Magazine - Year 1941 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
देवी संपति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री धर्मपाल जी बरला)
यज्ञ (तन, मन, धन, लोकहित के लिये कार्य करना) तप (यज्ञ कर्म के लिये चित्त और इन्द्रियों को रोकना) दान, सत्संग, धार्मिक ग्रंथों का पठन पाठन, महात्माओं के दर्शन करने की इच्छा रखना, मन में सदैव शुभ और पवित्र विचारों को उठाते रहना, अपने कर्त्तव्य को सच्चाई और ईमानदारी से करना, अनाथ, गरीब, अपाहिजों पर दया करना और उनकी सहायता करना, विद्यादान अतिथि सेवा और मन का प्रसन्न होना आदि सभी उत्तम कर्म ईश्वर प्राप्ति के साधन हैं। गीता के 16वे अध्याय में भगवान ने इन्हीं गुणों को विस्तार के साथ देवी सम्पत्ति के नाम से कहा है और अर्जुन को बताया है कि दैवी सम्पत्ति से मोक्ष मिलता है।
भक्ति का अर्थ है सेवा। सर्वेश्वर सर्वाधार प्रभु सब प्रकार समर्थ और हमेशा तृप्त हैं, उन्हें किसी प्रकार की सेवा की आवश्यकता नहीं है। फिर उनकी सेवा का क्या मतलब और ढंग होना चाहिए? वास्तव में मन, वाणी और कर्म से प्राणी मात्र की सेवा और विशेष रूप से मनुष्य जाति की सेवा करना ही भगवान की भक्ति है। भक्ति ही मुक्ति का मार्ग है। भक्त की सभी बुरी आदतों में इतनी शीघ्रतापूर्वक परिवर्तन होना शुरू हो जाता है, जिसे देखकर सब आश्चर्यचकित हो जाते हैं। छल, कपट, स्वार्थ, ईर्ष्या आदि दोषों का नाश होकर उनके स्थान में सरलता, निष्कपटता, उदारता, प्रेम आदि शुभ गुण आने लगते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे अन्तःकरण पवित्र होने लगता है, जो एक मात्र प्रभु दर्शन का मन्दिर है।