Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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सभ्य समाज में नारी का स्थान
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मनुष्य समाज नर और नारी दो तत्त्वों से मिलकर उसी प्रकार बना है, जिस प्रकार ईंट-चूना मिलकर इमारत बनती है। दोनों का महत्त्व और स्थान समान है। दोनों की उन्नति का सम्मिलित रूप ही वास्तविक उन्नति कही जा सकती है। संसार की आधी जनसंख्या नर के रूप में और आधी नारी के रूप में विभाजित है। यदि केवल पुरुष ही शिक्षित, सुयोग्य, समुन्नत और स्वतंत्र रहें और स्त्रियों को अशिक्षित, अयोग्य, पददलित एवं परतंत्र, प्रतिबंधित रखा जाए तो आधी जनसंख्या पतित स्थिति में ही पड़ी रहेगी। आधी और अधूरी उन्नति उस गाड़ी के समान मानी जाएगी, जिसका एक पहिया तो बहुत सुंदर है, पर दूसरा टूटा पड़ा है। सभ्य समाज वही कहा जाएगा, जिसमें नर के समान नारी को भी न्याय एवं विकास का अधिकार प्राप्त हो।
कन्या और पुत्र में अंतर क्यों?
कन्या और पुत्र के बीच में अंतर करना, एक को व्यर्थ और दूसरे को महत्त्वपूर्ण मानना, यह हमारा अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण है। पुत्र हमें कमाई खिलावेंगे, बुढ़ापे में सेवा करेंगे, वंश चलाएँगे और पिंडदान देकर स्वर्ग पहुँचावेंगे, इन मान्यताओं के आधार पर हमें पुत्र की कामना अधिक रहती है। उसके जन्म पर खुशियाँ मनाई जाती हैं और कन्या होने पर उसे पराए घर का कूड़ा मानकर उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है। लालन−पालन, स्वास्थ्य, शिक्षा, खान−पान, आदि सभी बातों में कन्या-पुत्र के बीच भेदभाव बरता जाता है। फलस्वरूप कन्याएँ अविकसित एवं अशिक्षित रह जाती हैं, उनकी प्रतिभा एवं क्षमता कुंठित ही पड़ी रहती है। स्वावलंबन की दृष्टि से उनमें कोई सामर्थ्य ऐसी नहीं रहने दी जाती, जिससे कुसमय आने पर वे अपना और अपने बच्चों का भरण-पोषण स्वयं कर सकें। उपार्जन एवं व्यवहारिक ज्ञान न होने के कारण आर्थिक जीवन में वे प्रायः असमर्थ ही रहती हैं। कुसमय में या तो उन्हें बिलख−बिलखकर हीनतापूर्ण, पराश्रित, तिरस्कार भरा जीवनयापन करना पड़ता है या फिर अनैतिक अवलंबन स्वीकार करके अपने दिन काटने पड़ते हैं। जिन्हें उत्तराधिकार में कुछ संपत्ति मिलती है, वे उसका भी लाभ नहीं उठा पातीं, कुटुंबी और रिश्तेदार उनकी दुर्बलता का लाभ उठाकर उन्हें उससे भी वंचित कर देते हैं। पति को पसंद न आने पर पत्नी का जीवन कैसा दयनीय हो जाता है, उसके असंख्यों उदाहरण आँखों के आगे आए दिन आते रहते हैं। हिंदू नारी के सामने यह सारी कठिनाइयाँ केवल इसलिए उत्पन्न होती हैं कि उसे पुरुष की तुलना में हेय और तुच्छ माना जाता है।
शिक्षा और दीक्षा की समता
यदि कन्या और पुत्र में कोई अंतर न करे। दोनों को लालन−पालन, ज्ञानवर्द्धन शिक्षा−दीक्षा एवं स्वावलंबन की दृष्टि से समान रूप से विकसित करने की यदि हमारी दृष्टि रहे तो लड़कियाँ हर भली-बुरी परिस्थिति में अपने पाँवों पर खड़ी रहने और स्वाभिमानी जीवन बिताने लायक हो सकती हैं। वे अपने बढ़े हुए ज्ञान से गृह व्यवस्था को अच्छी तरह सँभाल सकती हैं, पति के लिए सच्ची संगिनी बन सकती हैं और अपने बच्चों को सुसंस्कृत बना सकती हैं। समाज का आधा अंश पददलित रहे और आधा अंग विकसित रहे तो यह अर्धांग बात— पक्षाघात के रोगी की जैसी स्थिति रहेगी। ऐसा लंगड़ा, लूला, काना, कुरूप समाज किसी प्रकार विकसित नहीं हो सकता। नारी के प्रति जब तक हमारा दृष्टिकोण न बदलेगा, जब तक कन्या को पुत्र से हीन माना जाता रहेगा, तब तक एक पहिये की टूटी−फूटी गाड़ी की तरह ही हमारा खचड़ा चलेगा। प्रगति के पथ पर चलने के लिए हर माता को यह मान्यता बनानी पड़ेगी कि कन्या और पुत्र में कोई अंतर नहीं।
बेटे-पोते से वंश चलता है, उस मूर्खता को भी त्याग देना चाहिए। वंश हमेशा अच्छे कार्यों से चलता है। महापुरुषों का यश और नाम अभी भी चल रहा है, जबकि लाखों मनुष्य कुत्ते की मौत रोज मरते रहते हैं और दो-तीन पीढ़ी बाद उनके बेटे-पोते तक नाम भूल जाते हैं। बेटे के लिए लोग किस कदर लालायित रहते हैं, किस तरह मियाँ मसान पूजते, देवी-देवताओं की मनौती मनाते हैं, उसे देखकर इनकी संकीर्णता पर तरस आता है।
दोनों हाथों की तरह, दोनों आँखों की तरह, हमें बेटी-बेटे एक समान मानने चाहिए और उनकी शिक्षा दीक्षा की समान व्यवस्था करनी चाहिए, तभी सभ्य समाज की रचना का श्रीगणेश हो सकेगा। नारी को उपेक्षा की दृष्टि से देखते रहने पर तो प्रगति का पथ सर्वथा अवरुद्ध ही पड़ा रहेगा।
क्या परदाप्रथा आवश्यक है?
नर और नारी के अधिकार में हमें समता को ही स्थान देना पड़ेगा। जो बात एक के लिए उपयोगी है, वही दूसरे के लिए भी उचित हो सकती है। यदि स्त्री पर पुरुषों की कुदृष्टि पड़ने से उसका शील नष्ट होने का भय है तो यही भय पुरुषों के लिए भी करना उचित है, क्योंकि उन पर भी नारी की दृष्टि पड़ सकती है और उनका भी शील नष्ट हो सकता है। ऐसी दशा में यदि नारी के लिए परदा उचित है तो पुरुषों को भी घूँघट धारण करना चाहिए। यदि पुरुष ऐसे विश्वस्त हैं कि वे किसी की भी कुदृष्टि से विचलित नहीं होते तो यह विश्वास नारी पर भी करना पड़ेगा। स्वास्थ्य के लिए नितांत हानिकारक और सांसारिक ज्ञान से वंचित रखने वाली, नारी को मानसिक एवं व्यवहारिक दृष्टि से अशक्त बना देने वाली परदाप्रथा का आज कोई औचित्य नहीं। सामन्तवादी नृशंस शासनकाल में जब स्त्रियों के अपहरण का भय निरंतर बना रहता था, उस समय नवयुवतियों को घर से बाहर न निकलने देने और घूँघट मारकर रहने का कोई औचित्य हो सकता था। पर आज वह परिस्थितियाँ नहीं रहीं तो भी बंदरिया की तरह इस मरे बच्चे की लाश को हम छाती से क्यों चिपकाए रहें?
बंगाल, गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत में जहाँ परदा नहीं होता, वहाँ दुराचार फैल गया हो और उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, आदि थोड़े से प्रदेश के उच्चवर्ग में जहाँ परदा होता है, वहाँ कोई बहुत बड़ा सदाचार रह रहा है। क्या ऐसी बात है? वस्तुस्थिति इससे उलटी है, जहाँ जितना छिपाव रहेगा, वहाँ उतना आकर्षण बढ़ेगा। यह आकर्षण ही व्यभिचार को जन्म देता है। परदा सदाचार का नहीं, दुराचार का प्रतीक है। यह एक स्पष्ट स्वीकृति है कि हमें अपनी बहू−बेटियों के सदाचार का विश्वास नहीं, इसलिए इन्हें मुँह खोलने, बात करने की भी स्वाधीनता न देकर हम पिंजड़े के पक्षी या जेल के कैदी की तरह हर घड़ी बनाए रहते हैं। मरी लाश को कफन से ढँक देने की बात समझ में आती है, पर जीवित नारी को लाश मानकर उसे परदे से लपेटे रहने का क्या औचित्य हो सकता है?
दहेज का अनौचित्य
दहेज स्पष्टतः नारी जाति का तिरस्कार है। बूढ़ी गाय या बीमार बछिया को कोई पंडा तभी दान में लेता है, जब उसके चारे के लिए कुछ दक्षिणा भी साथ में मिले। इसी प्रकार कन्या को स्वीकार करने की कृपा का मुआवजा लोग दहेज के रूप में माँगें तो इससे बूढ़ी गाय या बीमार बछिया से ही लड़की की तुलना होती है। तिरस्कृत नारी गृहलक्ष्मी नहीं हो सकती। सम्मान और स्वागत के साथ सौभाग्य की साक्षात देवी मानकर जब तक नारी को घर में स्थान न मिलेगा, तब तक उसकी मनोदशा उस स्तर की कदापि नहीं हो सकती कि वह अपने व्यक्तित्व को निखारती हुई अपनी क्षमताओं का लाभ पति के परिवार को या अपने बच्चों को दे सके। उसका मन सदा भिचा−भिचा-सा रहेगा और आत्मग्लानि एवं आत्महीनता के कारण वह अपने आपको जमीन में गढ़ी जाती-सी अनुभव करती रहेगी।
दहेज की कमी के कारण जिसका विवाह अनेक स्थानों से अस्वीकृत हो चुका है, बड़ी खुशामद और घर के बरतन, कपड़े बेचकर जिसके पिता ने अपनी बच्ची के हाथ पीले किए हैं, वह कन्या अपनी व्यर्थता और हीनता ही सदा अनुभव करती रहेगी। जिनकी ससुराल वालों ने उसके पिता को इतना सताकर काबुली पठान की तरह दहेज वसूल किया है, उनके प्रति कोई कन्या कभी सम्मान के भाव नहीं रख सकती। मजबूरी से वह अपनी व्यथा अपने भीतर छिपाए रह सकती है, पर साथ ही गहरी घृणा भी उसके मन में अवश्य छिपी रहेगी। दहेज के कारण कितनी आर्थिक विषमता समाज में पैदा होती है, इसे हम सब भली−भाँति जानते हैं। हममें से हर एक के यहाँ पुत्र है और साथ ही कन्या भी। यदि पुत्र के विवाह में दहेज लिया जाता है तो कन्या के में देना भी पड़ेगा। फिर क्यों दूसरों को पीड़ा दें और स्वयं उत्पीड़न सहें। दहेज के मिटने से सभी का लाभ है।
लालच, अहंता और मूर्खता
दहेज के पीछे जहाँ लड़केवालों की लोभवृत्ति काम करती है, वहाँ शेखीखोरी की अहंता भी कम नहीं जुड़ी होती। लोगों को भ्रम है कि, ‟जो जितना पैसा फूँकता है, वह उतना बड़ा अमीर समझा जाता है और जो जितना अमीर होता है, वह उतना ही बड़प्पन का अधिकारी है।” यह मान्यता वास्तविकता से बिलकुल विपरीत है। गाढ़ी कमाई का पैसा धूमधाम और बरात-दावत जैसे निरर्थक और कष्टसाध्य कार्य में उड़ा डालने में क्या बुद्धिमानी है? कोई भी उड़ाऊ आदमी, घरफूँक तमाशा देखने का ऊतपन अपनाकर दूसरों का उपहासास्पद ही बना है। फिर तीन दिन थोड़ी वाहवाही भी मिल जाए तो अपने बाल-बच्चों के पोषण के लिए नितांत आवश्यक पैसा इस प्रकार उड़ा देने से उत्पन्न होने वाली कठिनाई की तुलना में उस क्षणिक वाहवाही का मूल्य कितना हो सकता है? विवेक की कसौटी पर देखने से विवाह-शादियों में होने वाला खरच एक प्रकार से बिलकुल ही मूर्खतापूर्ण और निरर्थक सिद्ध होता है।
एक तीसरा कारण यह भी है कि कन्या के लिए बहुमूल्य जेवर चढ़ाने की माँग भी होती है। कन्यावाले प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लड़केवाले को मजबूर करते हैं कि वह कीमती जेवर और कपड़े चढ़ावें और अपनी अमीरी प्रमाणित करें। इस खरचीली माँग को पूरा करने के लिए लड़केवाला—'मियाँ की जूती मियाँ का सिर' वाली कहावत चरितार्थ करके लड़की वाले से ही जेवरों की कीमत दहेज के रूप में वसूल करता है। दहेज का विरोध आरंभ करने के साथ−साथ ही जेवर और कपड़ों का दिखावा बंद करने की प्रथा भी चलानी पड़ेगी। इस चढ़ावे को प्रतिष्ठा और प्रशंसा का आधार बिलकुल भी न बनने दिया जाए।
बड़ी संख्या में बरात ले जाने की, बड़ी−बड़ी दावत करने की, आतिशबाजी चलाने की, गाजे−बाजे की ऐसी कौन-सी आवश्यकता है, जिसके बिना विवाह कार्य संपन्न न हो सकता हो? यह फिजूलखरची हटाकर विवाह को अत्यंत सादा और सरल बना देना चाहिए, जिससे वह न तो लड़कीवाले के लिए कष्टसाध्य रहे और न लड़केवाले के लिए भारी पड़े। वर-कन्या के भावी जीवन प्रगति के लिए यदि कुछ दे सकना उनके पिता-माताओं के लिए संभव हो तो वह विवाह के कुछ समय बाद स्वेच्छापूर्वक उस समय दें, जबकि दबाव और प्रतिष्ठा जैसा कोई प्रश्न शेष न रह जाए।
बच्चियों पर कुठाराघात
विवाहों को महँगा बनाना अपनी बच्चियों के जीवन-विकास पर कुठाराघात करना है। जिन्हें अपनी या दूसरों की बच्चियों के प्रति मोह-ममता न हो, जिन्हें इस दो दिन की धूमधाम की तुलना में नारी जाति की बर्बादी उपेक्षणीय लगती हो, वे ही विवाहोन्माद का समर्थन कर सकते हैं। जब तक विवाह को भी नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विद्यारंभ, यज्ञोपवीत की तरह एक बहुत ही सरल, स्वाभाविक, सादा और कम खरच का न बनाया जाएगा, तब तक नारी जाति की उन्नति और सुख-शांति की आशा दुराशामात्र ही रहेगी।
रूप नहीं, गुण की प्रधानता
यदि लड़के यह माँग करते हैं कि हमें सबसे अधिक रूपवती लड़की ही चाहिए तो यही अधिकार लड़कियाँ भी लेंगी। काले-कुरूप लड़कों को तब अविवाहित ही रहना पड़ेगा; क्योंकि लड़कों की भाँति लड़कियाँ भी रूप-लावण्य की कसौटी पर ही लड़कों का चुनाव करने लगेंगी। आज काली-कुरूप लड़कियों को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता है, कल यही समस्या काले-कलूटे लड़कों के सामने उत्पन्न होगी। यदि कुरूप लड़कियों का उनके पति तिरस्कार करते हैं तो कुरूप लड़कों को कैसे अपनी पत्नी का आदर मिल सकेगा? नाप-तोल के एक ही बाँट रखने पड़ेंगे। भारत गरम देश है, यहाँ अधिकांश लोग काले-कलूटे होते हैं, क्या नर क्या नारी। यदि यहाँ गुण के आधार पर नहीं, रूप के आधार पर पसंदगी की प्रथा डाली तो राष्ट्र के दांपत्ति जीवन में असंतोष की वह आग सुलगने लगेगी कि तलाक और परित्यागों के प्रवाह में सारी गृह व्यवस्था नष्ट हो जाएगी। रूप की प्यास विवाह के बाद भी बनी रहेगी और उससे दांपत्ति जीवन की पवित्रता नष्ट होकर व्यभिचार और परित्याग की व्यापक अव्यवस्था दृष्टिगोचर होने लगेगी।
दोनों के लिए एक ही कसौटी
यदि स्त्री के मरने के बाद पुरुष दूसरा, तीसरा विवाह कर सकता है तो नारी को किस तर्क के आधार पर उस अधिकार से वंचित रखा जाएगा? यदि पतिव्रत आवश्यक है तो पत्नीव्रत की उपेक्षा कैसे सहन होगी? यदि पति के साथ सती हो जाना उचित है तो वह आदर्श पतियों को भी क्यों उपस्थित नहीं करना चाहिए? यदि वृद्ध पुरुष किशोरी लड़कियों को विवाह-बंधन में बाँध सकते हैं तो वृद्धाएँ भी किशोर लड़कों को वैसे ही बंधन में बँधने को विवश होने की आशा क्यों न करें? यदि कुलक्षणी स्त्री को उसका पति नहीं निबाहना चाहता तो बेवकूफ पति को उसकी स्त्री क्यों न दुत्कार देगी? नारी से हम शील-सदाचार की बड़ी−बड़ी आशाएँ करते हैं, उस बेचारी ने अपना प्राण निचोड़−निचोड़कर हमारी उस आशा की पूर्ति भी की है। पर इसका अर्थ यह नहीं है कि दूसरा पक्ष बिलकुल ही निरंकुश रहे और शील-सदाचार का सारा भार एक ही पक्ष के ऊपर डाल दिया जाए।
जो भी नियम उचित एवं आवश्यक हों, वे दोनों ही पक्षों के ऊपर समान रूप से लागू होने चाहिए। यदि वर्त्तमान व्यवस्थाएँ और परंपराएँ नारी के लिए ठीक हैं तो उन्हें ही पुरुषों को भी अपना लेना चाहिए। यदि पुरुष अपने लिए कुछ अधिक सुविधाएँ चाहते हैं तो वे ही नारी को भी देने की उदारता उन्हें करनी चाहिए। न्याय की आत्मा कहती है कि, "नर और नारी के कार्यक्षेत्र में तथा शारीरिक स्थिति में भले ही कुछ अंतर रहे, पर इसी कारण उन्हें मानवोचित अधिकारों से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।" भले या बुरे जो भी नियम बनें, वे दोनों के लिए ही समान बनें।
एक गाड़ी के दो पहिये
शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से भारतीय नारी अत्यधिक पिछड़ी हुई है। उसका यह पिछड़ापन समाज की प्रगति में सब प्रकार बाधक है। एक पहिये की गाड़ी से कोई क्या आशा करेगा? अर्धांग पक्षाघात का रोगी अपनी सफल जीवनचर्या कैसे बना सकेगा। जिसकी आधी जनसंख्या नारी के रूप में दीन−हीन, शिक्षा−दीक्षा से रहित, मानवीय अधिकारों से वंचित और हर प्रकार पददलित स्थिति में पड़ी हुई है, वह समाज भला किस प्रकार सभ्यता और प्रगति के पथ पर अग्रसर हो सकेगा? इस कठिनाई पर हमें विचार करना होगा। राष्ट्र की आधी जनसंख्या को इस दुर्गति में देर तक नहीं छोड़ा जा सकता। यदि हमें सामाजिक स्तर में सभ्यता को स्थान देना है तो नारी के न्यायपूर्ण अधिकारों को उसे देने के लिए हमें इच्छा या अनिच्छा से तैयार होना ही पड़ेगा।