
आत्म निवेदन
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(ले. श्री जितेन्द्रकुमार)
(1)
क्या कहूँ, कहूँ क्या, क्यों उन्मन रहता हैं।
किन अनियन्त्रित लहरों पर मैं बहता हूँ।
कितनी इच्छा, कितनी अभिलाषा मन की-
फिर भी मैं जग से कुछ न कहा करता हूँ।
(3)
है शान्त, किन्तु विक्षुब्ध महा अन्तस्तल,
है भरी हुई मुझमें पीड़ा की हलचल,
जग से सुदूर तम-निज नैराश्य-निशा में-
मैं दीप शिखा-सा उइता सहसा जल-जल!
(5)
है टीस उठी, अब नीरव रह न सकूँगा,
पर यह भी सच है, सब कुछ कह न सकूँगा,
कलियों! तुम मुसकाओ न व्यंग से मुझ पर-
विद्रूप हँसी मैं सचमुच सह न सकूँगा।
(2)
औंसो में है मेरी आँखों का मोती,
सागर अन्तर में मेरी ज्वाला सोती,
सौरभर उर में मेरा उच्छ्वास निरन्तर-
मेरी करुणा बादल बादल में रोती।
(4)
में सिकता कण-पाया है मैंने तपना,
उल्लास किसी को, मुझको मिला तड़पना,
कर सकते मुझे न मुग्ध विश्व के वैभव-
मैं खोज रहा हूँ अपना खोया सपना।
(6)
एक पथिक हूँ-यों ही चला करूंगा,
मैं शिशिर-हिमानी पल-पल गला करूंगा
है सींक लगी प्राणों को अमर व्यथा की-
मैं युग-युगांतर तक यों ही जला करूंगा।