Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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संकीर्णता को त्याग दीजिए
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(प्रो. मोहनलाल वर्मा)
सब जातियों, सब धर्मों, तथा मतों से भी ऊँची एक भावभूमि है, एक ऐसा स्तर है, जहाँ आकर हम सब एक समान भूमि पर एक दूसरे के निकट आ जाते हैं, तमाम भेद भाव भूलकर एक हो जाते हैं और प्रत्येक व्यक्ति समान रूप से हमारे साथ उठने बैठने, खाने पीने, बातचीत करने का अधिकारी हो जाता है। यह मानवता की भूमि है।
हम सब मनुष्य हैं। मानव जाति के सदस्य हैं। एक पिता मनु की सन्तान हैं। हमारा मूल एक है। इस मनुष्यता के नाते हम सबको व्यर्थ के भेदभाव त्याग कर प्रेम से भ्रात्रभाव प्रसार करते हुए समभाव से रहने की प्रेरणा प्राप्त होती है। हमारी इंसानियत हमें एक दूसरे भाई से प्रेम, सौजन्य और सहानुभूति की रज्जु में बाँधती है।
अफ्रीका का काला काला बदसूरत हबशी, पाश्चात्य देशों के श्वेत रंग के सुन्दर व्यक्ति , गेहुँवा रंग के हम भारतवासी, छोटी छोटी आँखों वाले चीनी और जापानी, मलाया के जंगली- तथा लाखों अन्य प्रकार के नाना देशों, जलवायु और अच्छी परिस्थितियों में रहने वाले हमारे असंख्य भाई बहिन—सभी एक दूसरे के आत्म-स्वरूप हैं। इंसानियत की दृष्टि से कोई भी आदमी—चाहे वह जैसा हो—हमारा प्रिय बन्धु है। एक ही रक्त, माँस, मज्जा, अस्थि से बना है।
वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो
रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूत।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा
रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।
जिस प्रकार इस लोक में प्रविष्ट हुआ वायु प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतों का एक ही अन्तरात्मा प्रत्येक रूप के अनुरूप हो रहा है और उनसे बाहर भी है।
सबमें एक ही आत्मा है, जो विभिन्न मानव शरीरों में प्रकट हो रहा है। एक ही ईश्वर सर्वत्र चमक रहा है। न रंग, न रूप, न दर्जा, न देश हमें मानवता से कोई भी पृथक नहीं कर सकता। सुन्दर असुन्दर, काला गोरा, पढ़ा न पढ़ा सब एक ही वृक्ष की शाखाएं हैं—
“कुदरत के सब बन्दे,
एक ही नूर से सब जग उपज्या।
कौन भले, कौन मन्दे?”
जिस दिन प्रत्येक मनुष्य संकीर्णता और कृत्रिम भेदभाव के इस मायाजाल को त्याग कर सभ्यता के आवरण में पनपने और पलने वाले इस ऊँच नीच, जाति पाँति के भेदभाव को त्यागकर इंसान, वास्तविक मनुष्य होना पसन्द करेगा, मानवता की प्रशस्त भूमिका में उठ सकेगा, इंसान इंसान का भाई है—इस महासत्य को व्यवहार में ला सकेगा, उस दिन हमारे समाज से सब प्रकार की कटुता, क्षुद्रता एवं साम्प्रदायिकता, विषमता की समस्या का हल केवल इसी महौषधि—ऐक्य और पारस्परिक सद्भाव—द्वारा संभव है।
मानव जब साम्प्रदायिक संकीर्णता में फँसकर अपने मानवत्व को ठुकरा देता है, तो दानव हो जाता है, अपनी उच्च स्थिति से गिरकर राक्षस या पशु बन जाता है। वह ऐसे ऐसे कुकृत्य करता है, जिससे सारा घुलोक काँप उठता है। इसके विपरीत जब वह भेदभाव को त्याग जाति पाँति, और ऊँच नीच से ऊँचा उठता है, मानवत्व से भी ऊँचा उठ जाता है, तो वह देवता बन जाता है। ऐसा व्यक्ति जो सबको समरूप देखता है, मानव मात्र का कल्याण करता है और अन्त में भगवान् में लय हो जाता है। कहा भी है—
“ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूत हितेरताः”
अर्थात् सब प्राणियों के कल्याण करने में लगे हुए व्यक्ति ही मुझे (ईश्वर) प्राप्त होते हैं।
प्रत्येक धर्म हमें एक दूसरे के मत, विश्वास, पूजा के प्रति सहिष्णु बनने का उपदेश दे रहा है। प्रत्येक धर्म के नेता हमें संकुचितता त्याग कर उदारता ग्रहण करने की सलाह दे रहा है। वे हमें अपने भेदभाव की क्षुद्रताओं से ऊँचा उठने का आदेश दे रहे हैं। मानवता के स्तर पर सबको एक साथ रहने का उपदेश दे रहे हैं।
जो व्यक्ति साम्प्रदायिकता उत्पन्न कर मनुष्यों में भेदभाव उत्पन्न करते हैं, भाई भाई को परस्पर लड़ाते हैं, वे चाहे किसी धर्म के हों, चाहे कितने ही विद्वान् हों, नास्तिक ही कहलाने के अधिकारी हैं। भेद मनुष्य की बाह्य दृष्टि से ही दीखता है। आन्तरिक दृष्टि से सब में वही दैवी स्फुल्लिंग, वही आत्मा विराजमान है, वही ईश्वर अपने सब गुणों में आसीन हैं। यदि मानव आकृतियों में आपको कुछ अन्तर दीखता है, तो वह केवल नीरसता से बचने के लिए है।
हमें चाहिए कि किसी मनुष्य का केवल बाह्य परिवर्तन, वेश भूसा, जाति वर्ण विचारों, दृष्टिकोण, स्वार्थों को दृष्टि में रखकर उसके हृदय में विराजमान आत्मा को न विस्मृत कर बैठें, इंसानियत को न कुचल डालें। दुर्भाग्यवश देश में जो साम्प्रदायिक झगड़े या हत्याएं हुई हैं, वे मनुष्य की असहिष्णु वृत्ति की द्योतक हैं। जो लोग असहिष्णुता के आधार पर अपनी जाति की कल्याण कामना या उन्नति देख रहे हैं उन्हें कदाचित यह ज्ञात नहीं कि वे एक संकीर्णता में फँसकर अपने सर्वस्व नाश का विधान कर रहे हैं।
संकीर्णता या सीमा बन्धन स्वयं हमने ही अपनी अल्पबुद्धि के कारण उत्पन्न किया है। यह मनुष्य की अधूरी दृष्टि का ही कुपरिणाम है। स्वास्थ्य, स्वच्छता या नैतिकता के कारण कुछ भेदभाव न्यायोचित माना जा सकता है, किन्तु ऐसी अवस्था में हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि अपने बिछड़े हुए भाइयों को ऊँचा उठाने के लिए शक्ति भर प्रयत्न करें।
निश्चय जानिये, सीमा बन्धन जगतपिता-परमात्मा में लेशमात्र भी नहीं है। प्रभु की इच्छा है उसके सभी पुत्रों को, अपनी मानसिक, बौद्धिक, नैतिक या शारीरिक शक्तियों को विकसित करने का समान रूप से अवसर प्राप्त हो। वे सब विश्व बंधुत्व की पवित्र रज्जु में भाई चारे से रहें और सब के सब पूर्ण समृद्धिशाली बनें।
हम सब महान् पिता के महान् पुत्र हैं। हम सब एक हैं। साम्प्रदायिकता तथा संकीर्णता मनुष्य, जाति तथा राष्ट्र की प्रगति में बाधक हैं। अतः इस बुराई को स्वयं छोड़ देना चाहिए और अन्य व्यक्तियों से भी छुड़ाने के लिए आन्दोलन करना चाहिए। हमारा समाज आज छोटे छोटे अनेक उपजातियों में विपन्न हो कर पंगु बन गया है। उसे एकता से संगठित करने के लिए हमें समता, प्रेम, बंधुत्व की भावना बढ़ानी चाहिए। यही गीता और भारतीय धर्म की उच्च भावना है। ऊँच नीच की भावना, मनुष्य का दूसरे मनुष्य से घृणा, और जातिवाद का गुण कर्म स्वभाव की उपेक्षा करने वाला वर्तमान रूप प्राचीन धर्म के मूल सिद्धान्तों से मेल नहीं खाता। हमारा धर्म हमें हृदय की उदारता सिखाता है। सबको प्रेम से साथ रहने की शिक्षा देता है। हृदय की उदारता के बिना भारत प्रगति नहीं कर सकता। भारत का धर्म हृदय-धर्म है, आत्म-परमात्म धर्म है। हम केवल अपनी उन्नति या लाभ नहीं चाहते, वरन् सबकी, मनुष्य मात्र की उन्नति चाहते हैं।
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