Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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कर्म-योग संबंधी भ्रान्तियाँ और उनका निराकरण
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लोक-परलोक में कल्याण के लिए शास्त्रों और मुख्यतः गीता में, मनुष्य मात्र को अनासक्त कर्मयोग का उपदेश किया गया है। निःसन्देह अनासक्त कर्मयोग कल्याण का बहुत बड़ा रहस्य है। यह एक ऐसा जीवन दर्शन है, कर्म करने की ऐसी पद्धति है जिसका अनुसरण करने से मनुष्य के लिये लोक अथवा परलोक में कोई भय नहीं रहता। किन्तु इस अनासक्त योग के विषय में बहुत-सी भ्राँतियाँ और शंकायें सामने आती है। इनका समाधान किये बिना इस योग को न ठीक से समझा जा सकता है और न उचित रीति से उनका अनुसरण ही किया जा सकता है। अस्तु, इस महत्वपूर्ण योग को ठीक-ठीक समझ लेना नितान्त आवश्यक है।
प्रायः लोग इस अनासक्ति कर्मयोग का आशय यह समझते है- “चूँकि मनुष्य की अपनी शक्ति सामर्थ्य कुछ भी नहीं है वह विश्व-ब्रह्माण्ड की एक सामान्य इकाई मात्र है। मनुष्य के व्यक्त अथवा अव्यक्त किसी कर्म का हेतु, प्रेरक और संचालक भी वही एक परमात्मा ही है। मनुष्य की न तो अपनी कोई प्रेरणा है और न कर्म’ उसके सारे कर्म और सारी क्रियाएं उसकी इच्छा, प्रेरणा और शक्ति द्वारा सम्पादित होती है।
अनेक लोग कर्मों के साथ अनासक्ति का अर्थ यह लगाते हैं कि ‘जो भी काम किये जायें असम्बन्ध एवं निरपेक्ष भाव से किये जाये। वे किये तो जाये पर उनसे और उनके परिणाम से कोई सम्बन्ध न रखा जाये। यन्त्र प्रवृत्ति से उनका प्रतिपादन कर दिया जाये। कुछ लोग इससे थोड़ा आगे बढ़ कर इस प्रकार मान लेते हैं कि अपना कर्तव्य तो करते रहा जाये लेकिन उसके परिणाम की चिन्ता न की जाये।
बहुत से अतिवादी लोग तो यहाँ तक बढ़ जाते हैं कि हम जो भी काम करते हैं वह वास्तव में हम नहीं करते। हमसे कराये जाते हैं और वह कराने वाला परमात्मा है। हमारे द्वारा होने वाला अच्छा है। या बुरा इसकी न तो हमें चिन्ता करनी चाहिए और न अपने ऊपर उत्तरदायित्व ही लेना चाहिये। उन सबका उत्तरदायी वह कराने वाला ईश्वर ही है।
इस प्रकार अनासक्त कर्मयोग के सम्बन्ध में न जाने कितनी भ्राँतियाँ लोगों के मस्तिष्कों में चला करती हैं। अनासक्त कर्मयोग के सम्बन्ध में सारी धारणायें भ्राँतिपूर्ण है।
यह बात सही है मनुष्य इस विश्व ब्रह्माण्ड की एक इकाई है और उस परमात्मा रूप चेतन सत्ता से संचालित होता है फिर यह मानना कि मनुष्य का हर काम उसी की प्रेरणा से होता है, उसको कराने वाला वही है। मनुष्य तो एक यन्त्र मात्र है, जैसा संचालित कर दिया जाता है वैसा चल पड़ता है, जिधर चला दिया जाता है चल पड़ता है। इस मान्यता में सामान्य रूप से दो बाधायें हैं- एक तो यह कि वह सत्य शिव और सुन्दर परमात्मा किसी मनुष्य से कोई गलत काम नहीं करा सकता और यदि वह कराता है तो उसका दण्ड मनुष्य को नहीं मिलना चाहिए। लेकिन तथ्य इसके विपरीत दृष्टिगोचर होता है। जो भी मनुष्य कोई गलत या बुरा काम करता है तो देर सवेर उसे उसका दण्ड मिलता है। यह बात किसी प्रकार भी समझ में आने योग्य नहीं है कि एक ओर तो वह परमात्मा गलत काम कराता है और दूसरी ओर दण्ड देता या दिलाता है। परमात्मा, जो कि इस समस्त जड़ चेतन संसार का पालक संचालक और स्वामी है, ऐसा अन्याय परायण नहीं हो सकता।
दूसरी धारणा है- कर्म तो किये जायें पर असम्बन्ध अथवा निरपेक्ष भाव से। यह धारणा भी आयुक्त एवं भ्राँतिपूर्ण है। जो कार्य असम्बन्ध भाव से किया जायेगा उसमें किसी प्रकार की अभिरुचि अथवा तत्परता न रह सकेगी। जिस काम में अभिरुचि तथा तत्परता न रहेगी, जो ऊपरी मन से यों ही असंलग्न प्रवृत्ति से किया जायेगा वह न तो ठीक से किया जा सकता है और न उसका परिणाम ही उपयुक्त होगा। ऊपरी मन से अस्त−व्यस्त ढंग से किये गये काम का परिणाम असफलता के रूप में ही सामने आयेगा, जबकि संसार में न तो कोई कार्य असफलता के लिए किया जाता है और न संसार का काम असफलताओं से चल सकता है। सारे कार्य सफलताओं के लिए हो किये जाते हैं और कार्यों की सफलता पर ही व्यक्ति तथा संसार की प्रगति तथा उन्नति निर्भर है। कार्यों तथा संसार को प्रगति तथा उन्नति निर्भर है। कार्यों में सफलता तभी मिलती है जब वे संलग्नता तथा तत्परता पूर्वक किये जाते हैं। इसलिए अनासक्त कर्म-योग का यह अर्थ लगाना कि सारे कार्य असम्बन्ध भाव से परिणाम की चिन्ता किये बिना किये जाये सर्वथा असंगत तथा अनुपयुक्त है।
कर्मा कर्म का दायित्व अपने ऊपर न मानकर परमात्मा पर मानना भी अनासक्त कर्म-योग का गलत अर्थ लगाना है। इससे मनुष्य का दुःसाहस बढ़ेगा और वह पाप-पुण्य की मान्यता के प्रति धृष्ट हो उठेगा। अपनी पतनोन्मुख प्रवृत्तियों के कारण अपकर्मों में ही लग सकता है जिससे संसार में भयानक अव्यवस्था तथा अनैतिकता फैल सकती है! किसी भी उत्तरदायित्व हीन व्यक्ति से सत्कर्म की आशा नहीं की जा सकी! इस आशय के साथ भगवान् कृष्ण तथा अन्य ऋषि मुनियों ने अनासक्त कर्म-योग का उपदेश किया होगा ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
कर्तव्य में तत्परता और फल की ओर से उदासीनता-अनासक्त कर्म-योग का ऐसा अर्थ लगाने वाले भी गलती पर माने जायेंगे। सफलता, असफलता और लाभ-हानि का दृष्टिकोण रखे बिना कार्यों में तत्परता की बात कहना मनोवैज्ञानिक विरोध है। सुफल को लक्ष्य करके ही कोई कार्य किया जाता है और तभी उसमें तत्परता भी आती है! जिन कार्यों के फलों से कोई प्रयोजन न होगा, वे कुशलता पूर्वक किये ही नहीं जा सकते! कार्य में सफलता तो मनुष्य का ध्येय होता ही है, असफलता से भी निष्प्रयोजन नहीं रह जा सकता। यदि ऐसा होगा तो असफलता के कारणों और उनको दूर करने के उपायों को खोजने की प्रवृत्ति ही न होगी, जिससे बार-बार असफलता ही हाथ आयेगी जो किसी प्रकार भी वाँछनीय नहीं हो सकती।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब अनासक्त कर्म-योग का आशय यह भी नहीं है वह भी नहीं है तब आखिर उसका वास्तविक आशय है क्या? अनासक्त कर्म-योग का वास्तविक आशय इस प्रकार समझना होगा-
कर्म सम्बन्धी यह उपदेश दो शब्दों, द्वारा बहन कराया गया है- एक ‘अनासक्त’ और दूसरा ‘कर्म-योग’। अनासक्ति का आशय है राम न रखना। आप कोई कितना ही बड़ा अथवा छोटा काम क्यों न करें उसके प्रति अपनेपन की भावना न जोड़िये। ऐसा करने से उस कर्त्तृत्व में अहंकार का समावेश होगा। बार-बार यह विचार आये कि अमुक कार्य मैंने सम्पादित किया है, मैं एक कुशलकर्त्ता अथवा कर्तृत्ववान व्यक्ति हूँ। अहंकार की भावना क्या व्यक्ति और क्या समाज दोनों के लिये हानिकारक है। “पाप मूल अभिमान”- अहंकार को सभी पापों की जड़ बतलाया गया है। जब किसी कार्य में आसक्ति नहीं होगी तब उसके प्रति अहंकार भी नहीं होगा। अहंकार की उत्पत्ति आसक्ति से ही होती है और आशक्ति वहीं होती है जहाँ अपनेपन का भाव होता है अस्तु कर्मों में अकर्तापन का भाव रखता ही अनासक्ति है। यह एक अध्यात्मिक अनुशासन तथा नम्रता है।
निखिल ब्रह्माण्ड की चेतन सत्ता के अधीन होने से हम सब को सारी शक्ति, जिसके आधार पर कर्म करने में समर्थ हैं, उसी की है। अस्तु, अपने कर्मों का कर्त्ता अपने को मानकर उस मूल सत्ता परमात्मा को मान लेने में जहाँ एक ओर अपना कल्याण है वहाँ दूसरी ओर सत्य को स्वीकार करने की नैतिकता भी है।
दूसरा शब्द है “कर्मयोग”-इसका स्पष्ट अर्थ स्वयं भगवान् ने गीता में दे दिया है- “योगःकुर्मसु कौशलम्”- कर्म में कुशलता ही योग है। कार्य कुशल वही हो सकता है। जो अच्छी तरह से जानता हो कि कौन-सा काम करने योग्य है और कौनसा करने योग्य नहीं हैं। जो कार्य की प्रकृति ही नहीं समझ सकता वह कार्यकुशल कैसा? कार्य कुशलता की पहली शर्त है कार्य प्रकृति उसकी जाति जानना, दूसरी शर्त है उसके निष्कर्ष अथवा परिणाम का अनुमान कर सकना साथ ही कुशल शब्द के अंतर्गत शिव, शुभ तथा सुन्दर का भी भाव प्रवाहित होता है। अस्तु कार्य कुशलता के क्षेत्र में अशुभ कर्मों के आने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसके अंतर्गत शुभ तथा कल्याणकारी काम ही आते हैं।
अब कुशलता का अर्थ निपुणता भी है। कर्म-योग का तात्पर्य तभी पूरा हो सकता है जब कोई भी कार्य निपुणता पूर्वक किया जाये, निपुणता तब तक नहीं आ सकती जब तक वह पूरी तन्मयता, शक्ति और एकाग्रता से नहीं किया जायेगा। इस प्रकार सम्पूर्ण योग्यताओं के साथ किये गये कार्य में सफलता की आशा की जा सकती है। असफलता की नहीं। तथापि पूर्ण प्रयत्नों तथा प्रतिभाओं के बावजूद भी प्रारब्ध, संयोग अथवा किसी परिस्थितिवश असफलता भी मिल सकती है उसके लिए पुनः अनासक्ति का निर्देश प्रस्तुत है।
अनासक्त कर्म-योग का वास्तविक तात्पर्य यह है कि किसी भी काम को पूरी कुशलता के साथ कर्तापन का अभिमान छोड़ कर दिया जाये और उसके फल से निर्लिप्त, निस्पृह अथवा अनासक्त रहा जाये, जिससे न तो सफलता का अभिमान हो और न असफलता में निराशा अथवा निरुत्साह और शायद अनासक्त कर्म-योग का यही तात्पर्य अधिक से अधिक निभ्रांत एवं समीचीन है।