Magazine - Year 1962 - Version 2
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Language: HINDI
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पिशाचिनी पुत्रेषणा
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जीवनयापन के लिए थोड़े से धन की, नियमित आजीविका की आवश्यकता पड़ती है। निर्वाह की अनेक आवश्यकताओं में से एक धन भी है। उसके लिए भी ध्यान देना एवं प्रयत्न करना आवश्यक है, पर यदि सब ओर से ध्यान हटाकर धन को ही एकमात्र लक्ष्य मान लिया जाए और उसी की बात दिन-रात सोचते रहा जाए, उसी के निमित्त पूरा जीवनक्रम लगाए रखा जाए तो यह बहुत ही अनुचित बात है। इसी को वित्तेषणा कहते हैं। साधन न रहकर जब धन, साध्य बन जाता है तो उस तृष्णा के वशीभूत होकर मनुष्य बुरे-से-बुरे अनीतियुक्त काम करते हैं। गरीबी नहीं, तृष्णा दुष्कर्मों की जननी है। गरीब भीख माँग सकता है या पेट भरने लायक कोई छोटी−मोटी बुराई कर सकता है, उसमें इतनी अक्ल कहाँ होती है, जो बड़े−बड़े योजनाबद्ध प्लान बनाकर अनैतिक उपायों पर परदे डालकर बहुत कुछ डकार जाए। यह कार्य सुशिक्षित, साधनसंपन्न और सामर्थ्यवान लोगों का है।
अनीति की जननी तृष्णा
डाकू गरीब नहीं होते, गरीब बंदूक कहाँ से प्राप्त करेगा? शरीर में इतना बल कहाँ से लावेगा? रिश्वतखोरी, बेईमानी, ठगी के जो विशालकाय अनर्थ होते हैं, वे सब उच्च वर्ग के लोगों द्वारा संपन्न किए जाते हैं। उसके मूल में गरीबी नहीं, धन की तृष्णा होती है। निर्वाह के लायक उचित आवश्यकताएँ पूर्ण करने योग्य धन के उपार्जन और संग्रह की मर्यादा सीमित करके मनुष्य सुखी हो सकता है। अपने चरित्र को सँभाले रख सकता है। बाल बच्चों को उत्तराधिकार में मुफ्त का माल देकर उन्हें निकम्मे बनाने से बचाए रह सकता है और जनसाधारण में ईर्ष्या एवं असंतोष उत्पन्न होने से रोके रह सकता है। धन की असीम तृष्णा में संलग्न व्यक्ति यह सब बुराइयाँ पैदा करते रहते हैं। यह तृष्णा उनके निज के लिए ही नहीं, सारे समाज के लिए घातक सिद्ध होती है इसलिए वित्त को नहीं वित्तेषणा को निंदनीय ठहराया गया है। इस दिशा में संतोष की, मर्यादा की मनोवृत्ति रखकर ही मनुष्य अपने मानसिक स्तर को इतनी फुर्सत में रख सकता है कि वह अपने आत्मकल्याण की बात सोच सके और उसके लिए कुछ कर सके। इस तृष्णा से बचे रहने वाले के पास ही इतना मन, उत्साह और समय खाली रह सकता है कि वह देश धर्म की कुछ बात सोच सके और उसके लिए प्रयत्न कर सके। श्रेयमार्ग पर ध्यान दिए बिना, उसके लिए समय लगाए बिना, जीवन सफल एवं सार्थक नहीं हो सकता और इधर कदम उठा सकना उन्हीं के लिए संभव है, जिनका मन धन को नहीं, जीवन के सर्वांगीण विकास को अपना लक्ष्य निर्धारित कर सका होगा।
अमर्यादित वासना
दूसरी दुष्प्रवृत्ति है— “पुत्रेषणा”। पुत्रेषणा का मोटा अर्थ संतानोत्पादन है। इसका पाशविक रूप काम-वासना है। सृष्टि का क्रम बंद न हो जाए, इस दृष्टि से उस बाजीगर ने प्राणियों के शरीर और मन में एक ऐसा विकार उत्पन्न कर दिया है, जिसके आकर्षण से वशीभूत होकर उसे परिवार बनाने और बढ़ाने का कठिन काम पूरा करने में आनाकानी न करनी पड़े। विचारपूर्वक देखा जाए तो प्रजनन की क्रिया माता के लिए प्राणघातक संकट जैसी है। नौ महीने गर्भ में बालक का शरीर वह अपने शरीर का रक्त-माँस देकर ही बनाती है। इतना माँस और रक्त अपने शरीर में से देकर वह बहुत कुछ खोती ही है। बहुत दिन तक जो दूध पिलाती है, यह भी उसी का रक्त छाती में होकर दूध बनकर निचुड़ता रहता है। गर्भ के दिनों में माता का स्वास्थ्य कितना गिर जाता है इसे सब कोई जानते हैं। प्रसवकाल की पीड़ा की कल्पना कर सकना भुक्तभोगी के लिए ही संभव है, फिर बालकों के लालन−पालन में दिन−रात किस तरह गुजारनी पड़ती है, इस परिश्रम का अनुमान लगाया जाए तो लगता है कि माता को कितना अधिक कष्ट सहन करना पड़ता है। यदि इतनी बड़ी कठिनाई को समाज के लिए कोई महत्त्वपूर्ण उपहार सुसंतति के रूप में देने की पूर्व तैयारी के साथ किया गया हो तब तो बात दूसरी है, अन्यथा जो मानव जीवन सत्कर्मों में लग सकता था, उसे संतानोत्पादन जैसे कष्टसाध्य कार्य में लगाकर और कुसंस्कारी बालक उत्पन्न करके, अपने लिए उनके लालन−पालन और समाज के लिए इस कुसंस्कारक सेना के द्वारा होने वाले उपद्रवों के बढ़ाने में भला क्या अच्छाई हो सकती है?
संतानोत्पादन का उत्तरदायित्व
काम-विकार से ग्रसित होकर लोग बिना विचारे संतानोत्पादन का महान उत्तरदायित्व कंधे पर ले बैठते हैं और उसके वहन करने योग्य परिपूर्ण क्षमता न होने पर अपने लिए ही नहीं, सारे समाज के लिए संकट उत्पन्न करते हैं। संतानोत्पादन के द्वारा समाज को श्रेष्ठ नागरिक प्रदान करने की परिपूर्ण जिम्मेदारी के लिए समुचित तैयारी होने पर कामसेवन की सार्थकता कही जा सकती है, पर केवल विकारग्रस्त होकर क्षण भर के सुख के लिए प्रजनन और बालकों का भार उठाने जैसा कार्य निस्संदेह एक दुस्साहसमात्र है। आज ऐसा ही अविवेकपूर्ण दुस्साहस चारों ओर बढ़ रहा है। इससे बालकों की जन्मसंख्या इतनी तेजी से बढ़ रही है कि खाद्य समस्या से लेकर वस्त्र, मकान, चिकित्सा, शिक्षा, रोजी-रोटी आदि के सभी साधन पिछड़ते चले जा रहे हैं। सारे साधन जुटाकर बढ़ती हुई जनसंख्या के उपयुक्त आवश्यक साधन जुटाने में विचारशील लोग लगे हुए हैं, पर जितना बन पाता है, उससे कहीं ज्यादा आवश्यकता यह बढ़ती हुई जनसंख्या उत्पन्न कर देती है।
बढ़ती हुई जनसंख्या
फरवरी की 'अखण्ड ज्योति' में पृष्ठ 15 पर— 'अब नहीं तो 65 वर्ष बाद सही' नामक एक लेख छपा है। इसमें संसार के प्रमुख विचारकों एवं समाजशास्त्री वैज्ञानिकों के अभिमत दिए हैं, जिनमें उनने यह स्पष्ट घोषणा की है कि यदि प्रजनन का यही क्रम जारी रहा तो कुछ ही दिन में अन्न, स्थान, निवास की समस्या काबू से बाहर हो जाएगी। प्रो. हर्मन वेरी का कथन है कि, "ईसा के 10 हजार वर्ष पूर्व सारी दुनिया में मनुष्यों की आबादी केवल 10 लाख थी, वह अब बढ़कर 3 अरब हो गई। वृद्धि के इस अनुमान से सन् 2050 में दुनिया की आबादी 9 अरब हो जाएगी तो प्रति व्यक्ति के हिस्से में केवल 1 वर्ग मीटर जमीन आवेगी। तब धरती पर इतने लोगों के लिए न खाना मिल सकेगा, न शुद्ध वायु, न पानी, न बिजली। मकानों में सोने के लिए जगह न बचेगी, उनमें खड़े भर रहा जा सकेगा। जानवरों का नामो-निशान तक दुनिया में से मिट जाएगा, क्योंकि जब मनुष्यों के रहने के और खाने के लिए ही धरती की शक्ति पर्याप्त न होगी तो बेचारे पशुओं को उसमें से कौन हिस्सा बटाने देगा। लोग उन्हें मार-काटकर बहुत पहले ही चट कर जाएँगे।”
बढ़ती हुई जनसंख्या अगणित समस्याएँ उत्पन्न करेगी। इस बढ़ती हुई महँगाई और घटती हुई आमदनी में अंधाधुंध बच्चे पैदा करते जाना किसी भी दृष्टि से बुद्धिमत्ता का काम नहीं है। यदि बच्चे की उचित शिक्षा का, उचित पोषण का ठीक प्रबंध, वर्त्तमान आर्थिक अव्यवस्था में नहीं हो सकता तो उनको उपजाया ही क्यों जाए? संतान पैदा करना एक महान उत्तरदायित्व अपने कंधे पर लेना है। यह उचित तो है, पर शर्त यही है कि उसके लिए आवश्यक क्षमता और योग्यता हमारे में हो। स्वास्थ्य, शिक्षा और धन की दृष्टि से हम इतने समर्थ हों कि अपने जीवन की उचित आवश्यकताओं को पूर्ण करने के साथ−साथ बच्चों को सभ्य नागरिक बना सकने में समर्थ हो सकें। इसके बिना संतानोत्पादन एक सामाजिक अपराध है।
ब्रह्मचर्य की आवश्यकता
स्वास्थ्य की सुरक्षा, दीर्घजीवन, जीवनीशक्ति की स्थिरता का ब्रह्मचर्य से अटूट संबंध है। प्राचीनकाल में इस ओर पूरा−पूरा ध्यान रखा जाता था, फलस्वरूप स्वास्थ्य की स्थिति बहुत ही उत्तम रहती थी। अब जबकि काम-वासना को एक क्रीड़ा−कौतुक मान लिया गया है और खिलवाड़ एवं मनोरंजन की तरह उसका उपयोग किया जाने लगा है, स्वास्थ्य की बर्बादी भयंकर रूप से सामने आ रही है। चेहरों के तेज नष्ट हो चले हैं, मस्तिष्क जरा−सा काम करने में दरद करने लग जाता है, शरीरों में हर घड़ी थकान छाई रहती है, परिश्रम करते नहीं बन पड़ता, कमजोरी नस−नस में व्याप्त रहती है, लगता है देह का हर कल−पुर्जा खोखला हो चला है और जीवन की गाड़ी किसी प्रकार जीवन के दिन पूरे करने के लिए लड़खड़ा−लड़खड़ाकर चल रही है। स्वास्थ्य की इतनी बर्बादी का प्रधान कारण यह काम-कौतुक ही है, जिसमें ग्रस्त होकर सारे छोटे−छोटे बच्चे तक अपना सर्वनाश करने में लगे हुए हैं। किशोरावस्था पार करते−करते उन्हें बुढ़ापा आ घेरता है और जवानी आने से पहले मौत की घंटी बजने लगती है।
आग भड़काने वाले प्रसाधन
सिनेमा, अश्लील चित्र, बेहूदा साहित्य, गंदे गाने तथा कुसंग का वातावरण वासना की आग बुरी तरह भड़काने में लगा हुआ है। फलस्वरूप हमारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य चौपट होता चला जा रहा है। इस दुर्गति की स्थिति में समाज की श्रेष्ठता की आशा तो की ही कैसे जाए? भाई-बहन की, पिता-पुत्री की दृष्टि से नर-नारी अब आपस में एकदूसरे को कहाँ देखते हैं? वासना की दूषित दृष्टि का रंगीन चश्मा आँखों पर चढ़ा होता है और विकारपूर्ण अनैतिक ढंग से सोचने की एवं वैसी ही चेष्टाओं का अवसर ढूँढ़ने की प्रवृत्ति मन में भरी रहती है। फलस्वरूप मानसिक ओज का निरंतर क्षरण होता रहता है।
संक्रामक रोगों से भी भयंकर
यह दृष्टिदोष, यह विकारचिंतन, किसी भी संक्रामक रोग से कम भयंकर नहीं है। हैजा, प्लेग, फ्ल्यू, कोढ़, तपैदिक, चेचक, इन्फ्लुएँजा जैसी बीमारियाँ स्पष्ट दीखती हैं, इसलिए उनका इलाज भी हो जाता है, पर विकार दृष्टि का अदृश्य रोग ऐसा है, जो न पकड़ में आता है और न उसका किसी अस्पताल में इलाज किया जाता है। दांपत्ति जीवन पर इसका कितना बुरा प्रभाव पड़ता है, गृहस्थ की नींव इस बुराई के कारण कितनी खोखली हो जाती है और अपने बड़ों की दुष्प्रवृत्तियों का बच्चों के कोमल मन पर कैसा घातक प्रभाव पड़ता है, यह बहुत ही गंभीर प्रश्न है। मानसिक व्यभिचार की हानि, शारीरिक व्यभिचार से किसी प्रकार कम नहीं है। विचार ही तो अंत में कार्यरूप में परिणित होते हैं। मानसिक विकार आज नहीं तो कल शरीर-संयोग के रूप में प्रकट होता है। प्राकृतिक और अप्राकृतिक दुष्प्रवृत्तियों का जन्म मानसिक विकार के कारण ही होता है। भड़कीला श्रृंगार व्यभिचार का पूर्णरूप है। वेश्याएँ इसी अस्त्र के आधार पर लोगों में विकार उत्पन्न करके, उन्हें अपनी ओर आकर्षित करती हैं।
भड़कीले श्रृंगार से बचें
आज भड़कीला श्रृंगार फैशन कहा जाता है और उसे कला, सुरुचि एवं सभ्यता का चिह्न कहकर पुकारा जाता है। कहा और माना जो कुछ भी जाए, वास्तविकता ज्यों की त्यों रहेगी। हमारे उठती उम्र के बच्चे और बच्ची इस पतन-पथ पर कदम न बढ़ावें, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए। पुराने समय में गुरुकुलों की शिक्षा पूर्ण करके गधा पच्चीसी की कच्ची उम्र पार कर लेने तक छात्रों के सिर मुड़े रखे जाते थे, उन्हें कोई श्रृंगार नहीं करने दिया जाता था। दर्पण देखने की मनाही थी, क्योंकि इससे अपने रूप-यौवन का गर्व मन में उठता है। और उससे किसी को आकर्षित करने की कामना जगती है। इस विषवृक्ष की पत्ती तोड़ने से नहीं, जड़ काटने से काम चलेगा । उत्तेजक श्रृंगार की जड़ में वासना का विकार स्पष्ट है, इससे देखने वालों के मन में विक्षोभ उत्पन्न होता है। कुछ विशेष अंगों को ढककर रखने की परंपरा इसी दृष्टि से है। श्रृंगार-साधनों की जितनी ही वृद्धि होगी व्यभिचार की उतना ही उत्तेजन मिलेगा। इसलिए हम सफाई से रहें, स्वच्छता पसंद करें, सादगी से रहें और सभ्य वेशभूषा धारण करें, पर फूहड़पन को बढ़ने न दें। आज फूहड़पन बढ़ रहा है। हमारी भोली बच्चियाँ इसकी बुराई को समझ नहीं पातीं और वे दूसरों की देखा−देखी भद्दे ढंग से अपना वेश-विन्यास बनाने लगती हैं। उन्हें समझाया जाना चाहिए कि बेटी, यह न तो सभ्यता है और न भारतीय परंपरा! ढलती उम्र आने से पूर्व तक तो भारतीय लड़कियाँ, नीचे आँखें रखने से लेकर सिर ढकने और घूँघट मारने तक न जाने क्या−क्या प्रतिबंध अपने ऊपर लगाए रहती थीं। अब उतने प्रतिबंधों की भले ही आवश्यकता न रही हो, पर इतनी आवश्यकता तो सदा ही रहेगी कि उठती उम्र में अपेक्षाकृत अधिक सादगी अपनाई जाए और भड़कीले श्रृंगार से यथासंभव अधिकाधिक बचा जाए।
वासनात्मक असंतोष
धन के असंतोष की भाँति वासनात्मक असंतोष भी मानसिक शांति को नष्ट करके रख देता है, पतिव्रत और पत्नीव्रत की महानता परलोक और आत्मा की सद्गति की दृष्टि से तो अनिवार्य है ही; सामाजिक जीवन की स्वस्थता की दृष्टि से भी आवश्यक है। हम इस संबंध में एक बहुत छोटी सीमा में अपने को आबद्ध रखें। जिस प्रकार अपनी कमाई के अतिरिक्त दूसरों का पैसा हड़पना पाप है, उसी प्रकार अपनी छोटी−सी दांपत्ति-मर्यादा के बाहर विकार की दृष्टि रखना भी घातक है। पाप दृष्टि से हजार नारियों को देखने पर भी संयोग का अवसर एक से भी नहीं मिलता। पाप हजार मन का चढ़ा और लाभ रत्ती भर भी न हुआ। ऐसी व्यर्थ विडंबना में, पापपंक में, अपने को लिप्त करने से क्या भलाई हो सकती है? जो विवाहित हैं, वे समझ लें कि वासना का क्षेत्र उनके लिए उतना ही सीमित है, इससे बाहर नहीं। अपनी रूखी रोटी खाकर ही हमें संतोष करना पड़ता है. फिर अपना दांपत्ति जीवन जैसा भी कुछ संयोगवश बन गया है, उसी में संतोष करके शांति प्राप्त क्यों न करें?
अविवेक पर अंकुश रखा जाए
अविवाहित लोगों को बेवक्त की शहनाई नहीं बजानी चाहिए। अकारण अशांति को आमंत्रण देने से अपने सत्यानाश का सरंजाम ही इकट्ठा होता है। वे जिनके जोड़े बिछुड़ चुके हैं, वे अपनी शक्तियों को संग्रहित करके अपने शरीर एवं मन को पुष्ट करने में इस अवसर का लाभ क्यों न उठावें। वासना और कुछ नहीं, मछली का पेट फाड़ डालने वाली आटा लगी काँटे की नोंकमात्र है। इसमें जो क्षणिक-सा जादूभरा आकर्षण है, उससे अपने को बचाए रखने की दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता लोगों में नहीं है। इसी में वे उस भयानक बर्बादी को अपना लेते हैं, जिससे यदि बचा जा सका होता तो अपनी गणना संसार के श्रेष्ठ व्यक्तियों में होती, जीवन का लक्ष्य सार्थक होता और समाज को एक कल्याणकारक दिशा प्राप्त होती।
असंतोष हर क्षेत्र में घातक है। धन में ही नहीं, वासना के क्षेत्र में भी उसकी भयंकरता उतनी ही प्रचंड है। वित्तेषणा ने समाज का आर्थिक ढाँचा लड़खड़ा दिया है तो पुत्रेषणा ने मानसिक ढाँचा। संसार को अणुबमों से उतना खतरा नहीं है, जितना वासना के बवंडर से। हमारा स्वास्थ्य, मानसिक-संतुलन, नैतिक-दृष्टिकोण, पारिवारिक-व्यवस्था, आर्थिक ढाँचा, दाम्पत्ति डडडड डडडड पवित्रता सभी कुछ इस बात पर निर्भर है कि काम−वासना की दुष्प्रवृत्ति पर अधिकाधिक अंकुश रखा जाए। यदि इस ओर हमारा मन ललचाता रहा, अपनी मर्यादाओं में जो कुछ उपलब्ध है, उससे अधिक असंतोष धारण करके आक्रमण एवं अपहरण की नीति अपनाई गई तो उससे अनर्थ ही उत्पन्न होगा। सभ्य समाज की रचना में वित्तेषणा के बाद पुत्रेषणा ही दूसरी बाधा है। इसे ब्रह्मचर्य का व्यापक प्रसार करके ही दूर किया जा सकता है। पिशाचिनी पुत्रेषणा की ओर से उपेक्षाभाव रखने में ही हमारा कल्याण है।