Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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वित्तेषणा की डाकिन
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धन के संबंध में असंतोष लोभ बनकर फूटता है। वासना का असंतोष काम कहलाता है। स्वामित्त्व का असंतोष मोह कहलाता है। अहंकार की पूर्ति में कहीं त्रुटि रह जाने का असंतोष क्रोध कहलाता है। मानसिक शत्रुओं का, पाप एवं दुष्कर्मों का सारा परिवार असंतोष से ही अपना पोषण पाता है। परिवारों का मधुर मेल-मिलाप इसी के कारण नष्ट होता है। दांपत्ति जीवन की प्रेम प्रतीति में पलीता लगाने वाला यही दुष्ट है। शांति और प्रेम के साथ मधुर जीवनयापन करते हुए आनंद की सरिता बहाने और अपना तथा दूसरों का कल्याण करने में संलग्न होने की अपेक्षा वैभव इकट्ठा करने की हविस में देश-विदेश मारे-मारे फिरने और प्रेत पलीत की तरह निरंतर व्यस्त, व्यथित रहने में यह असंतोष ही एकमात्र कारण हो सकता है। असंतोष को प्रगति का चिह्न मानना सर्वथा भूल है। उससे आकांक्षाओं को उत्तेजना तो अवश्य मिलती है, पर उनकी पूर्ति कदापि नहीं हो सकती। कोई महत्त्वपूर्ण सफलता बिना व्यक्तित्त्व के आवश्यक गुणों में अभिवृद्धि किए कदापि संभव नहीं हो सकती और इन गुणों का बढ़ाना शांत चित्त, आत्मनिरीक्षण, आवश्यक धैर्य और निरंतर अभ्यास से ही संभव है। इन्हें बढ़ा सकना उद्विग्न असंतोषी के लिए किस प्रकार शक्य हो सकता है? वह बावला तो आज ही, अभी ही, सब कुछ पाने की तृष्णा में सब पर हावी होने का उपक्रम बनाए रहता है, उसे इतनी फुर्सत कहाँ है, जो आत्मनिरीक्षण करे और अपने अंदर उन महापुरुषों जैसे गुणों को बढ़ावे, जिनके आधार पर महान कार्यों की पूर्ति हुआ करती है और मनुष्य उन्नति के उच्च शिखर पर पहुँचा करता है। तीन एषणाएँ असंतोष का असुर तीन रूप बनाकर अपनी मायावी दुष्टता के साथ हमारे सामने प्रस्तुत होता रहता है और प्रेम तथा आनंद के साथ जीवनयापन कर सकने वाली सहनशीलता में पलीता लगाता रहता है। (1) वित्तेषणा (2) पुत्रेषणा (3) लोकेषणा— असंतोष के यही तीन स्वरूप हैं। धन, वासना और अहंता की तृष्णा जब अमर्यादित हो उठती है तो उसे एशणा कहा जाता है। उचित प्रयत्न के साथ, उचित आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए, उचित रीति से धन कमाया जाना उचित है, यह प्रशंसनीय और आवश्यक भी है, क्योंकि इसके बिना अपने शरीर और परिवार का निर्वाह नहीं हो सकता। जिन्होंने गृहस्थ धर्म अपना लिया है और विवाहित जीवनयापन कर रहे हैं, उनका उचित मर्यादा के अंतर्गत संतानोत्पादन की दृष्टि रखकर कामोपभोग भी उचित है। अपने पीछे अपने स्मारक के रूप में समाज के श्रेष्ठ नागरिकों को श्रद्धांजलि अर्पित करके जाना ही संतानोत्पादन का उद्देश्य है। कामसेवन उसका एक विनोद भरा शुभारंभमात्र है। हम शुभकार्य करके दूसरों की दृष्टि में अपना सम्मान स्थिर करें और अपने आत्मगौरव के अनुरूप सेवा और सदाचार भरा उत्कृष्ट जीवनयापन करते हुए श्रद्धा के भाजन बनें, यह यशस्वी होने की आकांक्षा भी उचित है, क्योंकि इसी से प्रेरित होकर मनुष्य कष्टसाध्य शुभकर्मों को करने के लिए तैयार होता है। पर यह तीनों ही आवश्यकताएँ पूर्ण कर सकना असंतोष और अधीरता से संभव नहीं। इससे तो मनुष्य मर्यादाएँ छोड़कर उच्छृंखलतापूर्वक अनुचित मार्ग अपना लेता है। औचित्य और मर्यादा धन, वासना और अहंता की उचित और व्यवस्थित प्रगति तो विवेक एवं दूरदर्शिता के आधार पर ही संभव हो सकती है। इसके लिए यह आवश्यक है कि हम आज की स्थिति पर संतोष अनुभव करते हुए मन को प्रसन्नता से, आशा से, उत्साह से परिपूर्ण रखें। जिससे प्रगति का कठिन मार्ग पार करते हुए हम दिन-दिन ऊँचे उठ सकने की स्थिति को प्राप्त कर सकें। असंतुष्ट व्यक्ति एक प्रकार का उन्मत्त होता है जो स्वयं परेशान रहता है और दूसरों को परेशान करता है। परिस्थितियों के साथ समझौता करके ही इस संसार में सबको काम चलाना पड़ता है। परिस्थितियों को अपने अनुरूप ढालने में लगा रहना चाहिए, पर साथ ही अपने को भी परिस्थितियों के अनुरूप ढालना चाहिए। हमें तीनों एशणाओं से बचते हुए आनंद-उल्लास का, प्रेम और संतोष का नैतिक जीवन व्यतीत करने की ही इच्छा करनी चाहिए। बड़ा आदमी बनने की महत्त्वाकांक्षा वाले व्यक्ति इस संसार में अत्यधिक हानिकारक सिद्ध होते हैं। आततायी उपद्रवकारियों की तरह वे दूसरों को पददलित करते हुए उनकी लाशों पर ही चढ़कर बड़े बन पाते हैं। इसलिए भौतिक विभूतियों की तृष्णा को अध्यात्मवाद की दृष्टि से सदा ही हेय माना जाता रहा है। उसे रोकने और नियंत्रित रखने के लिए पग-पग पर शिक्षण दिया जाता रहा है। समाज का संतुलन महत्त्वाकांक्षी लोग ही बिगाड़ते हैं, इसलिए इन मानसिक रोगियों से ऐसे ही सतर्क रहना चाहिए, जैसे ईंट मारने वाले पागलों से बचा जाता है। धन की मृगमरीचिका आज धन के लिए हर व्यक्ति प्यासा-सा फिरता है। धन, अधिक धन, और अधिक धन यह एक ही पुकार हर दिल और दिमाग में से उठती सुनाई देती है। धर्मध्वजी संत-महंतों से लेकर जेबकतरे और चोर-डाकुओं तक हर वर्ग के लोग धन की आकांक्षा से अपने-अपने चरखे चलाते रहते हैं। विचारणीय बात है कि क्या धन की उतनी ही आवश्यकता है, क्या गरीबी इस सीमा तक पहुँच गई है कि मनुष्य को निरंतर धन के लिए उद्विग्न हुए बिना काम न चले? बात ऐसी बिलकुल भी नहीं है। भगवान ने इतनी वस्तुएँ और साधन-सामग्री इस धरती पर पहले से ही पैदा कर रखी है कि मिल-बाँटकर मनुष्य अपना गुजारा कर सके और शांति और आनंद के साथ हिल-मिलकर प्रेमपूर्वक जीवनयापन करते हुए लक्ष्य प्राप्ति के लिए अग्रसर हो सके। रोटी, कपड़ा और मकान मनुष्य जीवन की प्रधान भौतिक आवश्यकताएँ हैं। यह आवश्यकताएँ इतनी छोटी और थोड़ी हैं कि बड़ी आसानी से थोड़े ही समय के उचित श्रम में उन्हें पूरा कर सकते हैं। गरीब कहे जाने वाले लोग भी इन तीनों आवश्यकताओं को पूरा कर लेते हैं और संतोषपूर्वक हँसते-खेलते जीवन व्यतीत करते रहते हैं। इसके विपरीत वे लोग हैं, जिनके यहाँ सब कुछ होते हुए भी दिन-रात धन की हाय-हाय लगी रहती है। अशांति, बेचैनी, चिंता और परेशानी से रहित जिनका एक क्षण भी व्यतीत नहीं होता। ऐसे लोग वस्तुतः बड़े दयनीय हैं। बेचारे न जीवन का मूल समझ सके और न उसका लाभ प्राप्त कर सके। इन अभागों की दुर्दशा पर केवल दुःख के आँसू ही बहाए जा सकते हैं। असंतोष की आग में जलते रहने वाले ये अमीर वस्तुतः विशाल अस्पताल के कीमती पलंगों पर पड़े हुए वे रोगी हैं, जो आग से झुलसे हुए हैं, जिनके बाहर और भीतर आग ही, जलन-ही-जलन पीड़ा दे रही है। कीमती इमारत एवं बहुमूल्य पलंग का क्या सुख इन बेचारों को मिल सकेगा? सादगी का मितव्ययी जीवन भारत गरीब देश है, यहाँ हर आदमी की औसत आमदनी बहुत थोड़ी है। हमारा उत्पादन कम है। योग्यता और क्षमता भी स्वल्प है। ऐसी दशा में राष्ट्रीय आय का स्वल्प होना स्वाभाविक है। इसलिए हममें से हर एक को यह प्रयत्न करना चाहिए कि उतना ही खरच अपने ऊपर करे, जितना कि मध्यम वर्ग के भारतीय नागरिकों को अपने ऊपर करना उचित है। यदि कुछ लोग अपने ऊपर अधिक खरच करेंगे, अधिक जमा करने की सोचेंगे तो उनके कार्यों से दूसरों को उतना ही अभावग्रस्त रहना पड़ेगा। एक ऊँची मीनार खड़ी करने पर जमीन में उतना ही गहरा गड्ढा कहीं-न-कहीं करना पड़ता है। एक व्यक्ति धनी तभी हो सकता है, जब दूसरे अनेकों के हिस्से की राष्ट्रीय आय का भाग अपने नीचे दबा लें। इस प्रवृत्ति के फलस्वरूप दूसरे अनेकों को अभावग्रस्त एवं गरीब रहने के लिए विवश होना पड़ता है। इसलिए संग्रह की, विलासिता की प्रवृत्ति को हेय माना गया है। अध्यात्मवाद के अपरिग्रह से लेकर भौतिकवादी साम्यवाद तक सभी न्यायसंगत दृष्टिकोणों का निष्कर्ष एक ही है कि हर व्यक्ति को उतनी ही सुख-सुविधा प्राप्त रहे, जितनी कि उस समाज के मध्यमवर्गीय नागरिकों को प्राप्त होती है। गरीब और अमीर के बीच का अंतर वर्त्तमान अर्थतंत्र के कारण यदि किसी व्यक्ति की आमदनी अधिक होती है तो उसका कर्त्तव्य है कि उसे समाज को पुनः दान आदि के रूप में लौटा दे। हाथ में पाँच उँगलियाँ होती हैं, उनमें से कुछ छोटी कुछ बड़ी भी हैं। योग्यता और पुरुषार्थ के आधार पर यह अंतर मनुष्य की सुख-सुविधाओं में भी रह सकता है, पर यह होना उतना ही चाहिए, जितना कि उँगलियों की लंबाई में होता है। यह अनुपात दस-पाँच प्रतिशत से अधिक नहीं है। इससे अधिक अंतर यदि लोगों की आर्थिक स्थिति में रहेगा तो उससे समाज में अशांति ही उत्पन्न होगी। उससे ईर्ष्या और अनाचार का ही जन्म होगा। यह एक तथ्य है, जिसे हम चाहें विवेक उदारता और न्याय की दृष्टि से अपनाकर अपनी महानता का परिचय दे सकते हैं, अन्यथा आज नहीं तो कल बलपूर्वक ऐसा करने के लिए विवश किया जाने लगेगा। गरीब और अमीर के बीच इतना अंतर किसी भी प्रकार स्थिर नहीं रह सकता, जितना कि आज देखा जाता है। संत विनोबा के भूदान आंदोलन से लेकर सरकार की करनीति तक धीरे-धीरे सब ओर से वही प्रयत्न चल रहे हैं कि व्यक्ति अधिक संपन्न न रहने पावे। इस युगवाणी को हम विवेकपूर्वक सुन लें और अमीरी की महत्त्वाकांक्षाएँ छोड़कर मध्यवर्ती जीवनयापन करने की बात तक अपने को सीमित कर लें तो हमारे असंतोष का एक बहुत बड़ा कारण अनायास ही समाप्त हो सकता है। गुजर के लायक हम सब कमाते भी हैं, प्रयत्न करके इसे कुछ और भी बढ़ा सकते हैं। अमीरी के सपनों का नशा, यदि हमारे मस्तिष्कों पर से उतर जाए तो स्वस्थ, सुविकसित एवं शांतिमय जीवनयापन करने के लिए हमें एक नई दिशा मिल सकती है। फिजूलखरची से बचना ही चाहिए हमारे खरच दिन−दिन बढ़ते चले जा रहे हैं। विलासिता की बिलकुल बेकार आदतों को हम दैनिक आवश्यकता मान बैठे हैं और खरचे अंधाधुंध बढ़ाए चले जा रहे हैं। हर व्यक्ति अपने से अधिक अमीर की नकल करके स्वयं भी अमीर कहलाने की मृगतृष्णा में भटक रहा है। अमीरों के से ठाठ−बाठ बनाने में गरीब लोग जब अपनी औकात और हैसियत का ध्यान छोड़ देते हैं, तब एक उपहासास्पद स्थिति पैदा हो जाती है। फैशन का भूत लोगों पर इसलिए सवार है कि वे कीमती पोशाक, जेवर, नगीने पहनकर, ठाठ−बाठ इकट्ठा करके बड़े और अमीर आदमी समझे जाने लगें। फैशनपरस्ती एक घटिया दर्जे का छिछोरापन है। अमीरी की विडंबना बनाने में जो फिजूलखरची के उपकरण जुटाते हैं, उन्हें बालबुद्धि ही कहा जा सकता है। आज तो विलासिता की सामग्री को भी आवश्यकता समझने की हमारी बुद्धि भ्रमित होने लगी है। सिनेमा, बीड़ी, मटरगश्ती, शृंगार-साधन, चाय-पानी, यार-दोस्त आदि महकमे काफी खरचीले बैठते हैं। कीमती कपड़े के कई−कई जोड़े रखने, जेवर आदि बनाने में ढेरों पैसा खरच होता है। हाथ से काम न करके, छोटे−छोटे कामों को स्वयं न करके, पैसे देकर कराने में आलसी भी बनना पड़ता है और पैसा भी खरच होता है। टूटी−फूटी चीजों की मरम्मत न कराके, उन्हें पूर्णरूपेण बेकार हुए बिना ही फेंक दिया जाता है। अव्यवस्थित रूप से पड़ी हुई चीजें समय से पूर्व ही नष्ट और बर्बाद होती रहती हैं। खरच में हाथ खुला रखने पर उचित आमदनी होने पर भी तंगी बनी रहती है। उधार की आदत फिजूलखरची को बहुत बढ़ा देती है। जब कभी जो कुछ भी लेना हो, नकद लेना चाहिए और उतना खरच करना चाहिए, जितनी आमदनी हो। उधार देना भी आज के अनैतिक युग में अपने पैसे को सड़क पर बिखेर देने के समान है। लेकर वापिस करने वाले कोई बिरले ही देखे जाते हैं। सामाजिक कुरीतियों में वाहवाही और लोकाचार की उपेक्षा करके ही पैसे की व्यर्थ बर्बादी को रोका जा सकता है। यह सूत्र हैं, जिन पर विस्तारपूर्वक विचार करके हम मितव्ययी बन सकते हैं और आर्थिक तंगी के कारण उत्पन्न होने वाले असंतोष से बच सकते हैं। बुद्धिमानी पैसा कमाने में नहीं, उसके खरच करने में है। कमाई तो कभी−कभी अनायास भी हो सकती है, पर खरच के संबंध में मनुष्य कितना सतर्क रहा है, इससे उसकी बुद्धिमानी परखी जा सकती है। सादगी ही श्रेष्ठ है सादगी, मितव्ययिता और सामान्य श्रेणी का जीवनयापन करने से ही मनुष्य का गौरव है। सज्जनता का यही परिधान है। समाज में जब तक यह प्रवृत्ति विकसित न होगी, हम अशांति और असभ्यता की ही ओर बढ़ते रहेंगे। कहते हैं कि जरूरतों से प्रेरित होकर मनुष्य दुष्कर्म करते हैं, फिर हम इसकी जड़ को ही क्यों न काटें? अपनी जरूरतों को ही सीमित क्यों न करें? जिससे दुष्कर्म करने की आवश्यकता ही न पड़े। संतोषी को सबसे बड़ा सुखी माना गया है। वित्तेषणा पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए यदि हम सादगी को अपनी जीवन-नीति बना लें और मितव्ययिता को अपनाकर तृष्णा को निरर्थक अनुभव करने लगें तो सचमुच अपना जीवन बड़ा सुखी हो सकता है। यदि स्वयं सुखी रहना और दूसरों को शांति से रहने देना हमें अभीष्ट हो तो वित्तेषणा को अस्वाभाविक, अनैतिक, अवांछनीय एवं अनुपयुक्त मानना पड़ेगा। यह डायन जब तक हमारे पीछे पड़ी रहती, तब तक न चैन की साँस लेने का अवसर मिलता है और न दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारे को कोई मार्ग रह जाता है। जिसे निरंतर धन की हाय लगी हुई है, वह सज्जनता और सदाचार का जीवन देर तक नहीं बिता सकता। अवसर आते ही उसका अनीति के मार्ग पर फिसल पड़ना निश्चित है। यह फिसलन ही असभ्यता है। सभ्य समाज की रचना के लिए वित्तेषणा को अपना प्रथम शत्रु मानते हुए सादगी सीमितता और सज्जनता की बुद्धि उत्पन्न करनी चाहिए।