Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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सामाजिक प्रगति का एकमात्र आधार
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स्वार्थपरता की मात्रा जब मर्यादाओं का उल्लंघन करने लगती है, तब मनुष्य किसी भी मार्ग से अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए तत्पर हो जाता है। उचित-अनुचित का विचार छोड़कर, जैसे भी बने वैसे अपना स्वार्थ सिद्ध करने की नीति जब अपनाई जाने लगती है, तो मनुष्य का व्यक्तित्व असुरता से परिपूर्ण हो जाता है। असुरता की जहाँ वृद्धि होगी, वहाँ सुख-शांति का ठहर सकना संभव न होगा। अनैतिक दृष्टिकोण अपनाए हुए व्यक्तियों का समाज असभ्य ही कहला सकता है। वहाँ निरंतर क्लेश-कलह ही नहीं, सर्वनाश के अवसर भी उपस्थित होते रहते हैं। आज हमारे समाज में अपराधों, क्लेशों, संघर्षों, अभावों, चिंताओं और समस्याओं का घटाटोप दिखाई पड़ता है, उसका एकमात्र कारण व्यक्तियों के मन में बढ़ी हुई स्वार्थपरता, चरित्रहीनता, एवं संकुचित दृष्टि ही है। आदर्शवाद का, धर्मनीति एवं मर्यादा का उल्लंघन जब कभी भी अधिक मात्रा में होने लगा है, तब उसका परिणाम सारे समाज को भुगतना पड़ता है
। स्वार्थपरता के उत्पात
स्वार्थ से मनुष्य कैसा निर्मोही हो जाता है, इसके अगणित उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है। स्वजन-संबंधियों के रिश्ते भी स्वार्थपरता के तूफान में नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। औरंगजेब अपने सगे भाई दारा को अपने मार्ग का काँटा समझता है और उसका सिर काटकर अपने बाप के आगे पेश करता है। सगे भाई के प्राण लेना और बाप को अपने प्राण प्यारे बेटे का कटा हुआ सिर दिखाकर मृत्यु से अधिक यंत्रणा सहने को विवश करने वाली यह डाकिन स्वार्थपरता ही तो है। बालि ने अपने सगे भाई सुग्रीव की स्त्री का अपहरण कर लिया। रावण ने विभीषण को भरी सभा में सदुपदेश देने के कारण लात मारकर तिरस्कृत किया। कौरवों ने पांडवों को क्या-क्या दुःख नहीं दिए। एक ओर राम-लक्ष्मण और भरत का आदर्श प्रेम है, दूसरी ओर औरंगजेब, बालि, रावण और कौरवों के कुकृत्य हैं। इस अंतर को प्रस्तुत करने का कारण धर्म और अधर्म की आस्था-अनास्था ही हो सकती है।
बाप-बेटे का कितना पवित्र संबंध है। पिता की आज्ञा पालन करने के लिए जहाँ राम, श्रवणकुमार, भीष्म, पुरु, आदि ने अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किए, वहाँ ऐसी भी परंपरा मौजूद हैं, जिनमें बेटे ने बाप को तिरस्कृत, पददलित और मौत के मुँह में धकेल देने में कसर न रखी। जहाँगीर ने अकबर को कैद किया था। खुसरो ने जहाँगीर के खिलाफ बगावत की। औरंगजेब शाहजहाँ को कैदकर उसकी गद्दी पर आप बैठ गया और सलीम ने औरंगजेब के साथ वही व्यवहार किया। बेटों की बापों के प्रति की गई यह करतूतें किस समाज के लिए गौरवास्पद हो सकती हैं?
अनीति और अधर्म का मार्ग
कंस ने अपनी बहिन देवकी के आठ बच्चों को पत्थर पर पटककर मार डाला। गुरुभक्ति के स्थान पर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करने वाले शिष्यों की भी कमी नहीं रही है। भस्मासुर अपने गुरु शिवजी पर उनके दिए हुए वरदान का उलटा प्रयोग करने एवं उन्हें भस्म करके पार्वती का अपहरण करने को उतारू हो गया। गुरु गोविंद सिंह की हत्या उनके एक शिष्य ने ही कर दी। दयानंद को उनके प्रिय सेवक जगन्नाथ ने ही विष खिला दिया। ईसामसीह को उनके एक शिष्य ने ही तीस रुपए के लोभ में गिरफ्तार करके फाँसी पर चढ़वा दिया। जहाँ गुरुभक्ति के एक-से-एक ऊँचे उदाहरण मौजूद हैं वहाँ ऐसी निकृष्ट घटनाएँ भी कम नहीं हैं। अपने स्वामी की रक्षा के लिए बड़े-से-बड़ा त्याग करने वाले संयम राय, पन्नाधाय जैसे और उदाहरण मौजूद है, वहाँ सिराजुदौला से विश्वासघात करके उसके राज्य और जीवन को नष्ट करा देने वाले मीर जाफर जैसे नौकरों के कुकृत्य भी देखने को मिलते रहते हैं।
पतिव्रत भारतीय नारी की विशेषता रही है, पर सूर्पनखा जैसी भी नारियाँ हुई हैं, जो अपने विवाहित पति को छोड़कर परपुरुषों की कल्पना से स्वच्छंद विचरण करती रहीं और समाज में भयंकर कांडों की निमित्त बनीं। एक नारीव्रत का उल्लंघन जिनने किया, उनने विपत्ति को ही आमंत्रण किया है। उत्तानपाद ने एक स्त्री के रहते दूसरी से विवाह किया। उस ईर्ष्या से पहली रानी के पुत्र ध्रुव का अपमान हुआ और बच्चे को घर ही छोड़ देना पड़ा। दशरथ ने तीन विवाह करके कौन शांति पाई? पांडु ने कुंती के रहते माद्री से और विवाह कर लिया तो उन्हें क्षयग्रस्त होकर अकाल मृत्यु के मुख में जाना पड़ा। रावण ने सीता का अपहरण करके कई स्त्री घर में रखनी चाहीं। कीचक ने द्रौपदी पर कुदृष्टि डाली, अलाउद्दीन चित्तौड़ की रानी पद्मावती पर ललचाया। इन सबका क्या परिणाम हुआ? यह किसी से छिपा नहीं है। कुमार्ग पर जिसने भी कदम बढ़ाया है, उसने अपने लिए ही नहीं, वरन दूसरों के लिए भी संकट उत्पन्न किया है।
पापबुद्धि के दुष्परिणाम
रावण, कंस, जरासंध, हिरण्यकश्यप, वेन, नहुष, दुर्योधन, औरंगजेब, नादिरशाह आदि नृशंस शासकों ने अपने मुँह पर कालिख पोती और अन्य अगणित लोगों को उत्पीड़न एवं यंत्रणा में सहने के लिए विवश किया। मुहम्मद गोरी अपनी महत्वाकांक्षाएँ पूरी करने के लिए क्या-क्या नहीं करता रहा? क्या नेपोलियन और सिकंदर ने असंख्यों अपराधों के खून से धरती नहीं रंगी। कुमार्ग पर चलने वाले व्यक्ति सारे समाज को ही दुःख देते हैं। जयचंद ने देशद्रोह करके मुहम्मद गोरी को भारत पर आक्रमण करने के लिए बुलाया तो उस कुकृत्य का दुष्परिणाम राष्ट्र को अद्यावधि सहना पड़ रहा है। दूसरी ओर एक व्यक्ति की देशभक्ति के कारण इंग्लैंड के मालामाल और समुन्नत हो जाने का भी उदाहरण मौजूद है। शाहजहाँ की पुत्री जहानआरा का इलाज एक अँग्रेज डॉक्टर ने किया था। उससे जब बादशाह ने पूछा कि आपने मेरी बेटी की जान बचाई है, आप को क्या पुरस्कार दूँ? तो उसने अपने लिए कुछ न माँगते हुए इतना ही कहा कि, "मेरे देश से आने वाले माल पर से चुंगी माफ कर दीजिए।" शाहजहाँ ने उसे स्वीकार कर लिया और भारत के बाजार इंग्लैंड के माल से पट गए। उस लाभ से इंग्लैंड जैसा पिछड़ा हुआ देश संसार का अग्रणी बन गया।
यह दुर्बुद्धि किन्हीं श्रेष्ठ व्यक्तियों को अपने चंगुल में फँसा ले तो उन्हें भी पतन के गर्त्त में धकेल सकती है। विश्वामित्र ऋषि को प्रलोभन आया तो वे मेनका के जाल में फँस गए। पाराशर केवट कन्या पर मोहित हो गए और अपने को सँभाले न रह सके। चंद्रमा ने गुरु पत्नी गमन का पाप कमाया और इंद्र जैसे देवता अहिल्या का सतीत्त्व नष्ट करने के कुकर्म में प्रवृत्त हुए। भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे विवेकशील दुर्योधन की अनीति का समर्थन करने लगे। इससे प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा तभी तक रह सकता है, जब तक कि उसकी धर्मबुद्धि सावधान रहे। पापबुद्धि के प्रकोप से यदि मनुष्य सँभल न सके तो वह स्वयं तो अंधकार के गर्त्त में गिरता ही है और भी दूसरे अनेकों को अपने साथ पापपंक में ले डूबता है।
धर्मबुद्धि की सत्प्रेरणा
धर्मबुद्धि के जाग्रत होने पर फतेसिंह जोरावर जैसे छोटे-छोटे बालक, दीवार में जीवित चुने जाना हँसी-खुशी स्वीकार कर सकते हैं। चोटी न कटने देने के बदले बोटी-बोटी कटवाने को प्रसन्नतापूर्वक तैयार होते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक बनकर असंख्यों व्यक्ति सब प्रकार की बर्बादी सहन करते हैं और फाँसी के तख्तों पर गीता की पुस्तकें छाती से चिपकाए हुए चढ़ते चले जाते हैं। राम की सेना में रीछ-बंदर जैसे दुर्बल प्राणी अपने प्राणों की आहुति देने के लिए सम्मिलित होते हैं। एक छोटी गिलहरी तक अपने बालों में धूरि भर-भरकर उसे समुद्र में झाड़ देने का अनवरत श्रम करके, समुद्र को उथला करके, राम की सेना का मार्ग प्रशस्त करती है। धर्मबुद्धि से दुर्बल व्यक्तियों में भी हजार हाथी का बल आ जाता है, पर स्वार्थी बुद्धि तो सेनापतियों को भी कायर बना देती है। द्रौपदी को भरी सभा में नग्न किए जाते समय भीष्म और द्रोण जैसे योद्धा नपुंसक बने बैठे रहे। उनके मुख से एक शब्द भी विरोध का न निकला। थोड़े से मुट्ठी भर विदेशी आक्रमणकारी भारत में आए थे, पर उनका संगठित मुकाबला करने के लिए यहाँ के शासक तैयार न हुए और पददलित होते चले गए। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई सहायता और आश्रय प्राप्त करने के लिए समर्थ राजाओं के पास जाती है, पर अँग्रेजों के डर से वे उसे साफ इनकार कर देते हैं। कितने ही भारतीय अंग्रेजों और मुसलमानों के नाक के बाल बने रहे और देश को गुलामी की जंजीरों से देर तक जकड़े रहने को अपनी स्वार्थबुद्धि के कारण करने और न करने योग्य सब कुछ करते रहे। जहाँ राणा प्रताप और शिवाजी जैसे स्वाभिमानी जीवन भर भारतीय स्वतंत्रता के लिए तिल-तिल लड़ते रहे, वहाँ खुशी−खुशी अपनी बहिन-बेटियाँ देकर अपने लिए सुविधाएँ प्राप्त करने वाले भी कम न थे। राणा सांगा 84 घाव होने पर भी युद्धरत हैं, पर दूसरे लोग शत्रु से मिलकर अपना स्वार्थ साधने में लगे रहते हैं।
मानव जीवन की विशेषता
मनुष्य हाड़-माँस का पुतला, एक तुच्छ प्राणिमात्र है, उसमें न कुछ विशेषता है न न्यूनता। उच्च भावनाओं के आधार पर वह देवता बन जाता है, तुच्छ विचारों के कारण वह पशु दिखाई पड़ता और निकृष्ट पापबुद्धि को अपनाकर वह असुर एवं पिशाच बन जाता है। इस लोक में जो कुछ सुख-शांति, समृद्धि और प्रगति दिखाई पड़ती है, वह सब सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों का परिचय है। जितनी भी उलझनें, पीड़ाएँ और कठिनाइयाँ दिखती हैं, उनके मूल में कुबुद्धि का विषबीज ही फलता-फूलता रहता है। सैंकड़ों-हजारों वर्ष बीत जाने पर भी पुरानी ऐतिहासिक इमारतें लोहे की चट्टान की तरह आज भी अडिग खड़ी हैं, पर हमारे बनाए हुए बाँध, स्कूल, पुल इधर बनकर तैयार नहीं हो पाते, उधर बिखरने शुरू हो जाते हैं। सामान और ज्ञान दोनों ही आज पहले की अपेक्षा अधिक उच्चकोटि का उपलब्ध है, पर उस लगन की कमी ही दिखाई पड़ती है, जिसके कारण प्राचीनकाल में लोग स्वल्प साधन होते हुए भी बड़ी-बड़ी मजबूत चीजें बनाकर खड़ी कर देते थे। कुतुब मीनार, ताजमहल, आबू के जैन मन्दिर, मदुरा के, मीनाक्षी के देवालय, अजंता की गुफाएँ, मिश्र के पिरामिड और चीन की दीवार समय के बौद्धिक ज्ञान का नहीं, उत्कृष्ट वस्तु निर्माण करने की भावना का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
भौतिक उन्नति ही पर्याप्त नहीं
मशीनों, कारखानों, नहर-बाँध और सड़कों के आधार पर हमारी सुख-शांति नहीं बढ़ सकती। इनसे थोड़ी आमदनी बढ़ सकती है, पर उस बढ़ी आमदनी से अनर्थ ही बढ़ने वाला है। देखा जाता है कि कारखानों के मजदूर और दूसरे श्रमिक 40 फीसदी तक पैसा शराब, तमाकू, सिनेमा आदि में खरच कर डालते हैं। आमदनी बढ़ती चलने पर तरह-तरह की फिजूलखरची के साधन बढ़ते जाते हैं। जिन्हें ऊँची तनख्वाहें मिलती हैं, वे भी अभाव और कमी का रोना रोते रहते हैं। धनी लोगों के व्यक्तिगत एवं पारिवारिक-सामाजिक जीवन में क्लेश और द्वेष भरा रहता है। पैसे के साथ-साथ दुर्गुण बढ़ते चलने पर वह दौलत, और उलटी विपत्ति का कारण बनती चलती है। इसलिए आर्थिक उन्नति के साथ-साथ विवेकशीलता और सत्प्रवृत्तियों की अभिवृद्धि भी अवश्य रहेगी। यदि इस दिशा में उपेक्षा बरती गई तो प्रगति के लिए आर्थिक सुविधा बढ़ाने के जो प्रयत्न किए जा रहे हैं, वे हमारी समस्याओं को सुलझा सकने में कदापि समर्थ न हो सकेंगे।
जब तक मजदूर ईमानदारी से काम न करेंगे कोई कारखाना पनप न सकेगा। जब तक चीजें अच्छी और मजबूत न बनेंगी, उससे किसी खरीदने वाले को लाभ न मिलेगा। जब तक विक्रेता और व्यापारी मिलावट, कम तोल-नाप, मुनाफाखोरी न छोड़ेंगे तब तक व्यापार की स्थिति दयनीय ही बनी रहेगी। सरकारी कर्मचारी जब तक अहंकार, रिश्वत, कामचोरी और घोटाला करने की प्रवृत्ति न छोड़ेंगे तब तक शासन यंत्र का उद्देश्य पूरा न होगा। यह सत्प्रवृत्तियाँ इन वर्गों में अभी उतनी नहीं दिखाई देतीं जितनी होनी चाहिए। यही कारण है कि हमारी प्रगति अवरुद्ध बनी पड़ी है। साधनों की कमी नहीं है। आज जितना ज्ञान, धन और श्रम-साधन अपने पास मौजूद हैं, उसका सदुपयोग होने लगे तो सुख-सुविधाओं की अनेक गुनी अभिवृद्धि हो सकती है।
आत्मकल्याण का प्रधान साधन
आत्मकल्याण की लक्ष्यपूर्ति तो सर्वथा सत्प्रवृत्तियों पर ही निर्भर है। ईश्वर का साक्षात्कार, स्वर्ग एवं मुक्ति को प्राप्त कर सकना केवल उन्हीं के लिए संभव है, जिनके विचार और कार्य उच्चकोटि के, आदर्शवादी एवं परमार्थ-भावनाओं से ओत-प्रोत हैं। कुकर्मी और पापवृत्तियों में डूबे हुए लोग चाहे कितना ही धार्मिक कर्मकांड क्यों न करते रहें, कितना भजन-पूजन कर लें, उन्हें ईश्वर के दरबार में प्रवेश न मिल सकेगा। भगवान घट-घटवासी हैं, वे भावनाओं को परखते हैं और हमारी प्रवृत्तियों को भली प्रकार जानते हैं, उन्हें किसी बाह्य-उपचार से बहकाया नहीं जा सकता। वे किसी पर तभी कृपा करते हैं जब भावना की उत्कृष्टता को परख लेते हैं। उन्हें भजन से अधिक ‘भाव’ प्यारा है। भावनाशील व्यक्ति बिना भजन के भी ईश्वर को प्राप्त कर सकता है, पर भावनाहीन व्यक्ति के लिए केवल भजन के बल पर लक्ष्यप्राप्ति संभव नहीं हो सकती।
लौकिक और पारलौकिक, भौतिक और आत्मिक कल्याण के लिए, उत्कृष्ट भावनाओं की अभिवृद्धि नितांत आवश्यक है। प्राचीनकाल में जब भी अनर्थ के अवसर आए हैं तब उनका कारण मनुष्यों की स्वार्थपरता एवं पापबुद्धि ही रही है और जब भी सुख-शांति का आनंदमयमय वातावरण रहा है तब उसके पीछे सद्भावनाओं का बाहुल्य ही मूल कारण रहा है। आज भी हमारे लिए वही मार्ग शेष है। इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग न पहले था और न आगे रहेगा। सभ्य समाज की स्थिति जब-जब रही है तब धर्मबुद्धि की ही प्रधानता रही है, हमें वर्त्तमान दुर्दशा से ऊँचे उठने के लिए जनमानस में गहराई तक धर्मबुद्धि की स्थापना करनी होगी। इसी आधार पर विश्वव्यापी सुख-शांति का वातावरण बन सकना संभव होगा।