Magazine - Year 1965 - Version 2
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आत्म साक्षात्कार के लिये जप भी, तप भी
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एम. ए. की परीक्षा देने के लिये, यह आवश्यक है कि पढ़ाई का प्रारम्भ कक्षा ‘एक’ से हो। वर्णमाला सीखे बिना अगली कक्षाओं में प्रवेश पाना कठिन होता है। एम. ए. पास छात्र को यह आवश्यकता भले ही न हो किन्तु यह निश्चित है कि पूर्व में क, ख, ग, का अभ्यास किये बिना कोई अन्तिम श्रेणी तक नहीं पहुँच सकता है।
रेल का ड्राइवर पहले प्रशिक्षण केन्द्र में रहकर गाड़ी चलाना सीखता है। हवा में उड़ने वाले पाइलट पहले धरती में जहाज चलाना सीखते हैं फिर क्रमशः ऊँची उड़ानों के लिये तैनात किये जाते हैं। कच्चा सिपाही जब तक युद्ध कला का भली, भाँति प्रशिक्षण प्राप्त नहीं कर लेता तब तक ‘रेंगरुट’ कहलाता है। सिपाही बनने का सौभाग्य प्रारम्भिक स्थिति को कुशलता पूर्वक पार करने और आगे की स्थिति का सही अनुभव मिल जाने पर ही उपलब्ध होता है।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रमिक विकास का सिद्धान्त कार्य करता है। ऐसा नहीं होता कि कोई मनुष्य पहले बुड्ढा होकर जन्म ले फिर बालक बन जाय और अन्तिम अवस्था में नवयुवक हो जाय। उदय से अस्त तक एक क्रमिक ढलान होती है। उसके अनुसार बर्ताव करने पर ही सुविधा पूर्वक किसी लक्ष्य की प्राप्ति होती है।
माता-पिता बालक को पहले घुटनों चलना सिखाते हैं। फिर उसकी एक उँगली पकड़कर चलाते हैं। जब बच्चा इस योग्य हो जाता है कि वह स्वतंत्र होकर चल फिर सके, तभी माता-पिता उसे बाहर जाने की अनुमति देते हैं। इसके पूर्व तो उसकी यात्रा गोद में, या किसी अन्य वाहन के माध्यम से ही होती है।
विद्यार्थी को प्रारम्भ में ही बी. ए., एम. ए. की पुस्तकें सौंप दी जाय, तो वह उन्हें केवल खेलने की वस्तु समझेगा। ड्राइवर को किसी पूर्व प्रशिक्षण के बिना मोटर चलाने को दे दिया जाय तो वह एक ही दिन में सैंकड़ों दुर्घटनायें कर बैठेगा। बच्चे को जन्म के एक साल बाद ही एक मील की यात्रा सौंप दी जाय, तो वह बालक के बूते पूरी न हो सकेगी। प्रारम्भिक भार से कितनी ही सरल साधना क्यों न हो, वह कर्त्ता को दबा देगी, ऊँचे उठाने के बजाय नीचे गिरा देगी।
आत्म-साक्षात्कार की साधना का अभ्यास भी क्रमेक पद्धति से होता है। सर्वं प्रथम पूजा में जप करना बताया जाता है। कई व्यक्ति इसे अनावश्यक, उपहासास्पद एवं काल्पनिक मानते हैं किन्तु आत्म साक्षात्कार के लिये जप प्रारम्भिक शर्त है उसके बिना ऊँची कक्षा में प्रवेश पाना कठिन पड़ता है।
जप साधना की पूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया है। शुरू-शुरू में यह बताया जाता है कि अमुक चित्र का, गायत्री माता या भगवान राम के चित्र का दोनों भौंहों के बीच ध्यान किया करो। उस ध्यान में इष्ट का साक्षात्कार भले ही न होता हो पर आत्म-विवेचन की, विचार-मंथन क्रिया उसी समय से प्रारम्भ हो जाती है। जापक का मन पहले पहल इधर-उधर दौड़ता है तो मन में विचित्र स्थिति उत्पन्न होती है। वह हर एक वस्तु को संदिग्ध रूप से देखने लगता है। हर वस्तु पर विचार की स्थिति का उदय होता है। यह वृक्ष कैसे उगा, पहाड़ कैसे बन गये, नक्षत्र क्या हैं, सूर्य क्या है, शरीर कैसे बना, इसका उद्देश्य क्या है, भावनायें कहाँ से उठती हैं, भोगों की इच्छा क्यों होती है- आदि अनेकों प्रकार के भाव-भ्रमर मस्तिष्क में उठते हैं और वस्तु स्थिति जानने की आकुलता पैदा करते हैं। इस प्रकार की जिज्ञासा का जन्म होना कक्षा एक की पढ़ाई है। आत्म साक्षात्कार की भूमिका वस्तु और संसार के प्रति कौतूहल का भाव पैदा होना होता है। जप इस प्रथम कक्षा के लिये उपयोगी ही नहीं आवश्यक भी है।
आत्मा की अनेक शक्तियों में मन का बल सबसे अधिक हैं। मन इन्द्रियों का शासन करता है। प्राण-वेधन और आत्म साक्षात्कार की साधनायें मन को पकड़ कर ही की जाती हैं इस लिये ध्यान की प्रक्रिया अत्यन्त आवश्यक है। ध्यान से मन की एकाग्रता बढ़ती है और मनुष्य लक्ष्यवेध के लिये तैयार होता है।
निग्रहीत मन में वह शक्ति और क्षमता होती है कि उसे जिस कार्य में प्रयुक्त किया जाय उसके अनेक गुण दोष अपने आप स्पष्ट होने लगते हैं और जिस दिशा में उसे मोड़ दिया जाता है उसका और उससे संबंधित अनेक प्रकार का ज्ञान ऐसे उपलब्ध करा देता है जैसे कोई दैवी शक्ति अन्तःकरण में संकेत द्वारा सारी स्थिति स्पष्ट करती चलती हो।
जप का अर्थ है कि मनुष्य विभिन्न दिशाओं में भटकते हुये मन को एक स्थान में एकाग्र करे और उसकी शक्ति को समेट कर रखे ताकि आगे का प्रयोजन सफलतापूर्वक पूरा होता चला जाय। यह ऐसे ही है जैसे रेलगाड़ी चलाने के पूर्व ड्राइवर उसमें भाप की पर्याप्त मात्रा पैदा कर लेते हैं। आत्म-साक्षात्कार की यात्रा के लिये भी निग्रहीत मन की शक्ति जरूरी है और उसकी एक मात्र प्रक्रिया ध्यान भी इस दृष्टि से परम आवश्यक है।
जप से किसी वस्तु को गहरी दृष्टि से देखने का अभ्यास होता है। हम प्रति दिन अनेकों ऐसे दृश्य देखते हैं जो मनुष्य जीवन पर विचार करने की तीव्र प्रेरणा देते है। किन्तु चूँकि घटनाओं के प्रति मनुष्य की दृष्टि बिल्कुल उथली होती है। इसीलिये घटनायें भी किसी उपयोग में नहीं आतीं पर जप का साधक प्रत्येक वस्तु को बड़े ध्यान से देखता है और “ऐसा क्यों हुआ?” यह प्रश्न कर स्वयं ही उसका उत्तर प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इस जानकारी के लिये तीव्र बेचैनी उत्पन्न करना वस्तुतः जप द्वारा तपाये मन का ही कार्य होता है।
उदाहरणार्थ एक मनुष्य का शव देखकर वह सोचता है यह मनुष्य क्यों मरा, कैसे मरा ? मर कर इसका क्या हुआ, मुझे भी जब मृत्यु आयेगी तो मेरी कैसी स्थिति होगी? आदि-आदि। इस दीर्घ दृष्टि के उदय होने पर तीव्र बेचैनी उत्पन्न होती है। साँसारिक भोगों के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने का यह प्रमुख साधन है। बुराइयों से हटकर ज्ञान की खोज का यह असामान्य तरीका है।
आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में दुष्प्रवृत्तियाँ सबसे अधिक बाधक है। तपश्चर्या का उद्देश्य मनुष्य को शील स्वभाव, सहृदय और सद्प्रवृत्तियों में रुचि लेने वाला बनाना होता है। इच्छाओं का स्वेच्छापूर्वक दमन करना सीख जाय तो पग-पग पर आने वाले इन्द्रिय प्रलोभनों से वह बच सकता है। तपश्चर्या से इन्द्रियाँ वशवर्ती होती है और विषयों पर मनुष्य का स्वामित्व होता है। आत्म-कल्याण के लिये यह स्थिति बहुत जरूरी है।
मनुष्य के जीवन में तप शक्ति का स्रोत माना जाता है। तपश्चर्या द्वारा मनोनिग्रह के साथ ही साथ शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल बढ़ता है। शक्ति का संचय जितनी द्रुतगति से होगा, आत्म-विकास की प्रक्रिया भी उतना ही शीघ्रगामी होगी।
शास्त्रकार ने कहा है “दिव मारुहत तपसा तपस्वी।” अर्थात् तप करो, बिना तप किये हुये आत्म दर्शन नहीं हो सकता है। तप का महत्व भारतीय संस्कृति में इसी लिये अत्यधिक है कि उससे सुषुप्त शक्तियों का विकास होता है।
जप और तप की महिमा का शास्त्रों में भंडार भरा पड़ा है। दोनों का महत्व एक दूसरे से बढ़ चढ़कर बताया गया है। दोनों ही आत्म-साक्षात्कार के दो आवश्यक अंग हैं। यह यज्ञ के समान बताये गये हैं और आत्मिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिये इनका अभ्यास आवश्यक बताया गया है।
जप मनोनिग्रह के उद्देश्य के लिये और तप शक्तियों के जागरण के लिये। इस प्रकार की स्थिति बन जाय तो आत्म-कल्याण की उच्च कक्षाओं में अग्रसर होना आसान हो जाता है। साधना की बढ़ती हुई कठिनता के अनुरूप शक्ति और सामर्थ्य जप और तप द्वारा पूरी होती है। साधना की इस वैज्ञानिक पद्धति को छोड़कर कोई भी व्यक्ति आगे नहीं बढ़ सकता।
इसलिये यह नहीं मानना चाहिये कि जप और तप व्यर्थ की बातें हैं, वरन् उनका प्रभाव मनुष्य जीवन पर तत्काल परिलक्षित होता है और उस प्रभाव के क्रमिक विकास द्वारा वह आत्मसाक्षात्कार की स्थिति तक जा पहुँचता है।
इस क्रम में और भी अनेकों प्रकार की साधनायें प्रयुक्त होती हैं, किन्तु उनका मूल जप और तप है। इन दो पहियों के सहारे ही आत्म-विकास की यात्रा पूरी होती है। इन्हें लक्ष्यवेध का मुख्य अंग मानकर अपनाना चाहिये।