Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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यह सृष्टि ही परमात्मामय है।
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जिस प्रकार कोई भी कला कृति अपने निर्माता के अस्तित्व तथा व्यक्तित्व को प्रकट करती है, उसी प्रकार यह सृष्टि भी अपने रचयिता, अपने शिल्पी, परमात्मा को व्यक्त करती है। जिसका निर्माण हुआ है उसका निर्माता अवश्य है। इसमें किसी प्रकार की शंका अथवा तर्क का कोई अवसर नहीं है।
यह समस्त सृष्टि एक सुनिश्चित रचना है। इस रचना का अणु-अणु एक निश्चित नियमावली से अनुशासित है, नियंत्रित है। हजारों प्रकार की वनस्पतियाँ और लाखों प्रकार के प्राणी अपने-अपने नियमानुसार बनते और बिगड़ते रहते हैं। पर क्या मजाल कि उसकी रचना में तनिक सी निन्दा अथवा गड़बड़ी हो जाये।
सूर्य समय पर निकलता, समय पर अस्त होता है। गुलाब के पौधे में गुलाब और गेंदे के पौधे में गेंदे के ही फूल खिलते हैं। आम के वृक्ष में आम और अमरूद के वृक्ष में अमरूद के ही फल लगते हैं। उसमें भी जिन वृक्षों से जिस प्रकार के फल अपेक्षित हैं उसी प्रकार के ही फल पैदा होंगे। एक रंग, एक आकार और एक स्वाद। खट्टे वृक्षों में खट्टे और मीठे फल ही उत्पन्न होंगे। निश्चित भूमि, निश्चित जलवायु और निश्चित ऋतु में ही वे उत्पन्न होंगे और निश्चित समय पर ही समाप्त होंगे।
एक जंगल में लाखों प्रकार की वनस्पतियाँ होती हैं। हजारों प्रकार के पेड़ एक के बाद एक उत्पन्न होते हैं, किन्तु उनकी एक पत्ती की बनावट में भूल नहीं होती। इमली से लेकर केले तक की पत्तियों का एक निश्चित आकार प्रकार होता है। एक पेड़ की पत्ती संसार के किसी दूसरे पेड़ की पत्ती से नहीं मिलती। उनमें कोई न कोई किसी प्रकार का थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य होगा। इतनी विविधता और इतने प्रकार जानने वाला वह कलाकार चैतन्य और कितना सामर्थ्य होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। विश्व की इतनी बड़ी रचना को देखकर और उसके संचालन की अविकार विधि देखकर ऐसा कोना अभागा होगा जो रचियता के अस्तित्व में संदेह करेगा।
किसी भी वृक्ष का बीज देखिये। उसके स्तर-स्तर अलग कर डालिये। उसका रेशा-रेशा चीर डालिये कहीं भी आपको वृक्ष का कोई आकार, उसकी कोई भी तस्वीर, उसका कोई भी अस्तित्व दृष्टिगोचर न होगा। कितना विलक्षण है, कितना अद्भुत है कि जब वह धरती में बो दिया जाता है तब उसमें विविध प्रकार के वृक्ष उत्पन्न हो उठते हैं। बीज मिट्टी में मिलकर वृक्ष को जन्म देता है। जब वृक्ष अस्तित्व में आता है तब बीज मिट चुका होता है। किन्तु पुनरपि वह वृक्षों द्वारा उत्पन्न फलों में अपना अस्तित्व, अपना स्वरूप प्राप्त कर लेता है। प्रकृति की यह प्रक्रिया कितनी विलक्षण, अद्भुत और विस्मयवर्धक है। ध्यानपूर्वक इसको देखने, विचार करने और मनन करने से इसके नियामक, निर्माता और पालनकर्ता का ध्यान आये बिना नहीं रहता। कैसा अखण्ड अनुशासन है कि एक ही मिट्टी से ईख मिठास, मिर्च कड़ुवाहट और करौंदा खटास प्राप्त करता है। मिट्टी को चखिये, उसमें इस प्रकार का कोई रस, कोई स्वाद आपको नहीं मिलेगा। इतने रस, इतने स्वाद और इतने गुण एक ही मिट्टी में कहाँ से आ जाते हैं? ये सारे रस, आकार-प्रकार, गुण आदि और कुछ नहीं एक उसी परमात्म शिल्पी का अपना व्यक्तित्व, अपना अस्तित्व है। वह स्वयं धरती है, स्वयं मिट्टी है, स्वयं बीज, वृक्ष और फल है। वह ही स्वयं रस, स्वाद और गुण भी है।
संसार में लाखों पशु-पक्षी और जीव-जन्तु मौजूद है। सब एक दूसरे से भिन्न। आकार प्रकार बनावट स्वभाव विचित्र। जितने प्रकार के पक्षी उतने प्रकार के रंग, उतनी प्रकार की बोलियाँ और उतने ही प्रकार के गुण व स्वभाव। इन सब बातों में इतनी अनन्तता, इतनी असीमता और अपरिमितता एक उसी विराट की याद दिलाती है।
रात-दिन, प्रकाश अन्धकार, गर्मी, सर्दी जल-थल आदि सब उसी की साक्षी देते हैं, उसी के अस्तित्व को प्रकट करते है। अग्नि जलाता है, पानी बुझाता है, वायु कम्पित करती हैं, जीवन जिलाता है और मृत्यु मारती है। किसके आदेश से किसके संकेत से? एक उसी बिन्दु की इंगित मात्र से ये सारे कार्य कलाप होते हैं, सारी प्रक्रियाएँ चलती हैं। बिना उसके संकेत के एक पत्ती भी नहीं हिल सकती, एक श्वाँस का भी आवागमन नहीं हो सकता!
इतनी बड़ी रचना, इतनी महान कृति को उसने किस उद्देश्य, किस हेतु से, किसके लिये निर्मित किया है? यह एक गहन प्रश्न है। एक गूढ़ रहस्य है। मनीषियों का मत है कि यह सब एक उस ही परमात्मा ने अपने से अपने में अपने लिए ही उत्पन्न किया है।
सृष्टि में हर ओर से ओत-प्रोत परमात्मा और परमात्मा में हर प्रकार से समाहित यह सम्पूर्ण रचना, मनुष्य के समझने के लिये है। समझ कर उस रचियता का ज्ञान प्राप्त कर आनन्द पाने के लिये है !
सृष्टि के प्रत्येक प्रत्यक्ष पदार्थ में जो अप्रत्यक्ष निराकार विस्मय है, विलक्षणता है, कुतूहल है, वही परमात्मा की एक झलक है। जिसके सहारे मनुष्य उस चिदानन्द परमात्मा तक पहुँचता है। अपना हृदय विशाल कीजिये। अपनी दृष्टि निर्मल कीजिये और देखिये आपको सृष्टि के प्रत्येक अणु में उस विराट बिन्दु की झाँकी देखने को मिलेगी !
परमात्मा सत्+चित्+आनन्द अर्थात् सच्चिदानन्द रूप है। उनका उद्देश्य प्राणी-मात्र को आनन्द प्रदान करना है। मनुष्य को छोड़कर संसार का हर प्राणी एक नैसर्गिक आनन्द को प्राप्त करता है! एक मनुष्य ही ऐसा है जो स्वतः आनन्दित नहीं दिखलाई देता। इसका स्पष्ट कारण यह है कि परमात्मा की इच्छा है कि वह उसके सम्पूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके आनन्द की अनुभूति प्राप्त करे! अर्थात्, केवल आनन्द नहीं सच्चिदानन्द परमात्मा की पूर्ण अनुभूति करे। सत्, चित् अर्थात् उसके अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त करके आनन्द की अनुभूति प्राप्त करे! अन्य पशु-पक्षियों की भाँति मनुष्य परमात्मा का ज्ञान प्राप्त किये बिना आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता। उसे सच्चा आनन्द तब ही प्राप्त हो सकता है, जब वह परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर ले!
अपनी इच्छा के अनुरूप ही उसने मनुष्य को उपादान भी दिये हैं। अद्भुत शरीर और विलक्षण विवेक बुद्धि। इनका उपयोग कर मनुष्य सहज की परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। अपनी विवेक शक्ति को विकृतियों से मुक्त कर मनुष्य यदि प्रत्यक्ष संसार को एक गहरी अनुभूति से देखे, उस पर चिन्तन करे तो सहज ही वह परमात्मा के अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य को आनन्द की खोज करने की आवश्यकता नहीं, वह तो सच्चिदानन्द परमात्मा से उत्पन्न इस आनन्द क्या, सृष्टि में स्वयं ही ओत-प्रोत है! मनुष्य को केवल अपनी अनुभव शक्ति को प्रबुद्ध भर करना है। अनुभव शक्ति के प्रबोध के लिये उसे कोई विशेष तपस्या अथवा साधना नहीं करनी है। वह एक विस्मय मूलक दृष्टि-कोण से उसकी रचना इस संसार को देखे और परम शिल्पी की परम रचना समझकर उसका सम्मान करे, इतना भर कर लेने से उसकी अनुभव शक्ति स्वतः प्रबुद्ध हो उठेगी, और एक बार प्रबुद्ध हो जाने पर वह शक्ति पुनः निहित नहीं होगी।
स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षी, पेड़ पौधे, फल-फूल जिसको भी देखें एक विस्मय और कुतूहल से देखता हुआ निर्माता की सराहना में गद्-गद् हृदय हुआ मनुष्य एक दिन बिना किसी विशेष साधन के परमानन्द को अवश्य पा लेगा!
अपने सहित सृष्टि के बाहर सच्चिदानन्द परमात्मा का अस्तित्व कल्पना करने वाले जन्म-जन्मान्तर उसकी अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकते। परमात्मा इस सृष्टि में ही है। सृष्टि में जो कुछ है वह सब उसी का स्वरूप है, उसी का अस्तित्व है।