Magazine - Year 1943 - Version 2
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Language: HINDI
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दुःख की तात्विक खोज
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(ले.-विद्या भूषण पं. मोहन शर्मा, विशारद, पूर्व सम्पादक “मोहनी”)
हमारे आर्ष ग्रंथों में मानव जीवन का मुख्य ध्येय सुख शान्ति की प्राप्ति करना बताया है, किन्तु आज के युग में सैकड़ों हजारों में कुछ मनुष्य ही ऐसे निकलेंगे जिन्हें वास्तविक सुख शान्ति प्राप्त हुई हो। इसका मूल कारण यही जान पड़ता है कि सुख प्राप्त करने के सार भूत पदार्थ दुःख को, मानव ने ठीक ठीक नहीं जाना। यथार्थ में दुःख का तत्व ज्ञान ही सुख शाँति उपलब्ध करने की कुँजी है। सुख सूर्य के पुण्य प्रकाश का सेवन करने के पूर्व दुःख की अन्धकारमय वीथियों में निरालंब भटकना होता है, मनुष्य का विवेक और कर्म शक्ति तब कठिन परीक्षा के लिये कसौटी पर रख दिये जाते हैं। अतएव, कहना पड़ेगा कि दुःख यथार्थ रूप से पुरुषत्व विकासी है और इसका सेवन वीर वृत्ति पुरुष सिंह ही कर सकते हैं। दूसरी दृष्टि में कापुरुष और क्लीव हृदयों का दुःख एक चिकित्सा और लाइलाज मज़ है, क्योंकि वे अपनी दुर्बलताओं और आदतों की गुलामी के कारण वर्षों इस दलदल से निकल भागने में समर्थ नहीं होते। उनका स्वभाव दुःख का स्वभाव बन जाने के कारण वे सदैव दुःख ही दुःख चिल्लाया करते हैं। उनकी अपने आत्म बल के विकास में आसक्ति नहीं रहती। ऐसे ही आलस्य-जीवियों को दुःख की तात्विक खोज में नितान्त अनाड़ी और मूर्ख कह सकते हैं।
सुख की वास्तविक प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि दुख का बराबर पीछा किया जाए। जिस प्रकार गर्म जल में हाथ डालने के बाद ठण्डे और शीतल जल में हाथ डालने से अपूर्व विश्राम और आनन्द का अनुभव होता है अथवा जिस भाँति धूप से जलते हुए रेणु पथ में निरा वृत पाँवों से यात्रा करने के बाद वृक्ष की शीतल और घनीभूत छाया में आश्रय लेने से असाधारण सुख, शाँति प्राप्त होती है। उसी प्रकार दुःख की लम्बी दौड़ समाप्त होने पर सुख, मनुष्य के स्वागतार्थ सामने हाथ जोड़े रहता है। यदि भावना और मनोवृत्ति से मनुष्य अपने को दृढ़तर बना ले तो दुखमय प्रसंगों को कटुता भान तक नहीं हो सकता। कर्लाइल कहता है-सब तरह के दुःख के अनुभव से हम लोगों को पूरा होना है। जब तक दुःख नहीं जान पड़ता, मनुष्य अधूरा रहता है। ज्यों-2 विपत्ति पड़ती है त्यों-2 पूरा होता है।”
जिन देशों के मनुष्यों ने कठिन और असम्भव कार्यों की साधना के लिये दुःख में सहिष्णुता और संयम को नहीं खोया, उन्होंने अपने देश का मस्तक उठाने के साथ साथ समग्र पृथ्वी तक को गौरवान्वित किया है। दुःख की तपस्या किसी अवस्था विशेष के लिये ही प्रयोजनीय नहीं है अपितु आयु के हर भाग में दुःख हमें चुनौती देता हुआ आता है। उसे इसकी चिन्ता नहीं होती कि हमारी शक्तियाँ बराबर काम कर रही हैं या उनमें कोई घाटा भी आ गया है? प्रसिद्ध कवि इमर्सन का कथन है कि—”उच्च अवस्था में आचरण व स्वभाव की शुद्धि तथा उन्नति के लिये दुःख का होना आवश्यक है।” जगत् के बड़े-बड़े प्रसिद्ध पुरुष ऐसे हुए हैं, जिन्होंने पहिले अत्यन्त दुःख व कष्ट सहे और फिर जग द्विख्यात गुरु , महात्मा और सुप्रसिद्ध महापुरुष हुए। बिना दुःख के कोई उत्तम आदर्श आचरण का हो नहीं सकता, बल्कि, जगत् प्रसिद्ध (भगवान् रामचन्द्र, कृष्ण, बुद्ध, ईसा मसीह और गुरु नानक इत्यादि) अनेक महात्मागण, महात्मा ही तब बने, जब कि उन्होंने पहले आनन्दपूर्वक दुःख सहा। दुःख हम में दया, नम्रता, क्षमा , स्वार्थ त्याग व दानशीलता का भाव, आत्म विश्वास, आत्म सम्मान और आचरण बल उत्पन्न करता है। इसलिये दुःख की आगे चलकर भी आवश्यकता होती है।” सब लोग यही चाहते हैं कि दुःखों से छुटकारा मिले पर उनके वास्तविक महत्व और उपयोगिता पर किसी का ध्यान नहीं होता। कई तो दुःख की भट्टी में पड़कर कुन्दन बनकर निकलने के बजाय अपने मानस बल पर मलिनता का ऐसा सख्त परदा डाल देते हैं कि सुख के सुखद और अमूल्य क्षणों में भी उन्हें दुःख की मनहूस और सूनी घड़ियों का ही भान हुआ करता है। ऐसे भीरु और संशयालु मनुष्य अपने आपके शत्रु होने के साथ-साथ दूसरों पर भी अपने इस रोग की बुरी छाप डालते हैं।
दुःख की तीव्र अनुभूति मनुष्य को ईश्वर के सामीप्य में ला उपस्थित करती है। तब जीवन का अंधकार वृत्त मार्ग एकाएक प्रकाश से जगमगा उठता है। सारी कठिनाइयाँ विघ्न बाधाएँ तृण की भाँति वायु के प्रचण्ड प्रवाह में देखते-2 विलुप्त हो जाती हैं और सुख साम्राज्य हमारे द्वार को खटखटाने लगता है। अतः दुख की चरम उपलब्धि का ही दूसरा नाम सुख है। हम चाहते हैं कि सुख प्राप्त करें तो दुःखों से साक्षात्कार होने पर हमें उसका सुख से भी कहीं अधिक स्वागत करना चाहिये। दुःख को ईश्वर का स्मरण केन्द्रीय पदार्थ माना है। सुख और ऐश्वर्य में मनुष्य कृपालु जगदीश्वर के स्मरण और भजन से परां मुख होकर नाना विलास-वासनाओं में फँस जाता है। पर दुख में ऐसा नहीं होता। क्षण-2 मनुष्य भक्त भय हारी भगवान् को तन्मयता से पुकारता है। कवि ने इन घड़ियों की महत्ता आँकते हुए ठीक ही कहा है—
सुख के माथे सिल परै, नाम हृदय से जाय।
बलिहारी वा दुःख की, पल पल नाम रटाय॥