Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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सत्य बनाम तथ्य
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सत्य का अर्थात् है यथार्थता। जो बात जैसे ही उसे उसी रूप में समझना, मानना और प्रयुक्त करना सत्य की साधना है। दुर्भाग्य से हम इन दिनों बनावट, विडम्बना, भ्रान्ति, दुर्बुद्धि से भरे युग में रह रहे हैं। अज्ञान भरे अन्धकार युग ने कुछ ऐसा कृत्रिम वातावरण बना रखा है जिससे बरसात की काली घटाओं में छिपे हुए सूर्य की तरह सत्य की एक प्रकार से छिपा सा ही दिया। छल और कृत्रिमता का दूसरा नाम ही सभ्यता पड़ गया है, जो जितनी कृत्रिमता बरता सकता है वह उतना ही बड़ा सभ्य और कलाकार माना जाता है। पिछली शताब्दियों और सहस्राब्दियों से असत्य एवं कृत्रिमता की आराधना में मानवीय मस्तिष्क संलग्न रहे हैं और अब वह उपार्जन इतना विशालकाय, इतना सघन और प्रचलित हो गया है कि आमतौर से उसे ही सत्य माना जाने लगा है। आज सामान्य बुद्धि के लिए यह ढूंढ़ निकालना अति कठिन है कि प्रचलित मान्यताओं, प्रथा परिपाटियों, विश्वासों रीति-नीतियों एवं विचारणाओं में सत्य का कितना अंश है।
जिस कसौटी पर यथार्थता को फला जा सकता है वह विवेक। विवेक उस साहस का नाम है जिसके आधार पर बहु प्रचलित मान्यताओं की उपेक्षा करके भी सच्चाई को ढूंढ़ निकालने की भावना उत्पन्न होती है। यही भावना है जिसके आधार पर कोई व्यक्ति सत्य का दर्शन कर सकता है। जो यह सोचता है कि समाज का वर्तमान प्रचलन ही ठीक है और उसी का समर्थन ठीक है तो फिर उसके लिए सोचने और ढूंढ़ने के सारे रास्ते ही बन्द हो जाते हैं। ग्रचलन के ढर्रे से लुढ़कते लुढ़कते अभ्यास परिपाटी के प्रति मनुष्य को मोह उत्पन्न हो जाता है, उसी के साथ पक्षपात जुड़ जाता है। अपनी यह दुर्बलता समझ में भी नहीं आती। लगता है हम जो सोचते हैं वही सत्य है, जो करते हैं वही सत्य है, जिस रास्ते पर चल रहे हैं वही सत्य है। विभिन्न व्यक्ति अपनी प्रचलित परिपाटियों और रीति-नीतियों को सत्य मानने लगते हैं। चूँकि सत्य का निरूपण तो किसी ने किया नहीं अपनी-अपनी परिपाटियों को ही सत्य मान लिया है, इसलिए उनकी मान्यताएं स्वभावतः एक दूसरे से भिन्न अथवा विपरीत होती है। इस भिन्नता एवं विपरीतता को स्वभावतः वे वर्ग नापसन्द करते हैं, कई बार घृणा भी करते हैं और यदि असहिष्णुता की मात्रा अधिक हुई तो परस्पर संघर्ष भी खड़ा हो जाता है। एक दूसरे को असत्यवादी मानते हैं और अपने को सत्य निष्ठ समझते हैं। उनकी लड़ाई का आधार तो सत्य का समर्थन और असत्य का निवारण होती है पर वस्तुतः दोनों ही असत्य का समर्थन और सत्य की हत्या कर रहे होते हैं क्योंकि वास्तविक सत्य को ढूंढ़ने की किसी ने चेष्टा ही नहीं की। अपने चारों ओर घिरे मानसिक अथवा सामाजिक वातावरण को ही सही माना, जबकि वस्तुतः वह एक पक्षपात मात्र था। इतिहास के अगणित पृष्ठ इसी सत्य के आवरण में पिछे पक्षपात से लाखों करोड़ों मनुष्यों के श्रोणित तर्पण की करुणा कथा से कलंकित हो रहे हैं। हमारे देशवासियों को ऐसे नर संहार की स्मृति अभी भी भूली नहीं है। गौरी, गजनवी, नादिरशाह, औरंगजेब, चंगेजखान आदि ने धर्म की सेवा के नाम पर क्या नहीं किया था ईसाई और गैर ईसाई, मुसलिम और गैर मुसलिम, आर्य और अनार्य आदि की भिन्नताओं ने कितनी नृशंसताएं उपस्थित की इसका लम्बा इतिहास पढ़ने पर लगता है कि मनुष्य सत्य के अवलम्बन की डींग मात्र हाँकता है वस्तुतः सत्य से अत्यधिक दूर है।
आज के इस तससापन्न युग में यह नितान्त आवश्यक है कि सत्य और असत्य का नये सिरे से विश्लेषण किया जाये और उसका आधार विवेक, न्याय एवं औचित्य को माना जाय। दूसरों के प्रति जो व्यवस्था लागू की जा रही है वही यदि अपने लिए भी लागू हो तो कैसी लगे? इस कसौटी पर न्याय अन्याय का निरूपण आसानी से हो सकता है। उसी प्रकार यदि यह मानकर चला जाय कि संसार के बहुसंख्यक व्यक्ति अनुपयुक्त विवरण और क्रिया पद्धति के अभ्यस्त हैं उनकी गतिविधियों में अनौचित्य की मात्रा ही अधिक है तो फिर तथाकथित लोग भय से मुक्ति पाई जा सकती है और स्वतन्त्र चिन्तन के लिए उपयुक्त दिशा मिल सकती है। अपनी मनोभूमि के पक्षपात को भी समझना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए कि हम जिस परम्परा में जन्में पले और बड़े हुए हैं स्वभावतः उसी के समर्थन में बुद्धि काम करेगी। इसलिए स्वतन्त्र चिन्तन सत्य का अन्वेषण करने के लिए इतना साहस भी एकत्रित करना होगा कि अपनी अभ्यस्त बुद्धि की भी उपेक्षा करके विश्व-व्यापी सत्य का निरूपण कर सकने की भावना सही रूप से अपना काम कर सकने में समर्थ हो सके।
“हमारा सो सही आपका सो गलत” आज सही गलत की यही मात्र परख है। अपनी जाति, भाषा, देश, वंश, परिवार, सम्प्रदाय, रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं विचार पद्धति का जो अनावश्यक पक्षपात है उसे हटाया जाना चाहिए और निष्पक्ष विश्व के निष्पक्ष नागरिक की तरह एक न्याय निष्ठ जज की तरह हमें हर प्रचलित रीति नीतियों और विचारणाओं पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए। न तो प्राचीन के प्रति मोह रहे और न नवीन के प्रति द्वेष। प्राचीन हो या नवीन इससे यथार्थता में कोई अन्तर नहीं आता। किसी सड़ी गली मृत प्रायः वस्तु को इसलिए सँजोकर नहीं रखा जा सकता कि वह पुरानी है।
जिस प्रकार दूसरे लोगों के बारे में गलत राह अपनाने वाला सोचा जा सकता है उसी प्रकार बहुत सम्भव है कि विवेक की कसौटी पर अपनी मान्यताएं अथवा गतिविधियाँ जब परखी जायें तो वे असत्य निकलें। ऐसे दशा में हमें इतनी निष्पक्षता तो अपने भीतर उत्पन्न कर ही लेनी चाहिए कि जो सत्य होगा उसे ही स्वीकार करेंगे। अपने और पराये का प्राचीन और नवीन का कोई भेद-भाव एवं पक्षपात पैदा न होने देंगे। इतना आधार यदि तैयार हो जाये तो ही आशा की जा सकती है कि सत्य का अवतरण सम्भव हो सकेगा। अन्यथा हर व्यक्ति अपनी मान्यताओं और रीति-नीतियों को सही मानकर दूसरों के प्रति घृणा, तिरस्कार, द्वेष और दुर्भावों की धारणा बनाये बैठा रहेगा। इससे अशान्ति ही बढ़ेंगी।
हमें सत्य की शोध करनी चाहिए, सत्य का आश्रय लेना चाहिए, सत्य पर आरुढ़ होना चाहिए और सत्य के ही समीपवर्ती वातावरण में प्रतिष्ठापना करने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए। किन्तु ध्यान यह भी रखा जाय कि हमारा सत्य तथ्य पर आधारित है। केवल पूर्व मान्यताओं तथा परम्पराओं के आधार पर ही किसी बात को सत्य न मान बैठे।