Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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हम दो में से एक मार्ग चुन लें
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इस संसार में उत्थान और पतन के दो मार्ग हैं, जो परस्पर विरोधी दिशाओं में चलते हैं। इनमें से एक को परमार्थ, दूसरे को स्वार्थ कहते हैं। इन्हें हम पुण्य, पाप, श्रेय, प्रेय आदि नामों से पुकारते हैं। प्रशंसा और निंदा के, स्वर्ग और नरक के, शांति और अशांति के मार्ग भी यही हैं। इनमें से मनुष्य स्वेच्छापूर्वक अपने लिए किसी को भी चुन सकता है और अपना भविष्य सुख-शांतिमय या क्लेश-कलहमय बना सकता है। श्रेयमार्ग पर चलते हुए मनुष्य मानवता की महानताओं को अपनाकर अंत में देवत्त्व तक जा पहुँचता है और स्वर्गीय आनंद की परिस्थितियों का रसास्वादन करता है। इसके विपरीत प्रेयमार्ग पर चलते हुए मनुष्य अपने पद से च्युत होकर पशुता का वरण करता है और अंत में असुरता की स्थिति में पहुँचकर नरक जैसी अशांत एवं क्षुब्ध मनोदशा के उद्वेगों में झुलसाने लगता है।
अनिच्छापूर्वक अभिगमन
यह जानते हुए भी कि स्वार्थ का परिणाम दुःख और परमार्थ का परिणाम सुख होता है, लोग आमतौर पर यही गलती दुहराते रहते हैं कि परमार्थ का मार्ग छोड़कर स्वार्थ के मार्ग पर चलने लगते हैं। श्रेय को अपनाने की इच्छा रहते हुए भी प्रेय की ओर ही मन लगता है और मन में संकोच, लज्जा, भय एवं आशंका रहते हुए भी पैर उसी दिशा में बढ़ने लगते हैं। सुख का मार्ग छोड़कर दुःख की ओर, स्वर्ग का मार्ग छोड़कर नरक की ओर चलने के लिए जो शक्ति विवश कर देती है, उसी का नाम माया या अविद्या है। धर्मग्रंथों में माया एवं अविद्या की बड़ी निंदा की गई है और इनके चंगुल में फँसे हुए जीव को भर्त्सना की दृष्टि से देखा गया है। यह विचारणीय बात है कि सत्पुरुषों से, सद्ग्रंथों से तथा अपने अनुभव से व्यक्ति पुण्य की महत्ता और पाप की हानियों को जानता हुआ भी जिस माया या अविद्या की प्रेरणा से कुपथगामी बनता है, वस्तुतः वह है क्या वस्तु? और उसकी इतनी प्रबल प्रचंडता का कारण क्या है?
अनीति की विशेषता यह है कि उससे तुरंत लाभ होता है, किंतु पीछे कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। इसके विपरीत नीति का मार्ग ऐसा है, जिस पर चलने वाले को आरंभ में तप-त्याग करना पड़ता है और पीछे देर से उसके लाभ दृष्टिगोचर होते हैं। अदूरदर्शी लोगों को तुरंत का लाभ दिखाई पड़ता है और देर के लाभ तक ठहर सकने योग्य धैर्य एवं साहस नहीं होता। प्रलोभनों पर वे फिसल पड़ते हैं और उसी कुचक्र में अपना भविष्य अंधकारमय बना लेते हैं। आज के, अभी के, क्षणिक लाभ की ओर इतना अधिक आकर्षित हो जाना कि भविष्य में उसके दुष्परिणामों का ध्यान ही न रहे, इसी का नाम माया या अविद्या है। दूसरे शब्दों में इस मूर्खता को—अदूरदर्शिता, अविवेक, अधीरता या विचारहीनता भी कह सकते हैं।
भवसागर और मायानगरी
इस दुनिया को आध्यात्मिक भाषा में ‘भवसागर’ कहते हैं। मायानगरी या जादूनगरी भी इसे कहा जाता है। भवसागर इसलिए कहा गया है कि वह घड़ियालों और मगरमच्छों से भरा पड़ा है, जो दाँव लगते ही शिकार को निगल जाते हैं। मायानगरी इसलिये कहा गया है कि यहाँ कदम-कदम पर मनुष्य को पहेलियाँ बूझनी पड़ती हैं। भूल-भुलैयों के महल में फँसे हुए मनुष्य को बाहर निकलने के लिए सही रास्ता ढूँढ़ने में अपनी पूरी बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है, तब कहीं उसे रास्ता मिलता है। यदि थोड़ा भी असावधान रहे ,उपेक्षा करे तो उसी में भटकते फिरना पड़ता है और बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलता। घड़ियालों और मगरमच्छों से भरे तालाब में स्नान करने वाले को हर घड़ी सतर्क रहना पड़ता है, जरा-सी असावधानी उसके लिए प्राणघातक दुष्परिणाम उत्पन्न कर सकती है। जादू की नगरी इसलिए कहा जाता है कि यहाँ हर चीज के दो रूप हैं— बाहर कुछ और भीतर कुछ। इसमें वास्तविकता क्या है, यह जाने बिना धोखा होने का बड़ा डर रहता है। बाजीगर मिट्टी का टुकड़ा लेकर उसे जादू से मिठाई बना देता है, किसी वस्तु को किसी रूप में दिखा देता है, इसमें वह “नजर बाँध देने” का जादू करता है। आँखें वास्तविकता को समझने में धोखा खाती रहती हैं और कुछ-का-कुछ दिखाई देता रहता है। जादूगर दर्शकों की मूर्खता पर मन-ही-मन मुस्कराता रहता है।
जादू के महल और धोखाधड़ी
पांडवों का एक ऐसा महल था, जिसमें जल के स्थान पर थल और थल के स्थान पर जल दिखाई पड़ता था। कौरव एक दिन वहाँ गए तो वह भी धोखा खा गए। द्रौपदी इस पर हँस पड़ी और यही हँसी अंत में महाभारत का कारण बनी। इस मायानगरी दुनिया का सारा महल ही जल को थल और थल को जल दिखा देने वाला बना खड़ा है। जिसमें पग-पग पर भ्रमित होने वाले हम कौरवों का उपहास हो रहा है। रूप और सौंदर्य, जिसके ऊपर लोग मरे-कटे जा रहे हैं, चमड़ी की चमकमात्र हैं। इस चमकती पन्नी को मल-मूत्र के हाड़माँस के दुर्गंधभरे घड़े के ऊपर चिपकाकर लोगों को कितने बड़े भ्रम में डाल रखा है, बाजीगरी की इस चतुराई को देखकर हैरत में पड़ना पड़ता है।
दौलत का व्यर्थ अहंकार
धन— चाँदी, ताँबे और कागज के टुकड़े, नोटों की अपनी एक निराली दुनिया है। वे एक हाथ से दूसरे में और दूसरे से तीसरे में मस्ती के साथ घूमते रहते हैं। देर तक वे कहीं भी नहीं ठहर सकते। फिर भी लोग सोचते रहते हैं कि हमारे पास इतना धन जमा है, इतने धन के स्वामी हैं। तिजोरी में, बैंक में धन रखा हो या सरकारी खजाने में जमा हो या अपने बाद उस पर किसी और का कब्जा हो जाए, इसमें अपना क्या बनता-बिगड़ता है? सिक्के हमारे मरने-जीने की परवाह किए बिना अपनी व्यवस्था के अनुसार घूमते फिरते रहते हैं, पर लोग उनके साथ न जाने क्या-क्या अरमान संजोए बैठे रहते हैं। जमीन-जायदाद, सोना, चाँदी तथा अत्यावश्यक वस्तुएँ एक की मालिकी में से दूसरे के हाथ जाती रहती हैं, वह वस्तुएँ ज्यों की त्यों रहती हैं, स्वामित्व जताने वाले एक के बाद दूसरे-तीसरे आते हैं और मरते-खपते चले जाते हैं। जाने वालों में से हर एक खाली हाथ प्रयाण करता है, फिर भी जिसे मरने वाले का उत्तराधिकार मिला है, वह सोचता है कि मुझे दौलत मिल गई। दौलत हँसती है कि, "बेवकूफ, तू जितना सदुपयोग कर ले उतना तेरा लाभ है, जमा हुई संपदा तो तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठवें को उसी क्रम से हस्तांतरित होती रहेगी, जैसी तुझे हुई है।" दौलत मुस्कुराती है, पर बेचारा भोला दर्शक यह सब समझ नहीं पाता और अपने धनी होने के अभिमान में इतराता फिरता है। जादू की नगरी में लोग व्यर्थ ही बावले बने फिरते हैं। काम और लोभ के वशीभूत होकर वासना और तृष्णा से ग्रसित होकर हम क्या-क्या अनर्थ नहीं करते?
प्रवंचना और विडंबना होली के दिनों में रास्तागीरों का मजाक बनाने के लिए कई मनचले लोग ऐसा करते हैं कि सड़क पर रुपया, अठन्नी आदि कोई सिक्का मजबूत मसाले से चिपका देते हैं। रास्तागीर उसे देखता है और ललचाता है। लोगों की आँख बचाकर उस पड़े हुए सिक्के को उठा ले जाने का उपक्रम करता है। उठाने की कोशिश करता है तो वह चिपका हुआ सिक्का उखड़ता नहीं। इस लालच पर व्यंग्य करते हुए वे मनचले लोग हँस पड़ते हैं, जिनने यह चालाकी कर रखी थी। बेचारा रास्तागीर अपना उपहास सहता हुआ सिटपिटाता मुँह लेकर खीजता हुआ चला जाता है। ऐसा ही मजाक हम सबके साथ यह जादू की दुनिया करती रहती है। रूप और सौंदर्य पर मोहित होकर मनुष्य विकारग्रस्त होता है, इस विकार में उसे मिलता कुछ नहीं नष्ट बहुत होता है। मानसिक शांति, स्वास्थ्य, पौरुष एवं भविष्य सभी कुछ दाँव पर लगाकर वह इस रूप-सौंदर्य को हड़पना चाहता है, हड़पने में कुछ नहीं आता। केवल अपना जीवन इस पर निचुड़ जाने की हानि उठाकर भोला दर्शक हाथ मलकर पछताता रह जाता है। धन की भी यही बात है। जमीन, तिजोरी, बैंक और कारखाने में अपनी समझी जाने वाली दौलत को छोड़कर लोग खाली हाथ चले जाते हैं।
छोटा लाभ बड़ी हानि
वह माया, जिसमें भ्रमित होकर मनुष्य तुरंत के छोटे से लाभ के लिए भविष्य को अंधकारमय बना लेता है, कोई बाहरी शक्ति या देवी दानवी नहीं है, मनुष्य की अदूरदर्शिता ही है। दूरगामी परिणामों की चिंता न करते हुए, तुरंत का लाभ सोचने से मनुष्य दुष्कर्म करने पर उतारू होता है, किंतु यदि उसका सोचना इस ढंग से हो कि मुझे स्थाई शांति किस प्रकार मिलेगी तो उसका दृष्टिकोण बिलकुल दूसरे ही ढंग का हो जाएगा, तब वह उस तरह सोचेगा जैसा बुद्धिमान सोचते हैं और वैसा करेगा, जैसे भले मानस करते हैं। चरित्र का आधार यह दूरदर्शितापूर्ण दृष्टिकोण ही है। संसार की सुख-शांति इसी बुद्धिमत्ता के विकास पर निर्भर है। युगनिर्माण योजना के अंतर्गत सभ्य समाज की रचना का जो हमारा लक्ष्य है, उसकी पूर्ति का प्रधान अवलंबन यह है कि मनुष्य दूरदर्शी बने, आज का कार्य करने से पूर्व कल की संभावनाओं का ध्यान रखे। विवेक से काम ले। वह करे जो करने योग्य हो। वह सोचे जो सोचने योग्य हो। जो उचित जँचे, उसे अपनावे और जो अनुचित दिखाई देता है, उससे अलग हो जावे।
अनीति के मार्ग पर दिखाई देने वाले प्रलोभनों की ओर दौड़ने वाले मन को कड़ी लगाम लगाकर रोक सकने लायक वीरता जिसमें होगी, वही योद्धा जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त करेगा। लक्ष्य की पूर्णता का श्रेयाधिकारी वही बन सकेगा, जो भविष्य के सुंदर स्वप्नों का संसार बनाने के लिए आज कष्ट उठाने को तैयार है, वही तपस्वी अपनी साधना का वरदान कल उपलब्ध करेगा। जिसने आज नीरस दीखने वाले कार्यक्रम को भी, कठिन दीखने वाले मार्ग को भी, भविष्य की उज्ज्वल आशाओं को ध्यान में रखते हुए अपनाने का साहस दिखाया, वही वस्तुतः इस संसार में धीरवान महापुरुष कहलाने का अधिकारी बन सकता है। ऐसे धीर-वीर लोगों के द्वारा ही यह धरती शोभा को प्राप्त करती है, उन्हीं के प्रताप से यह लोक स्वर्गलोक बनता है। वे ही अपने पराक्रम से युग का परिवर्तन एवं निर्माण किया करते हैं। समाज की रचना के ईंट-चूने का काम यह धीरे-धीरे ही पूरा किया करते हैं। आज उन्हीं को ढूँढ़ा जाना और उन्हीं का निर्माण किया जाना आवश्यक प्रतीत हो रहा है।
ओछापन और महानता
ओछीबुद्धि होने के कारण ही किसी व्यक्ति को ओछा कहा जाता है। यों लंबाई-ऊँचाई में तो बहुत थोड़ा-थोड़ा अंतर लोगों में देखा जाता है, पर विवेक की दृष्टि से उनमें आकाश-पाताल का अंतर रहता है। कोई वामन अंगुल के बौने जैसे होते हैं तो कोई भूधराकार हनुमान जैसे लगते हैं। यह अंतर शारीरिक नहीं, मानसिक ही होता है। ओछे मनुष्य अपना आज का संकुचित लाभ ही सदा ध्यान में रखते हैं और इसके लिए दूसरों का कितना ही बड़ा अहित होता हो तो उसकी परवाह नहीं करते। जिन्हें दूरदर्शिता प्राप्त है, जिनका विवेक जागृत हो गया है, वे महान कहलाते हैं, उनकी दृष्टि सुविस्तृत दूरी तक देख सकने में समर्थ होती है। वे सबके हित में अपना हित समझते हैं। सबके सुख में अपना सुख अनुभव करते हैं और स्वार्थ-साधन करके अपनी तोंद बढ़ाने में वे जोंक का उदाहरण नहीं बनते, वरन खिलते हुए पुष्प की तरह अपना सारा सौरभ दूसरों की सुख-शांति के लिए बिखेरते हुए अपना यशशरीर अमर छोड़कर इस संसार में से हँसते-हँसाते हुए विदा होते हैं। जीवन की यही सार्थकता है और इसे प्राप्त वे ही कर पाते हैं, जो महान हैं— जिनका दृष्टिकोण विशाल एवं महान है। माया से विरत, विवेकशील और ज्ञानी-विज्ञानी वे ही हैं, जिनने ओछेपन को ठुकरा देने और महानता को छाती पर धारण करने का साहस दिखाया। वीरों की पूजा सर्वदा-सर्वत्र होती है। भगवान राम और कृष्ण भी वीरता के कारण पूजे जाते हैं। भगवान के दरबार में पग-पग पर फिसलने वाले लुँज-पुँज लोगों के लिए नहीं, केवल उनके लिए सम्मान का स्थान मिल सकता है, जो अंगद की तरह पैर जमाकर अपनी महानता, वीरता एवं उत्कृष्टता का प्रमाण प्रस्तुत कर सकें। मुक्ति तो उनके लिए एक तुच्छ उपहारमात्र है, स्वर्ग तो उन्हें अनायास ही मिलने वाला है।
प्रलोभन और संयम
काँटे की नोंक में लगे हुए जरा से आटे का लोभ मछली संवरण नहीं कर पाती और अपनी जान से हाथ धो बैठती है। जाल में बिखरे हुए जरा से दानों की उपेक्षा यदि भोली चिड़िया कर सकी होती, तो फड़ाफड़ा-फड़ाफड़ाकर मरने की आपत्ति से वह बच सकती थी। दीपक के रूप पर मुग्ध होकर आगे-पीछे न सोचने वाला पतंगा आखिर पाता क्या है? खुद भी जल मरता है और दीपक को भी बुझा देता है। रस का लोभी भौंरा, कमल की पंखुड़ियों में बंद होकर हाथी का कलेवा बन जाता है। ठग आरंभ में थोड़ा लालच दिखाकर अंत में किसी भोले आदमी को बुरी तरह मूँड़ लेते हैं। यदि इनमें आरंभिक प्रलोभन से बच निकलने के लायक धैर्य रहा होता तो बेचारों की इस प्रकार दुर्गति क्यों होती? जेलखानों में निंदा, घृणा और यातना का जीवन व्यतीत करने वाले लोगों में से अधिकांश वे हैं, जो अपने तात्कालिक लोभ एवं आवेश का संवरण न कर सके और आज जनसमाज से बहिष्कृत स्थिति में दयनीय जीवनयापन कर रहे हैं। नरक की बड़ी जेल में ले जाने वाला भी यह एक ही कारण है, प्रलोभनों में फिसलने से बच सकने लायक धैर्य का अभाव। यदि यह एक कमी लोगों के मनःक्षेत्र में से निकल सके तो निस्संदेह हम में से हर कोई महापुरुष बन सकता है और अपने को आनंदमय स्थिति में रख सकता है। इतना ही नहीं वरन सर्वत्र सुख-शांति का वातावरण उत्पन्न करने में महान योगदान दे सकता है।
विभूतियों के लिए पात्रत्व
भगवान के भंडार में बहुत विभूतियाँ भरी पड़ी हैं, पर वे सबको उसी प्रकार नहीं मिलतीं जिस प्रकार बंदूक का लाइसेंस सरकार हर किसी को नहीं देती। परीक्षा के बाद ही विद्यार्थी को उत्तीर्ण होने का प्रमाणपत्र मिलता है। आग में तपाए जाने के बाद ही स्वर्ण को खरा घोषित किया जाता है। किसान साल भर तक अपने शरीर और धन को मिट्टी में मिलाए रखने के बाद ही फसल की अन्नराशि का अधिकारी बनता है। माली को कितने दिन तक कितने धैर्यपूर्वक पौधों की सेवा करनी पड़ती है, तब वे फल देने वाले विशाल वृक्ष बनते हैं। कागज का महल एक दिन में खड़ा हो सकता है, पर विशाल बाँध बनाने का निर्माण कार्य तो वर्षों में पूरा हो पाता है। चोरी, बेईमानी में अपने व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा बेचकर कुछ छोटा-सा लाभ कभी भी प्राप्त किया जा सकता है, पर महापुरुष, नररत्न और सफल जीवन सत्पुरुष कहलाने की महान सफलता तो पग-पग पर अपनी महानता को सुरक्षित रखने के लिए तप, त्याग करने पर ही प्राप्त हो सकनी संभव होती है।
यहाँ हर श्रेष्ठ व्यक्ति को कठिनाइयों की, असुविधाओं की अग्नि परीक्षाओं में होकर गुजरना पड़ा है। जो विवेक को अपनाए रहता है, प्रलोभनों में स्खलित नहीं होता, और सन्मार्ग से किसी भी कारण कदम पीछे नहीं हटाता, वस्तुतः वही इस भवसागर को पार करता है, वही माया के जादू से अछूता बचा रहता है और उसी का मानव शरीर धारण करना सार्थक होता है। श्रेय का मार्ग महान है। पुण्य-परमार्थ के, श्रेष्ठता और महानता के, धार्मिकता और आस्तिकता के, पुण्य-पथ पर चलना कुछ कठिन नहीं है और इस दिशा में चलते हुए निरंतर प्राप्त होती रहने वाली शांति को उपलब्ध करना भी कुछ कष्टसाध्य नहीं है। आवश्यकता केवल इतनी ही है कि मनुष्य तुरंत के लोभ का त्याग कर दूरवर्त्ती परिणामों पर विचार करे और उसी के आधार पर अपनी गतिविधियाँ विनिर्मित करने के लिए कृतसंकल्प एवं कटिबद्ध हो जावे। दोनों मार्ग सामने खुले पड़े हैं, यह अपनी इच्छा के ऊपर पूर्णतया निर्भर है कि दोनों में से किसी को भी चुन लें। सभ्य समाज की रचना का होना या वर्त्तमान असभ्यता का और भी दिन-दिन अधिक बढ़ते जाना, हमारे इसी चुनाव पर निर्भर है। राजनैतिक वोट तो बार-बार पड़ते रहते हैं, हमें जीवन-लक्ष्य के चुनाव में एक ही बार वोट डालनी है। एक श्रेय, दूसरा प्रेय, यह दोनों ही उम्मीदवार खड़े हैं। यह हमारी अपनी पसंदगी की बात है कि इनमें से किसी एक को वोट देकर उसे विजयी बना दें।