Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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कल्याण का सर्वोत्तम साधन
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(श्री तुलसीराम जी, वृन्दावन)
निवृत्तिः कर्मणः पापात्सततं पुण्यशीलता।
सद्वृत्ति समुदाचारः श्रेयएतदनुत्तमम्॥
(नारद पु. 60।44 म. भा. शां. 287।16)
पाप कर्म से निवृत्त होना, पुण्य कर्म में लगना, सुन्दर व्यवहार- सुन्दर आचरण, यह कल्याण का सर्वोत्तम साधन है।
देवासुराणं सर्वेषां मानुष्यंचातिदुर्लभम्।
तत्सम्प्राप्य तथा कुर्यान् न गच्छेन्नर कंयथा॥
(शिव पु. पंचमी उमासंहिता 20।31 स्कंद पु. कुमारिका खंड 2।50)
देव असुर आदि योगियों में मनुष्य जन्म कठिनता से प्राप्त होता है उस मनुष्य योनि को प्राप्त करके वह काम करे जिससे नरक न जाना पड़े। अर्थात् पापकर्म से बचे।
यावज्जीवेन तत्कुर्याद्येन प्रेत्यसुखंवसेत्।
(म. आ. उ. 35।67)
जीवन भर वह काम करे जिससे परलोक में सुख मिले अर्थात् पुण्य कर्म करे।
इति ज्ञात्वानरः पुण्यंकुर्यात् पापं विवर्जयेत्।
पुण्येनयाति देवत्वमपुन्यो नरकं व्रजेत्॥
(शि. पु. पंचमी उमा. सं. 20।46)
इस प्रकार समझ कर पाप कर्म त्यागकर पुण्य-कर्म करे कारण कि पुण्य से देवयोनि प्राप्त होती है पाप कर्म से नरक मिलता है। पाप को अधर्म और पुण्य को धर्म कहते हैं।
धर्माधर्म की परिभाषा इस प्रकार है—
धर्म:—कायवाङ् मनोभि सुचरितम्।
(सुश्रुति शारीर. 1।18 डल्हणाचार्य कृति टीका)
अधर्म:—कायावाङ्मनसांदुष्ट् चरितम्।
(सुश्रुत सूत्र. अ. 6।19 निबन्ध संग्रह व्याख्या
अर्थात् मन वाणी शरीर का जो सुन्दर व्यवहार है वह धर्म है और मन वाणी शरीर का जो दुर्व्यवहार है वह अधर्म है।
अब इस पुण्य पाप (धर्माधर्म) को और स्पष्ट करते हैं—
पर द्रव्येष्वभिध्यानं मनसा निसृ चिन्तनम्।
वितथामि निवेशश्च त्रिविधंकर्ममानसम्॥
(मनु. 12।5)
पर धन के लेने की इच्छा, मन में किसी का अनिष्ट चिन्तन करना, नास्तिकता यह तीन मानसिक पाप हैं॥ 5॥
पारुष्य मनृतं चैव पैशुन्यंचाजि सर्वशः।
असम्बघ प्रलापश्चवाङ् मयंस्याच्चतुर्विधम्॥6॥
कठोर वचन, मिथ्या भाषण, चुगलखोरी, निष्प्रयोजन बकवाद यह चार प्रकार के वाणी के पाप हैं ॥6॥
अदत्तानामुपादा नंहिसा चेवा भिधानतः
परदारोपसेवाच शारीरं त्रिविधंस्मृतम् ॥7॥
चोरी (अन्याय से दूसरे का द्रव्य लेना) हिंसा, पर स्त्री गमन, यह शरीर के तीन पाप हैं ॥7॥
इसी के अनुकूल म. भा. अनु. 13।1-5 में है
दश प्रकार के पुण्य—
शरीरेण दानं परित्राणं ब्रह्मचर्य च।
वाचा सत्यं प्रियंहितं स्वाध्यायं चेति।
मनसा दयामस्पृहा श्रद्धाञ्चेति॥
(न्ययदर्शनवात्सायनभाष्य 1।1।2)
दान देना, दूसरे की रक्षा करना, ब्रह्मचर्य से शरीर के पुण्यकर्म हैं।
सत्य, प्रिय, हित, स्वाध्याय ये चार प्रकार के वाणी के पुण्यकर्म हैं।
दया (दूसरे के दुख दूर करने की वासना) अस्पृहा (किसी के द्रव्य व स्त्री पर मन न डुलाना) श्रद्धा (गुरु, शास्त्र के वचनों में श्रद्धा, परलोक में विश्वास) ये तीन मानसिक पुण्य हैं। (अ. 17।14।16)
गीता में तीन प्रकार के तप गिनाये हैं वे यहाँ मेल खाते हैं।
युद्ध में विजय पाने के बाद कुछ खिन्न हुए युधिष्ठिर को देवस्थान नाम के एक तपस्वी ने उपदेश दिया है—
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