नारद मोह
एक बार नारद को काम वासना पर विजय पाने का अहंकार हो गया था। उन्होंने भगवान् विष्णु के समक्ष भी अभिमान सहित प्रकट कर दिया। भगवान् ने सोचा कि भक्त के मन में मोह- अहंकार नहीं रहने देना चाहिए। उन्होंने अपनी माया का प्रपंच रचा। सौ योजन वाले अति सुरम्य नगर में शीलनिधि नामक राजा राज्य करता था। उसकी पुत्री परम सुन्दरी विश्व मोहिनी का स्वयम्बर हो रहा था। उसे देखकर नारद के मन में मोह वासना जागृत हो गयी। वे सोचने लगे कि नृपकन्या किसी विधि उनका वरण कर ले। भगवान को अपना हितैषी जानकर नारद ने प्रार्थना की। भगवान प्रकट हो गए और उनके हित साधन का आश्वासन देकर चले गए।
मोहवश नारद भगवान की गढ़ बात को समझ नहीं सके। वे आतुरतापूर्वक स्वयंवर भूमि में पहुँचे। नृप बाला ने नारद का बन्दर का सा मुँह देखकर उधर से बिछल ही मुँह फेर लिया। नारद बार- बार उचकते- मचकते रहे। विष्णु भगवान नर- वेष में आये। नृप सुता ने उनके गले में जयमाला डाल दी। वे उसे ब्याह कर चल दिये। अपनी इच्छा पूरी न होने पर नारदजी को गुस्सा आ गया और मार्ग में नृप- कन्या के साथ जाते हुए विष्णु भगवान को शाप दे डाला। भगवान ने मुस्करा कर अपनी माया समेट ली। अब वे अकेले खड़े थे। नारदजी की आँखें खुली की खुली रह गयीं। उन्होंने बार- बार क्षमायाचना की, कहा- भगवन्। मेरी कोई व्यक्तिगत इच्छा न रहे, आपकी इच्छा ही मेरी अभिलाषा हो, लोकं- मंगल की कामना ही हमारे मन में रहे।
नारद भगवान से निर्देश- सन्देश लेकर जन- जन तक उसे पहुँचाने के लिए उल्लास के साथ धरती पर आये एवं व्यक्ति के रूप में नहीं अपितु समष्टि में संव्याप्त चेतन प्रवाह के रूप में व्यापक बने। आज ध्वंस की तमिस्रा के मध्य जो नव सृजन का आलोक बिखरा दिखाई पड़ रहा है, वह इसी का प्रतिफल है।
प्रज्ञा पुराण भाग १
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