Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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विचारों की शक्ति अपरिमित है।
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हम संसार में जो कुछ देखते हैं, हमें जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है वह सब विचारों का ही मूर्त रूप है। यह समस्त सृष्टि विचारों का ही चमत्कार है। जड़ चेतनमय जो कुछ चराचर जगत है उसको ऋषियों ने परमात्मा के विचारों का स्फुरण बतलाया है।
हमने आज तक जो कुछ किया है, जो कुछ कर रहे हैं और आगे भी जो कुछ करेंगे वह सब विचारों की ही परिणित होगी। प्रत्येक क्रिया के संचालक विचार ही होते हैं। बिना विचार के कोई भी कार्य सम्भव नहीं है।
इतने-इतने बड़े भवन, कल-कारखाने, पुल-बाँध आदि जो देखते ही मनुष्य को चकित कर देते हैं, सब मनुष्य के विचारों के फल हैं। कोई भी रचना करने से पूर्व रचनाकार के मस्तिष्क में तत्सम्बन्धी विचारों का ही जन्म होता है। विचार परिपक्व हो जाने पर ही वह सृजन की दिशा में अग्रसर होता है। विचार शून्यता मनुष्य को अकर्मण्य और निकम्मा बना देती है। जो कुछ कला-कौशल और साहित्य शिल्प दिखाई दे रहा है वह सब विचार-वृक्ष की ही उपज है।
किसी भी कार्य के प्रेरक होने से कार्य की सफलता-असफलता, अच्छाई-बुराई और उच्चता-निम्नता के हेतु भी मनुष्य के अपने विचार ही हैं। जिस प्रकार के विचार होंगे सृजन भी उसी प्रकार का होगा।
नित्य प्रति देखने में आता है कि एक ही प्रकार का काम दो आदमी करते हैं। उनमें से एक कार्य सुन्दर, सफल और सुघड़ होता है और दूसरे का नहीं। एक से हाथ-पैर, उपादान और साधनों के होते हुये भी दो मनुष्यों के एक ही कार्य में विषमता क्यों होती है? इसका एक मात्र कारण उनकी अपनी-अपनी विचार प्रेरणा है। जिसके कार्य सम्बन्धी विचार जितने सुन्दर, सुघड़ और सुलझे हुये होंगे उसका कार्य भी उसी के अनुसार उद्दात्त होगा।
जितने भी शिल्पों, शास्त्रों तथा साहित्य का सृजन हुआ है वह सब विचारों की ही विभूति है। चित्रकार नित्य नये-नये चित्र बनाता है, कवि नित्य नये काव्य रचता है, शिल्पकार नित्य नये मॉडल और नमूने तैयार करता है। यह सब विचारों का ही निर्माण है। कोई भी रचनाकार जो नया निर्माण करता है, वह कहीं से उतार कर नहीं लाता और न कोई अदृश्य देव ही उसकी सहायता करता है। वह यह सब नवीन रचनायें अपने विचार के ही बल पर करता है। विचार ही वह अद्भुत शक्ति है जो मनुष्य को नित्य नवीन प्रेरणा दिया करती है। भूत, भविष्यत् और वर्तमान में जो कुछ दिखलाई दिया, दिखलाई देगा और दिखलाई दे रहा है वह सब विचारों में वर्तमान रहा है, वर्तमान रहेगा और वर्तमान है। तात्पर्य यह कि समग्रत्रयकालिक कतृत्य मनुष्य के विचार पटल पर अंकित रहता है। विचारों के प्रतिबिंब को ही मनुष्य बाहर के संसार में उतारा करता है। जिसकी विचार स्फुरणा जितनी शक्तिमती होगी उसकी रचना भी उतनी ही सबल एवं सफल होगी। विचार-शक्ति जितनी उज्ज्वल होगी, बाह्य प्रतिबिंब भी उतने ही स्पष्ट और सुबोध होंगे।
मनुष्य की विचार पुटी में संसार के सारे श्रेय एक प्रेय सन्निहित रहते हैं। यही कारण है कि मनुष्य ने न केवल एक अपितु असंख्यों क्षेत्रों में चमत्कार कर दिखाये हैं। जिन विचारों के बल पर मनुष्य साहित्य का सृजन करते है उन्हीं विचारों के बल पर कल-कारखाने चलाता है जिन विचारों के बल पर आत्मा और परमात्मा की खोज कर लेता है, उन्हीं विचारों के बल पर खेती करता है और विविध प्रकार के धन-धान्य उत्पन्न करता है, व्यापार और व्यवसाय करता है। यही नहीं, जिन विचारों की प्रेरणा से वह संत, सज्जन और महात्मा बनता है उन्हीं विचारों की प्रेरणा से वह निर्दय अपराधी भी बन जाता है। इस प्रकार सहज ही समझा जा सकता है कि मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व में उसकी विचारशक्ति ही काम कर रही है।
एक दिन पशुओं की भाँति सारी क्रियाओं में पूर्ण मनुष्य आज इस सभ्यता के उन्नति शिखर पर किस प्रकार पहुँच गया? अपनी विचार-शक्ति की सहायता से। विचारशक्ति की अद्भुत उपलब्धि इस सृष्टि में केवल मानव को ही प्राप्त हुई है। यही कारण है कि किसी दिन पशुओं के समकक्ष मनुष्य आज महान उन्नत दशा में पहुँच गया है और अन्य सारे पशु-पक्षी आज भी अपनी आदि स्थिति में उसी प्रकार रह रहे हैं। पशु-पक्षी नीड़ों और निविड़ों में पूर्ववत ही निवास कर रहे हैं, किन्तु मनुष्य बड़े-बड़े नगर बनाकर अनन्त सुविधाओं के साथ रह रहा है। यह सब विचार-कला का ही विस्मय है!
विचारों के बल पर मनुष्य न केवल पशु से मनुष्य बना है वह मनुष्य से देवता भी बन सकता है। और विचारप्रधान ऋषि, मुनि, महात्मा और संत मनुष्य से देवकोटि में पहुंचे हैं और पहुँचते रहेंगे।
मनुष्य आज जिस उन्नत अवस्था में पहुँचा है वह एक साथ एक दिन की घटना नहीं है। वह धीरे-धीरे क्रमानुसार विचारों के परिष्कार के साथ आज इस स्थिति में पहुँच सका है। ज्यों-ज्यों उसके विचार परिष्कृत, पवित्र तथा उन्नत होते गये उसी प्रकार अपने साधनों के साथ उसका जीवन परिष्कृत तथा पुरस्कृत होता गया। व्यक्ति-व्यक्ति के रूप में भी हम देख सकते हैं कि एक मनुष्य जितना सभ्य, सुशील और सुसंस्कृत है अपेक्षाकृत दूसरा उतना नहीं। समाज में जहाँ आज भी सन्तों और सज्जनों की कमी नहीं है वहाँ चोर, उचक्के भी पाये जाते हैं। जहाँ बड़े-बड़े शिल्पकार और साहित्यकार मौजूद हैं वहाँ गोबर गणेशों की भी कमी नहीं है। मनुष्यों की यह वैयक्तिक विषमता भी विचारों, संस्कारों के अनुपात से परिमार्जित हो रहे हैं वह उसी अनुपात से पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बनता जा रहा है।
विचार-शक्ति के समान कोई भी शक्ति संसार में नहीं है। अरबों का उत्पादन करने वाले दैत्याकार कारखानों का संचालन, उद्वेलित जन-समुदाय का नियंत्रण, दुर्धर्ष सेनाओं का अनुशासन और बड़े-बड़े साम्राज्यों का शासन और असंख्यों जनता का नेतृत्व एक विचार बल पर ही किया जाता है, अन्यथा एक मनुष्य में एक मनुष्य के योग्य ही सीमित शक्ति रहती है, वह असंख्यों का अनुशासन किस प्रकार कर सकता है? बड़े बड़े आततायी हुकुमरानों और सुदृढ़ साम्राज्यों को विचार बल से ही उलट दिया गया। बड़े-बड़े हिंस्र पशुओं और अत्याचारियों को विचार बल से प्रभावित कर सुशील बना लिया जाता है। विचार-शक्ति से बढ़कर कोई भी शक्ति संसार में नहीं है। विचारों की शक्ति अपरिमित तथा अपराजेय है।
विचार एक शक्ति है, विशुद्ध विद्युत शक्ति। जो इस पर समुचित नियंत्रण कर ठीक दिशा में संचालन कर सकता है वह बिजली की भाँति इससे बड़े-बड़े काम ले सकता है। किन्तु जो इसको ठीक से अनुशासित नहीं कर सकता वह उल्टा इसका शिकार बन जाता है। अपनी ही शक्ति से स्वयं नष्ट हो जाता है अपनी ही आग में जलकर भस्म हो जाता है। इसीलिये मनीषियों ने नियंत्रित विचारों को मनुष्य का मित्र और अनियन्त्रित विचारों को उसका शत्रु बतलाया है।
समस्त शुभ और अशुभ सुख और दुःख की परिस्थितियों के हेतु तथा उत्थान पतन के मुख्य कारण विचारों को वश में रखना मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है। विचारों को उन्नत कीजिये उनको मंगल मूलक बनाइये, उनका परिष्कार एवं परिमार्जन कीजिये और वे आपको स्वर्ग की सुखद परिस्थितियों में पहुँचा देंगे। इसके विपरीत यदि आप ने विचारों को स्वतन्त्र छोड़ दिया उन्हें कलुषित एवं कलंकित होने दिया तो आपको हर समय नरक की ज्वाला में जलने के लिये तैयार रहना चाहिये। विचारों की चपेट से आपको संसार की कोई शक्ति नहीं बचा सकती।
विचारों का तेज ही आपको ओजस्वी बनाता है और जीवन संग्राम में एक कुशल योद्धा की भाँति विजय भी दिलाता है। इसके विपरीत आपके मुर्दा विचार आपको जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पराजित करके जीवित मृत्यु के अभिशाप के हवाले कर देंगे। जिसके विचार प्रबुद्ध हैं उसकी आत्मा प्रबुद्ध है और जिसकी आत्मा प्रबुद्ध है उससे परमात्मा दूर नहीं है।
विचारों को जाग्रत कीजिये, उन्हें परिष्कृत कीजिये और जीवन के हर क्षेत्र में पुरस्कृत होकर देवताओं के तुल्य ही जीवन व्यतीत करिये। विचारों की पवित्रता से ही मनुष्य का जीवन उज्ज्वल एवं उन्नत बनता है इसके अतिरिक्त जीवन को सफल बनाने का कोई उपाय मनुष्य के पास नहीं है।