Magazine - Year 1941 - Version 2
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Language: HINDI
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दत्तात्रेय के 24 गुरु
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(गताँक से आगे)
ग्यारह गुरु बना लेने पर भी दत्तात्रेय को अपना ज्ञान अपूर्ण ही मालूम हुआ और वे अधिक ज्ञान की खोज में आगे को चल दिये। चलते-चलते एक सुन्दर बगीचा उन्हें मिला जिसमें तरह-तरह के पुष्प खिल रहे थे, अनेक पक्षी गुँजार कर रहे थे, पास ही सुन्दर जलाशय था। शीतल और सुगन्धित वायु से उपवन बड़ा ही रमणीक प्रतीत होता था। कुछ समय यहीं ठहर कर ज्ञान लाभ करने के लिये उसने डेरा डाल दिया और वहाँ की वस्तुओं को जिज्ञासु भाव से देखने लगे।
उसने देखा कि मधुमक्खी संचय का अत्यंत लालच करके फूलों से शहद इकट्ठा कर रही है। उसे न तो स्वयं खाती है और न किसी को देती है, वरन् जोड़ कर रखती जाती है। परिणाम यह होता है कि बहेलिये उस शहद को ले जाते हैं और मधुमक्खी के हाथ पछताना ही रह जाता है। दत्तात्रेय ने दूसरी तरफ आँख उठाई तो देखा कि सुगन्ध की वासना से कभी तृप्त न होने वाला भौंरा कमल पुष्प में ही कैदी हो जाता है और रात भर बन्धन की पीड़ा सहता रहता है। इसी प्रकार उन्होंने एक पतंग देखा जो दीपक की सुन्दरता देख कर ही तृप्त नहीं हो जाता, वरन् उसे अपने पास रखना चाहता है, उस पर अधिकार करना चाहता है। फल यह होता है कि दीपक का तो कुछ नहीं बिगड़ता, पतंग के ही पंख जल जाते हैं। उन्होंने एक चील को देखा जो अपने घोंसले में बहुत सा माँस जमा करती जाती थी, इसे देख कर बाज आदि अन्य शिकारी पक्षी उसके घोंसले पर टूट पड़े तो सारा संग्रह किया हुआ माँस उठा ले गये। ऋषि ने एक हिरन देखा जो शिकारियों की वीणा का गाना सुनकर मुग्ध हो रहा था। मोहित देखकर शिकारियों ने उसे पकड़ लिया और मार डाला। इसी तरह उन्होंने आटे के लोभ में मछली को जाल में फंसते और नकली हथिनी के साथ रमण करने की इच्छा करने वाले हाथी को गड्ढे में फंसकर पकड़े जाते देखा। इस सबको देखकर वे सोचने लगे इन्द्रियों की वासनाओं की गुलामी तथा काम, क्रोध, लोभ मोह के चंगुल में फंसना प्राणों के जीवनोद्देश्य को नष्ट कर देना है। यह शिक्षा उन्हें मधुमक्खी, भौंरे, पतंग, चील, हिरन, मछली और हाथी से प्राप्त हुई इसलिये इन्हें भी उन्होंने अपना गुरु बना लिया।
यहाँ से उठ कर ऋषि आगे चले और देखा कि एक भील परिवार जनशून्य जंगल में रहते हैं और वहाँ भी उसे अन्न-वस्त्र मिलता है। वे सोचने लगे मनुष्य ‘कल क्या खाएंगे इस चिन्ता में मर जाते हैं वे इस भील से सीख सकते हैं कि परमात्मा के भण्डार से हर किसी को नित्य समय भोजन पर भेजा जाता है। उसे भी उसने गुरु मान लिया। वन्य प्रदेश को पार करते हुए वे एक बड़े नगर में पहुँचे। नगर के बाहर एक बाण बनाने वाला रहता था, दूर-दूर तक उसके शस्त्रों की प्रशंसा थी। उसने सोचा कि इसके बारे में भले जानें कि किस प्रकार यह इतने उत्तम बाण बनाने में प्रसिद्ध हो गया है। वे उसके द्वार पर पहुँचे और देखा कि चारों ओर बड़ा कोलाहल हो रहा है, बाजे और बरातें सामने से निकल रहे हैं, पर वह अपने काम में दत्तचित्त है, किसी की ओर निगाह उठा कर भी नहीं देखता, इसी एक नम्रता के कारण वह इतने उत्तम हथियार बनाने में सफल होता है। उसकी एकाग्रता व शिक्षा लेते हुए उसने उसे भी गुरु भाव से प्रणाम किया।
शहर में घुसने पर उसने देखा कि एक वेश्या बार-बार दरवाजे पर आती है और लौट जाती है ।
बहुत रात व्यतीत होने पर भी उसे निद्रा नहीं आती। दत्तात्रेय ने उससे पूछा इतनी रात व्यतीत हो जाने पर भी तुम्हें निद्रा क्यों नहीं आती और किस लिए चिन्तित हो रही हो? वेश्या ने उत्तर दिया- महानुभाव किसी धनी मित्र के आने की आशा मुझे व्याकुल किये हुए है। परन्तु कोई आता नहीं। जब तक आशा लगाये बैठी रहती हूँ, तब तक नींद नहीं आती और जब परमात्मा का भार डाल कर निश्चिन्त हो जाती हूँ, तो नींद आ जाती है। दत्तात्रेय ने सोचा कि परमात्मा पर निर्भर न रहना ही दुख का कारण है। इस शिक्षा को लेकर उन्होंने वेश्या को गुरु बना लिया। आगे चले तो देखते हैं कि एक लड़की रात में घर का काम-काज कर रही है, उसके यहाँ कुछ अतिथि आये हुए हैं, वह संकोचवश अपने काम की खड़बड़ में अतिथियों की निद्रा भंग नहीं करना चाहती, काम करने से चूड़ियाँ तो बजती ही हैं, फिर वह सब चूड़ियों को उतार देती है और केवल एक-एक ही पहने रहती है। बस अब उनका बजना बन्द हो जाता है। ऋषि सोचते हैं कि बहुत इकट्ठा करने से वह बजता है, किन्तु एक की ही साधना करने से एक-एक चूड़ी रह जाने की तरह शोर मिट जाता है और शान्ति मिल जाती है, ऋषि उस लड़की को भी गुरु बना लेते हैं। आगे उसने एक बालक को देखा जिसमें साँसारिक माया का प्रवेश नहीं हुआ है। और उसका हृदय बिल्कुल पवित्र है। पवित्र हृदय वाला ही सच्चा योगी है, ऐसा समझते हुए उन्होंने उस बच्चे को भी गुरु बनाया।
इतने गुरु बनाते हुए अब वे समुद्र के किनारे पहुँचे और देखा कि उसमें हजारों नदियाँ आकर मिलती हैं और अपरिमित जल बादलों द्वारा चला जाता है। वह इस हानि-लाभ की तनिक भी परवाह नहीं करता और हर परिस्थिति में एक सा बना रहता है। उसने उसे भी गुरु बनाया। अन्त में उनकी दृष्टि एक मकड़ी पर गई जो अपने मुँह से तार निकालती थी, उस पर चढ़ती थी मनोरंजन करती थी और जब चाहती थी उन तारों को समेट कर पेट में रख लेती थी। इसे देखते ही उनकी आँखें खुल गईं और जिस ज्ञान का अभाव अपने में देख रहे थे वह पूरा हो गया। मकड़ी का कार्य उसने मनुष्य पर घटाया तो उसकी समझ में आया कि जीव सारे प्रपंच अपने अन्दर से ही निकालता है और उन्हीं में उलझा रहता है, किन्तु यदि वह सच्ची इच्छा करे तो इन सारे बखेड़ों को अपने अन्दर ही समेट कर रख सकता है और मुक्ति का अधिकार प्राप्त कर सकता है। जो कुछ भला-बुरा है वह अपने ही अन्दर है। हम खुद ही परिस्थितियों का निर्माण करते हैं किन्तु दूसरों पर अज्ञानवश उसका आरोपण करते रहते हैं। दत्तात्रेय को पूरा सन्तोष हो गया और उन्होंने मकड़ी को चौबीसवाँ गुरु बनाते हुए उसे नतमस्तक होकर प्रणाम किया और आश्रम को वापिस लौट गये।
लोग तलाश करते हैं कि हमें धुरंधर गुरु मिले जो चुटकियों में बेड़ा पार कर दें। परन्तु ऐसे प्रसंग बहुत ही कम आते हैं। कभी-कभी ऐसे उदाहरण देखे भी जाते हैं, तो उनका वास्तविक कारण यह होता है कि उस विषय में शिष्य के पास पर्याप्त संस्कार जमा होते हैं और वे संयोगवश एक ही झटके में खुल जाते हैं। साधारणतः हर व्यक्ति को किसी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये स्वयं ही प्रयत्न करना पड़ता है, गुरु चाहे कितने ही योग्य क्यों न हो, यदि शिष्य का मन दूषित है तो उसे रत्ती भर भी लाभ न मिलेगा। इसके अतिरिक्त यदि शिष्य के हृदय में श्रद्धा है तो उसके लिये मिट्टी के गुरु भी साक्षात सिद्ध रूप होंगे।