Magazine - Year 1965 - Version 2
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Language: HINDI
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अर्थोपार्जन के आध्यात्मिक प्रयोग
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कुछ लोगों की ऐसी मान्यता है कि धार्मिक व्यक्ति को धन से विरक्ति होनी चाहिये। जहाँ तक आध्यात्मिक आनन्द की प्राप्ति का प्रश्न है धन के प्रति अत्यधिक लगाव न रखना उचित भी है किन्तु गृहस्थी की सुख-सुविधाओं के लिये, धार्मिक प्रयोजनों की पूर्ति के लिये, धन अत्यधिक आवश्यक वस्तु है, धन के बिना न धर्म संभव है न कर्त्तव्य पालन। इस दृष्टि से निर्धनता अभिशाप है। हमारे आध्यात्मिक जीवन में धन का उतना ही महत्व है जितना ईश्वर उपासना का। लक्ष्मी को परमात्मा का वामाँग मानते हैं। इसलिये उपासना को तब पूर्ण समझना चाहिये जब लक्ष्मी-नारायण दोनों की प्रतिष्ठा हो। जहाँ लक्ष्मी नहीं वहाँ का परमात्मा भी बेचैन रहता है। लक्ष्मी रहती है तो परमात्मा की प्राप्ति में सुविधा मिलती है, हमारी मान्यता इस प्रकार की होनी चाहिये।
आर्थिक दृष्टि से मनुष्य दूसरों का गुलाम बने यह न तो उपयुक्त ही है और न परमात्मा की ही ऐसी इच्छा है। उन्होंने अपने प्रत्येक पुत्र को समान साधन दिये हैं, समान क्षमतायें दी हैं तो उसका एक ही उद्देश्य रहा है कि आत्म-कल्याण और जीवन-यापन में प्रत्येक व्यक्ति आत्म निर्भर रहे। ईश्वरनिष्ठ को पराश्रित होना उचित भी नहीं, अपनी आजीविका का प्रबन्ध उसे स्वयं करना चाहिये।
निर्धनता एक प्रकार की आध्यात्मिक विकृति है। धन न कमाना त्याग का लक्षण नहीं। यह मनुष्य में दैवी गुणों की कमी का परिचायक है। हर व्यक्ति को विशुद्ध धार्मिक भावना से अर्थोपार्जन करना चाहिये। यह क्रिया आत्म-विकास के अंतर्गत ही आती है। “पीस पावर और प्लेन्टी” (शाँति, शक्ति और समृद्धि) नामक पुस्तक के रचयिता श्री ओरिसम मॉर्डन ने लिखा है - “जो दरिद्र होते हैं उनमें न आत्म-विश्वास होता है और न श्रद्धा। लोग अपनी स्थिति बदल सकते हैं पर उन्हें अपनी शक्तियों पर भरोसा करना आना चाहिये। आशा, साहस, उत्साह और कर्मशीलता के द्वारा कोई भी व्यक्ति श्री सम्पन्न बन सकता है।”
धन के सुख का साधन मानकर उसे ईमानदारी और परिश्रम के द्वारा कमाया जाय तो वह आत्म-विकास में भी सहायक होता है। धन प्राप्ति का एक दोष भी है अनावश्यक “लोभ”। वित्तेषणा के कारण लोग अनुचित तरीकों से धन कमाना चाहते हैं। बेईमानी के द्वारा कमाया हुआ धन मनुष्य को व्यसनों की ओर आकर्षित करता है। जुआ, सट्टा, लाटरी, नशा, वेश्यावृत्ति में धन का अपव्यय करने वाले प्रायः सभी अनुचित तरीकों से धनार्जन करते हैं। इस प्रकार की कमाई मनुष्य की दुर्गति करती है। इस तरह का धन हेय कहा गया है और उस धन से निर्धन होना ही अच्छा बताया गया है।
अर्थोपार्जन में जिन आध्यात्मिक गुणों का समावेश होना चाहिये शास्त्रकार ने उन्हें बड़े अलंकारिक ढंग से प्रस्तुत किया है। लक्ष्मी को वे देवी मानते हैं। उन्हें कमल पुष्प पर आसीन, ऊपर से फूलों की वर्षा होती हुई दिखाया गया है। कमल पवित्रता और सौंदर्य का प्रतीक है। लक्ष्मी पवित्रता और सौंदर्य अर्थात् ईमानदारी और सच्चाई पर विराजमान हैं। उनका वाहन उल्लू है। उल्लू मूर्खता का प्रतीक है। मूर्खतापूर्ण स्वभाव वाले या अवगुणी व्यक्तियों के लिये यह लक्ष्मी भार स्वरूप, दुःख रूप होती है। यह दिग्दर्शन उनके चित्र में कराया गया है।
मनुष्य किस प्रकार समृद्ध बने इसका आध्यात्मिक विवेचन शास्त्रकार ने स्वयं लक्ष्मी जी के मुखारविन्द से कराया है। वर्णन भले ही अलंकारिक हो पर उसमें जिन सिद्धान्तों का समावेश हुआ है वे अटल हैं। उनकी उपेक्षा करने से कोई भी व्यक्ति न तो धनी हो सकता है और न उस धन से सुख, शाँति और संतोष ही प्राप्त कर सकता है।
एक साधक के प्रश्न का उत्तर देती हुई लक्ष्मी जी कहती है-
वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे
दक्षे नरे कर्मण वर्त्तमाने।
अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे,
जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्ण सत्वे॥
अर्थात् - “मैं सुन्दर स्वभाव वाले, चतुर मधुरभाषी, कर्त्तव्यनिष्ठ, क्रोधहीन, भगवत्परायण, कृतज्ञ, जितेन्द्रिय और बलशाली लोगों के पास नित्य निवास करती हूँ।”
धन का कमाना, उसे बचाकर रखना और उससे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति उपरोक्त गुणों पर आधारित है। उनमें से एक भी उपेक्षणीय नहीं। रोजगार करें या नौकरी, खेती करें या अन्य कोई रोजगार चतुरता, विनम्रता, कर्त्तव्य-परायणता आदि सभी गुण चाहिये। बात-बात पर झगड़ा करने, कर्त्तव्य की उपेक्षा करने या अपने सहयोगियों से मिलकर न रहने से न तो रोजगार पनप सकता है और न कोई अधिक देर तक नौकरी में ही रख सकता है।
लक्ष्मी के दूसरे कृपापात्र परिश्रमी व्यक्ति होते हैं। जब कोई व्यक्ति उद्योग-धंधा, व्यापार या परिश्रम त्याग देता है तो उसके पास की लक्ष्मी नाराज होकर लौट जाती है। “उद्योगिनं पुरुषं सिंह मुपैति लक्ष्मीः” की कहावत प्रसिद्ध है। धनाभाव होना यह बताता है कि वह व्यक्ति परिश्रम नहीं कर रहा। उद्योगी और परिश्रमी व्यक्ति सदा समृद्ध देखे जाते हैं।
परिश्रम और उद्योग करते हुये अनैतिक रास्तों का अनुकरण भी नहीं करना चाहिये अन्यथा ऐसे बखेड़े, झगड़े, या आपत्तिपूर्ण अवसर आ जायेंगे जिससे बढ़ी हुई आय कुछ ही दिनों में नष्ट हो जायगी। एक अनय सूक्त में कहा है-
स्थिता पुण्यवताँ गेहे सुनीति पथवे दिनाम्।
गृहस्थानाँ नृपाणाँ वा पुत्रवत्पालयामि तान्॥
अर्थात्-” मैं नीति पर चलने वाले, पुण्य कर्म करने वाले गृहस्थों के घर बनी रहती हूँ और उनका पुत्र के समान पालन करती हूँ।”
कुछ व्यक्तियों की “जो मिला सो खर्च कर डाला” की आदत होती है। वे धन को वासनाओं और व्यसनों की पूर्ति में बर्बाद करते हैं। जो व्यक्ति केवल आज की चिन्ता करता है, कल की बात नहीं सोचता इन्द्रिय सुखों और वासनात्मक तृप्ति के लिये आमदनी से अधिक, कर्ज लेकर खर्च करता रहता है, धन उनके लिये अभिशाप बन जाता है। सजा के रूप वे शारीरिक रोग, द्वेष, शत्रुता, व्यसन, पारिवारिक कलह, दुर्गुण, व्यभिचार, चिन्तायें, बुरी आदतें, उद्दण्डता, अहंकार, तृष्णा आदि के शिकार बने रहते हैं।
धन, समृद्धि चाहने वालों के जीवन में आचरण उत्कृष्टता अनिवार्य है। उनका नैतिक एवं चारित्रिक जीवन जितना उद्दात्त होगा, वे उतनी ही तेजी से आर्थिक प्रगति करेंगे किन्तु धन के साधक में व्यक्तिगत मैलापन भी नहीं चाहिये। कमल पवित्रता के साथ सौंदर्य का भी प्रतीक है। सौंदर्य का अर्थ मनुष्य का शारीरिक स्वास्थ्य और स्वच्छता है। लक्ष्मी के प्रिय पात्र बनने के लिए व्यक्तिगत आचरण, रहन-सहन, खान-पान में भी स्वच्छता, सरलता और सादगी होनी चाहिये। लक्ष्मी जी कहती हैं-
कुचैलिनं दन्तलोपधारिणं
वध्वाविंन निष्ठुर भाषिणं च।
सूर्योदये चास्तमिते शयानं।
जहाति लक्ष्मीर्यदि शार्गंपाणिः॥
अर्थात्- “गन्दे वस्त्र पहनने वाले, दांतों की सफाई न करने वाले, निष्ठुर भाषण करने वाले, जो सूर्योदय के पूर्व उठें नहीं और सूर्यास्त के समय सोते हों ऐसे व्यक्ति चाहे वह भगवान ही क्यों न हों लक्ष्मी जी उन्हें छोड़ जाती हैं।”
लक्ष्मी जी के चित्र, आसन, वाहन आदि में अलंकारित रूप में ऐसे ही आध्यात्मिक गुण पिरोये हुये हैं। जो इन रहस्यों को जानकर धन-प्राप्ति के लिए प्रयत्न करता है उस पर लक्ष्मी जी अनुग्रह करती हैं और वह आर्थिक समृद्धि द्वारा अपने सुख और सन्तोष को बढ़ाता है। इस प्रकार नीतिपूर्वक श्रम और ईमानदारी से कमाया हुआ धन मनुष्य की आध्यात्मिक उन्नति में बड़ा सहायक होता है। इन नैतिक मूल्यों का कभी उल्लंघन न करें तो यह धन मनुष्य के बड़े काम का है। उससे मनुष्य की सर्वतोन्मुखी प्रगति होती है।