Magazine - Year 1941 - Version 2
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भीरुता का अभिशाप
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(श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुँशी भू. पू. गृह बम्बई प्रान्त)
देश के समस्त सम्प्रदायों और हितों का एक महान राष्ट्रीय दृष्टि से उचित सामंजस्य किये बिना देश की राजनीतिक स्वतंत्रता का पूर्ण होना असम्भव है। किन्तु भारत को बाँटने की नीति का मैं कट्टर विरोधी हूँ, क्योंकि वह देश के अस्तित्व तथा भविष्य दोनों के लिये हानिकर है। मेरा यह भी विश्वास है कि भारत को बाँटने की माँग का मुख्य ध्येय है-इस देश के हिन्दुओं की स्थिति और प्रभाव को नष्ट करना। बाँटने वालों की अभिलाषा यही है कि भारतीय शासन में मुस्लिम बहुमत हो या कम से कम उनका स्थान बराबरी का हो और हिन्दू बहुमत एक अल्पमत में परिवर्तित हो जाय। और हिन्दू जब तक असंगठित रहेंगे, इस घातक अभिलाषा का डट कर सामना नहीं कर सकेंगे। यदि हिन्दू तथा ऐसे ही राष्ट्रवादी सिक्ख, ईसाई व मुसलमान जिनके प्रयत्नों से अखण्ड हिन्दुस्तान स्वाधीनता की और बढ़ने वाला है, देश को बाँटने वाली विषाक्त नीति से भयभीत हो जाएं तो इस पृथ्वी पर उनका जीवन रहने के योग्य न रह जायेगा।
हिन्दुओं को एक भयंकर भविष्य का सामना करना है। नई समस्याओं के पैदा होने से उन प्राचीन शक्तियों का जिन्होंने हमें एकता का पाठ पढ़ाया अब ह्रास हो चुका है। वर्णाश्रम धर्म जो हमारी सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ था और जो विभिन्न सामाजिक वर्षों के सहयोग के आधार पर बना था अब अपनी शक्ति खो चुका है। हमारा समाज तो अब एक दूसरे के प्रति अविश्वास करने वाले वर्गों का एक समूह बन गया है। हमारे समाज की एकता प्रान्तीयता तथा भाषा विभिन्नता के कारण खण्डित हो चुकी है। संस्कृत भाषा, पुराणों की परिपाटी तथा आर्यों की सभ्यता ने भारत को जो एकता प्रदान की थी उसे बाहरी राष्ट्रों ने आकर विच्छिन्न कर दिया। सहिष्णुता के नाम पर हमने अपनी सामाजिक व्यवस्था को निर्जीव कर दिया है। समाज के विभिन्न वर्ग अब उसके जीवन को सुदृढ़ नहीं बना सकते। अर्वाचीन परंपरागत रूढ़ियां जो हमें कठिन से कठिन समयों में बचाती रही हैं, अब अपनी शक्ति खो बैठी है। हम पश्चिम की नकल करते हैं। विदेशी सत्ता के आगे घुटने टेक देना ही अब हमने सीखा है। हम यह नहीं अनुभव करते कि यह हमारे लिये कितना घृणास्पद है। अपनी असहाय अवस्था में हम चिल्लाते हैं, औरों के आगे हाथ फैलाते हैं तथा अपने को दोष देते हैं, किन्तु यह नहीं जानते कि अपनी शक्ति का संचय कैसे करें। हमें आज संसार के इतिहास से सबसे भंयकर कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है।
एक और केवल एक नई शक्ति जिसका हमने अन्य सम्प्रदायों के सहयोग द्वारा उपार्जन किया था, वह थी राष्ट्रीयता की शक्ति। किन्तु अब यह चौमहानी पर खड़ी है। सदियों के प्रयत्नों को कुछ उन्मत्त राजनीति के रथ में धर्मान्धता का पहिया लगा कर भारत की इस एकता को नष्ट करना चाहते हैं। कोई भी देशप्रिय भारतीय चाहे वह हिन्दु हो या मुसलमान हो, सिक्ख हो या ईसाई, इसे शान्ति के साथ सहन नहीं कर सकता। अखण्ड हिन्दुस्तान एक वास्तविक सत्य था और है और इसको सदैव ऐसा रखने के लिये हम सबको अपनी संपूर्ण शक्ति लगा देनी चाहिये।
किन्तु भारत-विच्छेद के विरोध में सब से बड़ी रुकावट बाँटने वालों की दुर्नीति नहीं है, बल्कि हिन्दुओं की भीरुता है। हम हिन्दुओं का स्वभाव हो गया है कि हम दबकर चलना सीख गए हैं। हमारा साहस नष्ट हो चुका है। हम वास्तविकता की कठोरता से छुटकारा पाने के लिये शाब्दिक भ्रम पैदा करने लगते हैं। हमारा यह स्वभाव सा हो गया है कि जब तक हमें कोई काम मिलता रहे या रुपया पर सूद आता रहे, हम सब आत्मसम्मान पर लगने वाली ठोकरों को सहन करते रहते हैं।
मैं एक आधुनिक दृष्टान्त आपके सामने रखता हूँ। सर सिकन्दर ने अपने प्रयत्नों से केन्द्रीय सरकार में हिन्दू और मुसलिम के 36ः33 के अनुपात को 56ः44 में परिणत कर दिया। हिन्दू और अहिन्दू में तो यह अनुपात 50ः50 का है जब कि देश में हिन्दू 75 प्रतिशत है। हिन्दू अपने जनसंख्या के आधार पर स्थित नैसर्गिक अधिकारों को भूल कर इसी में प्रसन्न हैं कि वे एक दम भुलाये नहीं गये हैं। वास्तव में हिन्दुओं में सर सिकन्दर की तरह हिम्मत नहीं है, अन्यथा ये इस प्रकार से तिरस्कृत और उपेक्षित न होते।
यदि देश के बाँटने का भय दिखलाया जाता है, तो हम उस भय को भगाने से बचने के लिये बहाने निकालते हैं, हमें भय दिखलाया जाता है कि हम जुलूस निकालने का अधिकार छोड़ दें, बाजा बजाने का आनन्द छोड़ दें, संस्कृत शब्दों के प्रयोग को छोड़ दें, वन्देमातरम् का आनन्ददायक गायन बन्द कर दें और हिन्दी भाषा के प्रयोग के अपने जन्मसिद्ध अधिकार को त्याग दें। हम लोगों की यह कहने की आदत पड़ गई है कि “अरे भाई इसे जाने दो, अन्यथा और बड़ी आफत आयेगी” हमारी भीरुता को ढंकने के लिये कोई न कोई बहाना निकल ही आता है।
किसी ने एक समय कहा था कि हिन्दू एक मृतप्राय जाति है। जब तक हम अपनी भीरुता दूर नहीं करते हम मरे से भी गये बीते हैं। हम आत्माविहीन हैं। हम लोग जीवन को सुन्दर बनाने वाले सभी साधनों को त्यागने के लिये बाध्य किये जायेंगे, दबाये जायेंगे। राष्ट्रीयता जिसके आधार पर भारत अपना भविष्य बनाना चाहता है, तब तक उन्नति नहीं कर सकती जब तक कि हम अपनी भीरुता को न छोड़ेंगे, जब तक कि हम अपनी सभ्यता के प्रति सच्चे न रहेंगे और जब तक कि हम आने वाली सारी धमकियों का डट कर मुकाबला न करें हमारी एक स्वतंत्र भाषा है, हमारा एक धर्म है, एक सामाजिक व्यवस्था है और सब से ऊपर एक देश है। हम इसी आधार पर औरों से सहयोग कर सकते हैं कि जो हमारे गौरव की वस्तु है उसमें कोई धक्का न लगे, और भारत जो हमारी पवित्र भूमि है, एक सम्बद्ध और अविभाज्य देश बना रहे।
हमारा एक सच्चा हिन्दू होना राष्ट्रीयता के मार्ग में उसी प्रकार बाधक नहीं है, जैसा कि एक सच्चे मुसलमान का राष्ट्रीय होने में। हम हिन्दुस्तानी अहिन्दू जातियों के साथ रहना चाहते हैं और चाहते हैं सब के प्रयत्नों से राष्ट्र स्वतंत्रता। लेकिन हम अपनी जाति, अपने धर्म एवं अपनी सभ्यता को छोड़ने को तैयार नहीं। हम अपने देश को स्वतंत्र और शक्तिशाली भी बनाना चाहते हैं और चाहते हैं अपनी सभ्यता और संस्कृति का ऐसा फैलाव कि वह दुनिया को अपना सन्देश सुना सके।
यदि हिन्दुत्व एक खोज की वस्तु है तो हमें मुसलमान हो जाना चाहिये और यदि वास्तव में हिन्दुत्व का कोई अर्थ है और उसका कोई सन्देश है, तो हम यह कभी सहन नहीं कर सकते हैं कि दुनिया की कोई शक्ति उसे अखण्ड हिन्दुस्तान की पवित्र भूमि से उखाड़ फेंकने का प्रयत्न करे।