खोकर यदि किसी ने धन कमा भी लिया, तो इसमें न कोई गौरव की बात है और न प्रसन्नता की। अपना सामाजिक सम्मान खोकर कई लोग धन कमा लेते हैं। लुच्चे, लफंगे, जेबकट और लुटेरे भी अपनी उस्तादी से बहुत पैसे बनाते हैं। और मौज की छानते हैंं। क्या इनकी प्रशंसा की जायेगी? क्या इनका कोई सराहनीय सामाजिक स्तर गिना जायेगा? नहीं, विचारशील क्षेत्रों में इन्हें निम्रकोटि का इन्सानियत से गिरा हुआ व्यक्ति ही गिना जायेगा। ऐसी कमाई, जिससे मनुष्य घृणास्पद बनता हो, अपना आत्म-सम्मान खोता हो, धिक्कार के ही योग्य है। असत्यवादी चाहे वह अपनी चालाकी से किसी क्षेत्र में कितनी ही सफलता क्यों न प्राप्त कर सका हो, धिक्कार योग्य ही माना जायेगा।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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