Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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बन्धन-मुक्ति
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वर्षा ऋतु अभी समाप्त होकर ही चुकी थी, इसलिये गाँव-गोठ को जाने वाले मार्ग स्पष्ट नहीं हो पाये थे, रास्तों में पड़ने वाली चौगान घास से ढके थे, तो वन्य प्रदेश में अनेक नये वृक्ष आने से मार्ग के चिह्न नष्ट हो गये थे। ‘नौ दिन चल अढ़ाई कोस’ आचार्य उपकौशल आधी यात्रा भी पूरी न कर सके थे कि साँझ हो गई। पीछे का गाँव पीछे रह गया आगे का कुछ ठिकाना नहीं था, निदान रात बन-प्रदेश में ही एक पीपल वृक्ष के नीचे काटनी पड़ी। आचार्य उपकौशल लकड़ियाँ एकत्र कर आग जलाने के उपक्रम में जुट गये।
कंदमूल भूनकर उपकौशलाचार्य ने भूख मिटाई, थकावट दूर करने के लिये आग के समीप ही दोनों घुटने छाती से लगाकर लेट गये। दिन भर के हारे थके उपकौशल नींद आ गई, पर अभी रात्रि का प्रथम प्रहर ही बीता था कि एक रौद्र आवाज ने उन्हें जगाकर बैठा दिया। उपकौशल को ऐसा लगा कोई हिंसक जन्तु आ गया है। आग में थोड़ी लकड़ियाँ और डाली, थोड़ा प्रकाश तेज हुआ। आचार्य प्रवर ने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, कहीं कुछ दिखाई दे किन्तु सर्वत्र घनघोर नीरवता, कहीं कहीं कोटरों में छिप पक्षियों की चीं-चीं सुनाई दे जाती थी तो यदाकदा दूर के किसी गाँव से कुत्तों के भौंकने का स्वर ऐसा लगता था जिस तरह प्रलय काल में सारा विश्व आकाश-भूत हो जाता है उसी प्रकार आज सारी सृष्टि अन्धकार भूत हो गई।
आवाज किसी की थी? कहाँ से आई? उपकौशल इसी उधेड़-बुन में थे कि उन्हें ऐसा लगा मानों उनके पीछे कोई खड़ा कराह रहा है, उसकी पीड़ा के स्वर में भी कर्कशता थी आचार्य प्रवर ने प्रश्न किया- आप कौन है? प्रगट क्यों नहीं होते?
आर्य श्रेष्ठ! आप तो गूढ़ विद्याओं के ज्ञाता है, आप सब कुछ जानते हैं, प्रेत-योनि में पड़ा मैं घूमस आपके समक्ष कैसे प्रकट हो सकता हूँ, आपके ब्रह्म तेज के समक्ष तो बैताल राज भैरव भी नहीं आ सकते मैं कैसे आ सकता हूँ? क्षमा करें मैंने आपको नींद से जगा दिया, देव! क्या करूं इस अधम योनि में रहते बहुत समय बीत गया, इस मार्ग से कोई लोग आये मैंने अनेक लोगों से मुक्ति का उपाय पूछना चाहा पर यहाँ जो भी आया मेरी आवाज से ही भयभीत हो गया। मैं जानता हूँ आपके लिये संसार में आत्मा के अतिरिक्त कुछ है कि नहीं मैंने सुना है आत्मा-साक्षात्कार के लिये योगी के लिये मनुष्य किंवातिर्यक योनियों में कुछ भी भेदभाव नहीं दिखता, सुना है उन्हें शेर हो या सर्प, चिड़िया हो या मछली सबसे आत्मवत् प्रेम करते हैं यदि यह सत्य है तो कल्याण की इच्छा से शरणागत हुये मुक्त धूमस को भी प्रेत-योनि से छूटने का मार्ग बताइये?
गुरु-गम्भीर वाणी में आचार्य उपकौशल बोले- अवुस! जीव स्वकर्म वश नाना योनियों में पड़ता और दुःख भोगता है छुटकारा कोई और नहीं दिला सकता मनुष्य का पश्चाताप, पापों से निवृत्ति और सत्कर्मों में सद्गति ही उसे बन्धन मुक्त कर सकती है मैं तुम्हें आत्म कल्याण का रहस्य समझा सकता हूँ। क्या तुम बताओगे तुम्हारी इस प्रेत योनि में आने का कारण क्या है?
आर्य श्रेष्ठ! घूमस ने बताना प्रारम्भ किया मेरे पिता संग्रह वृत्ति के व्यक्ति थे जिन्होंने अपना सारा ध्यान उचित अनुचित तरीके से धन कमाने में लगाया, लोक-सेवा के किसी काम में तो क्या परिवार के किसी व्यक्ति के दुःख कष्ट में भी वे पैसा कंजूसी से खर्च करते, मैं उनका इकलौता पुत्र था। मुझसे उनकी प्रबल आसक्ति थी, सारा धन कुझे छोड़कर वे काल-कवलित हुये। युवावस्था में बिना परिश्रम अपार धन पाकर मेरी इन्द्रिय- दुर्बलताएं जाग पड़ीं। अपनी पत्नि से कामवासना तृप्त न हुई तो वेश्यावृत्ति में पड़ गया। शराब और मांसाहार जैसी बुराइयां मेरे पीछे पड़ गई। इन्द्रिय भोग ही मेरी जीवन का साध्य बन गया। वासनाओं के कारण शरीर जितना क्षीण होता गया मन की वासना उतना ही तीव्र होती गई। मृत्यु के क्षण भी मुझे निद्रा न आई वह तृष्णायें, वासनायें अब तक पीड़ित किये है, शरीर न होने से न तो मैं इच्छायें तृप्त कर सकता हूँ और न ही मन चैन लेने देता है इसी दुर्गति में पड़ा घोर कष्ट के दिन बिना बिता रहा हूँ।”
तुम ठीक कहते हो घूमस! उपकौशलाचार्य ने बताया मानव-मन की दुर्बलता ही पतन का कारण होती है किन्तु तात! यह मन ही मुक्ति दाता भी है। मनुष्य समझ नहीं पाता प्रारम्भ में उसे जिह्वा इन्द्रिय आकर्षित करती है तब वह प्राकृतिक आहार लेना छोड़कर केवल स्वाद के लिये अन्न खाने लगता है। मनुष्य प्रकृति द्वारा दिये गये आहार से ही अपने शरीर रथ को गतिशील बनाये रखने में समर्थ हो सकता है पर जिह्वा का अभ्यास उसे अप्राकृतिक भोजन के लिए ललचाता है। तात! पक्षी फल-फूल खाकर जिन्दा रहते हैं, नीरोग जीवन जीते हैं, वन्य पशु घास खाकर जिन्दा रहते हैं मन का अभ्यास है जो रस लेने लगे तो मिट्टी में भी मधुरता आ जाये, जब उसे अप्राकृतिक आहार मिलने लगता है तो वासनायें उस जीवन तत्व को और भी नष्ट करती है। वासनाओं से तृप्ति तो होती नहीं इन्द्रियों के समीपवर्ती परमाणु गतिशील हो उठते हैं फलस्वरूप भोगे हुए विषय बार-बार याद आते हैं मनुष्य उन्हें बार-बार भोगने से मन की गति को दूषित कर लेता है। दूषित मनोगति आत्मा को साँसारिक सुखों में ही चक्कर काटने को विवश करती है तुम्हारे साथ यही हुआ। तुमने अपनी आत्मा की आग को वासनाओं की तुषार से ठण्डा कर दिया। यह विज्ञानमय शरीर इसलिये मिला था कि विराट् विश्व को वास्तविकता की अनुभूति करते और अपने सीमित अहंभाव को विराट् में प्रतिरोपित करते हैं और अपने सीमित अहंभाव को विराट् में प्रतिरोपित कर ऐश्वर्य का आनन्द लेते पर मन की दुर्गति ने जीवन लक्ष्य से भ्रष्ट कर दिया तात! पतन के गर्त में पड़ी आत्मा के सुधार का एक ही उपाय है कि वह अपने जीवन की गति विपरीत दिशा में मोड़े अर्थात् आहार संयम करे, अपने प्राणों को प्राणवान् द्वारा प्रखर बनाये अमूल्य मनुष्य शरीर परमात्मा किस लिये देता है। उस उद्देश्य को समझ कर अपनी क्षमताओं को आनन्द प्राप्ति की साधनाओं में नियोजित करे तभी आत्मा का पुनरुद्धार हो सकता है तात! किसी की कृपा हो सकती है तो इतनी ही कि वह मार्ग-दर्शन करदे। अन्ततः प्रायश्चित और आत्म-कल्याण का पता तो स्वयं ही करना पड़ता है।
आचार्य प्रवर की ज्ञान युक्त बातें सुनते सुनते घूसम को नींद आ गई। प्रातः काल ही चली थी, भगवती उषा का आगमन हो चुका था आचार्य प्रवर अपनी अगली यात्रा की तैयारी में चल पड़े घूमस भी अगली जीवन यात्रा में निकल पड़ा प्रेत योनि में नींद आना पुनर्जन्म की तैयारी होती है। घूमस ने अब एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया, उपकौशल के उपदेश उसके हृदय में बस चुके थे उसने बाल्यावस्था से अपना मन आत्म-कल्याण की साधनाओं में लगाया पाँचों कोशों का अनावरण करते हुए उसने आत्म-साक्षात्कार किया और लौकिक बन्धनों से मुक्ति पाई।