Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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हम आध्यात्मिक प्रगति के लिए यह करें।
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हम अपनी भलाई का भी ध्यान रखें-
संसार में ऐसे व्यक्ति बहुत थोड़े होते हैं जिनमें आत्मबल है, जिनको अपनी शक्ति पर विश्वास है, जो बलपूर्वक किसी काम को करना जानते हैं, जीवन की कठिनाइयों का वीरतापूर्वक सामना करते हैं तथा समय और अवसर को हाथ से कभी नहीं जाने देते। इसलिये यदि हम अपने को उत्कृष्ट अवस्था में रखना चाहते हैं, अपनी शक्तियों को उच्चकोटि की बनाना चाहते हैं तो यह उचित है कि हम अपने विषय में सदैव उत्तम विचार रखें और मानसिक दृष्टि से अपने हितैषी बनें। यदि हम अपने विषय में तुच्छ विचार रखते हैं अपनी बेकदरी करते हैं, तो यह एक प्रकार से ईश्वर की निन्दा करना है। क्योंकि सभी धर्मों में यह बतलाया गया है कि मनुष्य ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है और उसने उसको पूर्ण बनाया है। ऐसी अवस्था में यदि हम अपने विषय में उत्तम विचार नहीं रखते, परमात्मा का अंश होने की दृष्टि से अपने को पवित्र नहीं समझते तो अवश्य ही हमारी उन्नति का मार्ग अवरुद्ध हो जायेगा और हम वास्तव में दुर्बल और प्रभावशून्य व्यक्तित्व वाले बन जायेंगे।
अपने मन में मनुष्य जैसा विचार करता रहता है वैसा ही वह स्वयं बन जाता है। मन के विचारों का जीवन पर और जीवन का शरीर पर प्रभाव पड़ता है। अतएव जब कभी आप अपने विषय में विचार करें तो सदा अपने को साफ, सुन्दर और स्वस्थ समझें। जिस बात से आपका गौरव या महत्व घटता है, उस पर ध्यान न दें। क्योंकि अपने विषय में आप जो कुछ विचार रखते हैं, अपना जैसा चित्र आप अपने मन में खींचते हैं उसका आपके ऊपर दूसरों की बातों की अपेक्षा बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। यदि आप जीवन को वास्तव में उपयोगी बनाना चाहते हैं, यदि अपनी शक्ति को वास्तव में कुछ कर सकने लायक रूप में परिवर्तित करना चाहते हैं, तो आपको सदा अपने संबंध में भलाई की बातें ही सोचनी चाहिये, और अपने शरीर तथा स्वास्थ्य के विषय में भी श्रेष्ठ भावना रखनी चाहिये।
-”आत्म हितैषी बनें”
हमारे जीवन के दो पहलू-
हमारे जीवन के- हमारे विचारों के दो भाग होते हैं- एक काल्पनिक और दूसरा क्रियात्मक। आप किसी आदर्श को पाने की मन में इच्छा करते हैं, उसकी प्राप्ति के लिये बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाते हैं और आपने अपना आदर्श भी सच्चे संकल्प से स्थिर किया है, किन्तु फिर भी आपकी ये सद्भावनाएं पानी के बुलबुलों के समान मन की मन में ही शान्त हो जाती हैं। इसका अर्थ यह है कि आप जीवन के काल्पनिक पहलू पर तो विशेष ध्यान देते हैं, पर उसके क्रियात्मक स्वरूप की तरफ से उदासीन रहते हैं। अपने सद्विचारों को नित्य प्रति के व्यवहार में न लाने के कारण ही आपको पूर्ण सफलता नहीं मिल रही है। संसार में सभी बड़े काम अपने सिद्धान्तों को प्रयोग में लाने से ही संपन्न हुआ करते हैं। काल्पनिक बौद्धिक विचार के साथ क्रियात्मक स्वरूप के उत्तम सामंजस्य से ही विचार समूचा बनता है और उसमें पूर्ण उत्पादक शक्ति का समावेश होता है। अभिलाषाएँ, विचार, योजनाएँ तब तक उत्पादक नहीं बन सकतीं, जब तक वे मनुष्य की क्रिया के रूप में परिवर्तित न कर दी जायें। विचार का क्रिया के साथ सम्मेलन होने से ही उत्पादक बल का प्रादुर्भाव होता है। पठन-पाठन और वाचन का ज्ञान चाहे कितना भी अधिक क्यों न हो, अन्ततः पुस्तक में ही रह जायेगा। छटाँक भर क्रियात्मक ज्ञान, सेर भर पण्डिताई से बहुत श्रेष्ठ है।
अनेक अस्थिर और चंचल प्रकृति के व्यक्ति बड़े उत्कृष्ट आदर्शों को लेकर निकलते हैं और बहुत कुछ करने की इच्छा रखते हैं, किन्तु वे संपूर्ण मन, वचन और काया के साथ अपने विचारों को कार्य रूप में परिणित नहीं कर पाते। जिस मूल्य द्वारा किसी कार्य में सफलता प्राप्त होती है, उस मूल्य अर्थात् ठोस कर्म, परिणाम, उद्योग, क्रियाशीलता को दिये बिना ही वे इच्छित पदार्थ को पाना चाहते हैं और फलतः असफल रहते हैं।
-”स्वर्ण पथ”
अपरिग्रह की अनिवार्य आवश्यकता-
जिसकी लोभ-भावना जितनी तीव्र होगी वह उतना ही अधिक संग्रह करने का संकल्प रहेगा। संग्रह कर सकेगा या नहीं यह व्यक्ति की अपनी तथा समाज की तात्कालिक परिस्थितियों पर निर्भर है। यदि वह विवशता अथवा शक्तिहीनता के कारण जितना चाहता है उतना संग्रह नहीं कर सकता, परन्तु उसकी लोभ-भावना बनी रहती है, तो उसे अपरिग्रह नहीं कहा जा सकता। आज जो वस्तु नहीं मिल सकती वह कल मिल सकती है, अतः जो विवशता से वस्तु को छोड़ता है, वह बाधा हट जाने पर संग्रह की तरफ और भी अधिक तीव्रता से बढ़ता है। किन्तु जो साधन होते हुये भी स्वेच्छा से संग्रह की लोभ-भावना का शान्त करके वस्तु का त्याग करता है, वही वास्तविक अपरिग्रही है।
-”नैतिकता की ओर”
बुरे विचारों को ठहरने न दें-
मनुष्य का कार्य प्रत्येक उसके किसी विचार का परिणाम है। जिस कार्य का जितना अधिक विचार किया जाता है वह धीरे-धीरे आदत का रूप धारण करने लगता है। अनेक आदतों के समूह का नाम ही चरित्र है। इसलिये तुम जिस तरह के काम करना चाहते हो उसी तरह के विचार तुम्हारे मन में आने चाहिये। जो काम तुम करना नहीं चाहते हो, जिस आदत को तुम ग्रहण करना नहीं चाहते हो, उनके पैदा करने वाले विचार कभी क्षण मात्र के लिये भी मन में न आने दो। यदि आवें तो उन्हें तत्काल निकाल बाहर करो।
यह एक मानी हुई बात है और इसमें किसी को तनिक भी विवाद नहीं है कि यदि मन में कोई विचार कुछ समय तक बराबर आता रहे तो वह विचार धीरे-धीरे मस्तक के उस भाग में पहुँच जायगा कि जहाँ वह अन्त में कार्य का रूप अवश्य धारण कर लेगा, अर्थात् जहाँ पहुँचकर वह शरीर को अपने अनुसार कार्य करने के लिये लाचार कर देगा। अब यदि यह विचार अच्छा है तो उसका फल भी अच्छा होगा और यदि विचार बुरा है तो परिणाम भी ठीक नहीं होगा। संसार में जितने भी बुरे कर्म हैं सब इसी तरह होते हैं और इनके विपरीत जितने उत्तम कार्य हैं, वे भी इसी तरह होते हैं।
-”चरित्र गठन और मनोबल”
बात नहीं काम करो-
उपदेश तो बहुत पा चुके हो, किन्तु उसके अनुसार क्या तुम कार्य करते हो। अपने चरित्र का संशोधन करने में अभी भी क्या किसी अन्य की राह देख रहे हो? तुम तो अब श्रेष्ठ कार्य करने की योग्यता प्राप्त करो। विवेक बुद्धि की किसी प्रकार अब उपेक्षा न करो। अपने चरित्र का संशोधन करने में लापरवाही करोगे या प्रयत्न में ढिलाई करोगे, तो उन्नति कैसे हो सकती है?
तुम्हें बराबर प्रतिज्ञा पर प्रतिज्ञा करनी होगी और प्रतिदिन यही सोचना होगा कि हम जो कुछ भी विचार, संकल्प, क्रिया करेंगे वह हमारे जीवन को उन्नति-पथ में ले जाने के लिये प्रकाश का काम देंगे। हम हत्भागी अथवा जीवनन्मृत व्यक्तियों की तरह नहीं, स्वाभिमानी, कर्तव्य-परायण, विवेकी, शिष्ट, सदाचारी बनेंगे। हम जो कुछ उत्तम समझते हैं उसे जीवन का बीज मन्त्र बनायेंगे।
तुम्हें अपने समय को व्यर्थ नहीं गँवाना होगा। अपने शुभ अवसरों को न खोकर जीवन रण-क्षेत्र में प्रबल पराक्रम से निरन्तर अग्रसर होकर विजय प्राप्त करने के लिये सदैव तत्पर रहना सीखो। तुम क्या यह नहीं जानते कि संग्राम ही जीवन का एक मात्र भूषण है।
-”आत्मोपदेश”