Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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एकाग्रता और संकल्प की शक्ति
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(श्री. स्वामी शिवानन्दजी सरस्वती)
नित्य अभ्यास द्वारा जब तक हमारे विचार पूर्ण नष्ट न हो जाय, हमें एक समय एक ही सत्य पर अपने मन को एकाग्र करने का सदा प्रयत्न करना चाहिए। तभी हमारा मन एकाग्रता को प्राप्त करेगा और तत्काल विचार-समूह विचार-समूह नष्ट हो जायगा। पातंजली ने भी अपने योगसूत्र में कहा है—”तत्प्रतिषेधार्थ मेककतत्त्वाभ्यास-”।
मनके संकल्प स्वयं ही दुख हैं। संकल्प का अभाव ही ब्रह्मानन्द है। संकल्प की कालिमा को विवेक और दृढ़ प्रयत्नों द्वारा नष्ट करो एवं दिव्य ज्योति को प्राप्त कर ब्रह्मानन्द के सागर में गोते लगाओ।
प्रत्येक विचार का एक मानसिक मूर्ति-रूप होता है। विचार आदत बन जाते हैं। आदत ही परिस्थिति का रूप ग्रहण करती है। यदि एक बार भी आपने कार्य के विचार का ध्यान किया तो मन उस दिशा में अवश्य सोचना प्रारम्भ कर देगा। धीरे-धीरे वही आदत बन जायगी। आपके मन की सम्पूर्ण शक्ति उसी ओर प्रवाहित होने लगेगी। बार-बार सोचने के लिए आप मजबूर होंगे। अतः नित्य विचार नित्य भावना और नित्य उद्रार को वश में करने की आवश्यकता है।
विचार एक महान् शक्ति है। “जैसा सोचोगे वैसा बनोगे।” सोचो कि आप शक्तिहीन हैं, आप शक्तिहीन हो जाएंगे। अपने को मूर्ख समझो, सचमुच आप मूर्ख हो जाएंगे। ध्यान करो कि आप स्वयं परमात्मा हो, यथार्थ में आप परमात्मा का रूप प्राप्त कर लोगे। प्रतिपक्ष-भावना का अभ्यास करो। क्रोध की हालत में प्रेम की भावना करो। निराशा में आनन्द और उत्साह से मन को भरो।
अंततः दुनिया केवल एक भावना अथवा विचार ही है। मन के संकल्प रहित होने पर दुनिया हवा हो जाती है और मन अवर्णनीय आनन्द में डुबकियाँ लगाता है। वन ने ज्यों-ही विचार किया कि दुनिया तत्काल उसकी आँखों में झूल कर पीड़ा का साम्राज्य शुरू हो जाता है।
कुविचार कैसे दूर किए जा सकते हैं? उन्हें भूल कर। कैसे भूलना चाहिए? उसमें पुनः न डूब कर पुनरावृत्ति को कैसे रोका जा सकता है? अधिक आनन्ददायक दूसरी बात का ध्यान कर। उपेक्षा करो। भूलो। अधिक आनन्ददायक विषय का चिन्तन करो। यह महान् साधना है। गीता के दिव्य विचारों को मन में जमाओ। उपनिषद् और योग वशिष्ठ के उन्नत विचारों का ध्यान करो। आत्मा में अन्दर ही अन्दर बहस करो, ध्यान करो, विचार करो, तर्क करो। साँसारिक विचार, घृणा, द्वेष, प्रतिशोध, क्रोध काम आदि भावनाएँ तत्काल नष्ट हो जायेंगी।
विचार और विचारक दोनों भिन्न हैं। इस बात का प्रमाण है ‘आप’ और मन पृथक-पृथक हैं। आप तो केवल मनोत्पन्न भावनाओं के मौन प्रेक्षक हैं। आप तो कूटस्थ ब्रह्म हैं। आप प्रत्यगात्मा हैं।
जिस प्रकार गंगोत्री से निकलकर गंगा नित्य गंग सागर की ओर बहती है, उसी प्रकार वासनामय मन गत संस्कारों के उद्गम से निकलकर विचार लहरें भी जागृत और स्वप्न दोनों अवस्थाओं में नित्य विषयों की और दौड़ती है। पहियों के अधिक गरम होने पर इंजिन को भी इंजिन शेड में भेज देते हैं, पर यह मन रूपी रहस्यमय इंजिन तो सदा विचार चक्र पर चलता ही रहता है। मस्तिष्क आराम चाहता है पर मन नहीं। मन निग्रही योगी सदा जागता है। ध्यान ही में उसे विश्राम मिलता है। मन ही आत्मशक्ति है।
साधारण लोगों को एक ही समय चार-पाँच प्रकार के आ घेरते हैं यथा घर-गृहस्थी, व्यापार-आफिस, शरीर, खान-पान, आशा, धनोपार्जन, प्रतिशोध, आदि के विचार। यदि आप 3-30 बजे ध्यान से किसी पुस्तक को पढ़ रहे हैं तो 4 बजे क्रिकेट मैच देखने का विचार तत्काल आकर आपका चित्त चंचल कर देता है। केवल योगी ही, जिसने अपने मन को एकाग्र कर लिया, एक समय में एक ही विचार को रख सकता है।
मानसिक क्रियाएँ ही सच्ची क्रियाएँ हैं। विचार ही सच्ची क्रिया है। विचार प्रबल शक्ति है। छूत की तरह वह फैलता है क्रोध का विचार आसपास के लोगों में भी क्रोध की भावना जाग्रत करेगा। इसी तरह सहानुभूति आनन्द आदि के विचार दूसरों में भी इन्हीं भावनाओं को जाग्रत करेंगे। अतः विचार सदा दिव्य एवं उच्च रखो। बुरे विचार स्वयं मर जाएंगे। दिव्य विचार, बुरे विचार को रोकने के लिए अचूक औषधि है।
साँसारिक प्राणी सदा काम के विचार तथा तृष्णा, क्रोध एवं प्रतिशोध के विचारों का शिकार होगा। उनका मन इन दोनों में ही फिरता है। इनका वह गुलाम है। उसे नहीं सूझता कि इनसे बचकर किस प्रकार अच्छे विचारों पर मन को केन्द्रित करे। मन की आँतरिक क्रियाओं से वह अनभिज्ञ रहता है। अपने अथाह ऐश्वर्य एवं विश्वविद्यालयों में प्राप्त थोथे ज्ञान के होते हुए भी उसकी दशा अत्यंत शोचनीय है। विवेक से वह दूर रहता है। सन्त,शास्त्र और ईश्वर में उसे श्रद्धा नहीं है। दुर्बल इच्छा-शक्ति के कारण वह बुरी भावना, लालसा एवं आकर्षण के तूफान को रोकने में असमर्थ है। उसके लिए सच्चा उपाय तो सत्संग ही है।
किसी एक भौतिक जीवन की विभिन्न मानसिक मूर्तियों का सारभूत अंश मानसिक धरातल पर तोला जाता है। उसी की आधारशिला पर दूसरे भौतिक जीवन का महल खड़ा है। प्रत्येक जन्म में जिस प्रकार नवीन शरीर बनता है। उसी प्रकार उसमें नवीन बुद्धि और मन का भी निर्माण होता है।
नित्य—उत्तेजित यह मन अनन्त ब्रह्म से उत्पन्न होकर, अपने संकल्प के अनुसार दुनिया का निर्माण करता है। संकल्प ही संसार है, और उसका नाश मोक्ष है। गीता में कहा भी है—“सर्व संकल्प संन्यासी योगा रुढ़स्त दोच्यते।” सारे संकल्पों को छोड़कर ही योग में आरुढ़ हो सकते हो।
विचार एक जीवित बल है—ससारगत सर्वोच्च, गंभीरतम अटूट बल हैं। विचार जीवित पदार्थ हैं, पत्थर की तरह वे ठोस हैं। आप भले मर जायं पर आपके विचार कभी न मरेंगे। उनमें रूप, आकृति, रंग, गुण, तथ्य, शक्ति और वजन है। विचारों के द्वारा हम सृजन शक्ति प्राप्त करते हैं। विचार चल हैं। जड़ जगत् की प्रत्येक वस्तु सर्व प्रथम में उत्पन्न होती है। फिर वह रूप ग्रहण करती है। हर दुर्ग, मूर्ति, चित्र, मशीन, तात्पर्य यह चीज की उत्पत्ति सर्व प्रथम उसके निर्माता के मन में होकर फिर बाह्य अभिव्यक्ति या रूप ग्रहण किया है।
विचारों के शक्ति कण कथित शब्दों के रूप में ही किसी एक दिशा में केन्द्रित होते हैं। मन में आकर्षण शक्ति है। खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग पकड़ता है। यह संसार का नियम है। आप स्वयं अपनी ओर नित्य आकर्षित होते रहते हैं। यह आपके खुद के विचारों से मेल रखने वाले अन्य जीवित-तत्वों, विचारों एवं दशाओं के दृश्य दोनों रूपों से होता है।
आपका मनोगत प्रथम विचार ‘अहं’ था। अंतिम विचार जो ब्रह्म पदलीन होने के पूर्व आप में उत्पन्न होगा, वह ब्रह्माकार वृति है जो आपकी इस भावना से कि आप ब्रह्म हैं, पैदा होता है।
संकल्पों की अमर्यादित बढ़ती लाभदायक नहीं है। यह तो दुर्भाग्य की सूचक है। एक क्षण के लिए भी साँसारिक पदार्थों पर ध्यान न दो। इस संकल्प से छुटकारा पाने के लिए अधिक शक्ति-व्यय न करो। सम्पूर्ण विचारों को रोकने पर मन स्वयं नष्ट हो जायगा। फूल को मसलने में भी कुछ प्रयत्न होता है पर संकल्प के नाश के लिए उसकी भी आवश्यकता नहीं है। विचारों के निग्रह से संकल्प से बाह्य संकल्प को और शुद्ध मन से अशुद्ध मन को नष्ट कर आत्मज्ञान में दृढ़ होकर रम जाना चाहिए। मोह, ममता, भ्रम, ईर्ष्या, काम, स्वार्थ एवं क्रोध से रहित मन ही परमात्मा का नित्य स्मरण कर सकता है।
साँसारिक विषयों का चिन्तन मन का साधारण स्वभाव है। ईश-स्मरण के बजाय वह गन्दे विचारों में तत्काल फंस जाता है। नित्य प्रयत्न और त्याग द्वारा ही परमात्मा की ओर उसे मोड़ना चाहिए। स्वभाव के खिलाफ होने पर भी उसे इस ओर शिक्षित करना होगा। सांसारिक दुख-दर्दों से बचने के लिए और कोई दूसरा रास्ता नहीं है।
साधारण जनता गंभीर चिन्तन को नहीं समझती उनकी मानसिक भूतियाँ बिखरी हुई होती हैं। केवल विचारक, दार्शनिक एवं योगियों की मानसिक कल्पनाएँ सुव्यवस्थित एवं स्पष्ट होती हैं। एकाग्रता और ध्यान के अभ्यासियों की भावनाएं दृढ़ एवं सुघड़ होती हैं।
संसार की सहायता के लिए संन्यासियों का प्लेटफार्म पर आना आवश्यक नहीं है। वह तो हिमालय की गुफा में रहता हुआ भी दुनिया की मदद करता है, और उसे अपनी शुद्ध, दृढ़ विचार-लहरों से पवित्र करता है। उसका जीवन स्वयं ही शिक्षा का प्रतीक है। परमात्मा को पाने के इच्छुक लोगों के लिए वह जीवित आशा है। भारतीयों ने भी पश्चिमी प्रचार-वृत्ति को अपनाकर यह कहना शुरू कर दिया है कि हमारे संन्यासियों को बाहर आकर सामाजिक एवं राजनैतिक हलचलों में भाग लेना चाहिए। यह भयंकर भूल है। एक संन्यासी या योगी किसी भी संस्था का प्रधान अथवा किसी भी सामाजिक व राजनैतिक आँदोलन का नेता नहीं हो सकता। संन्यासी का कर्तव्य तो शंकर के अद्वैत वेदान्त का दुनिया में आध्यात्मिक ज्ञान को फैलाना है।
विचारों में तूफान चला रहता है। कभी-2 मन चक्कर खाने लगता है। आपको इन्हें एकाग्र कर एक विशेष स्वरूप देना चाहिए। तभी दार्शनिक विचार भी दृढ़ होंगे। विचार मनन और ध्यान अव्यवस्थित विचारों को दृढ़ आधार पर ला खड़ा करेंगे।
मान लो आपका मन पूर्ण शाँत है उसमें कोई विचार वर्तमान नहीं है। फिर भी ज्यों-ही विचार का उद्भव होने लगता है, वह तत्काल नाम और रूप ग्रहण कर लेता है। प्रत्येक विचार का एक नाम और रूप है। उस मुक्ति की रूप स्थूल और नाम सुन्दर अवस्था है जिसे हम विचार कहते हैं। फिर भी ये दोनों एक ही हैं। एक के होने पर दूसरा अवश्य वर्तमान रहती है। जहाँ नाम है वहाँ रूप और विचार अवश्य मिलेंगे।
विचार चल है। वह मस्तिष्क से निकल यत्र-तत्र घूमता है। वह दूसरों के दिमाग में भी घुसता है। हिमालय पर रहने वाला साधु अमेरिका के कोने में अपने प्रबल विचार को भेज सकता है। जो गुफा में अपने आपको पवित्र करता है वह यथार्थतः संसार को पवित्र कर सम्पूर्ण दुनिया का भला करता है। उसके पवित्र विचारों को कोई नहीं रोक सकता। वे उस तक अवश्य पहुंचेंगे जिनको उनकी जरूरत है। मन आकाश की तरह विभु है। अतः विचार-विनिमय संभव है।
मन के दो विभाग हैं- विचारक एवं अनुवीक्षक। विचारक विभाग को रोकना सरल है पर अनुवीक्षक की क्रिया को रोकना असम्भव है।