Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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काश हम सहयोग व सहकारिता का महत्व समझते
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बेहरिंग के काफिले ध्रुव प्रदेश में चला करते। प्राकृतिक जीवन के अभ्यस्त यह काफिले वहाँ की सारी कठिनाइयों का मुकाबला बड़ी आसानी से कर लेते हैं किन्तु जो सबसे बड़े आश्चर्य की बात है वह यह कि यह काफिले वहाँ की छोटी-छोटी लोमड़ियों से मात खा जाते हैं। उनकी इस आप-बीती की सुप्रसिद्ध लेखक स्टेलर ने बेहरिंग के काफिलों का युद्ध कहा है और बताया है कि प्रारम्भ में यह काफिले जिस स्थान पर डेरा डालते वहाँ की लोमड़ियाँ आतीं और उनका खाना चुरा ले जातीं निदान खाने को पत्थरों से ढक कर रखा जाने लगा। पत्थर भी इतने वजनदार रखे जाते हैं कि बड़ी लोमड़ी भी उन्हें उठा कर अलग न कर सकती। काफिले वाले बड़े असमंजस में थे कि तब भी उनका खाना चोरी गया मिलता और पत्थर उस स्थान से दूर फेंका मिलता।
ऐसे लगा कि कोई बड़ा जानवर आता है अतएव ताक की गई। बात बड़ी विचित्र निकली, एक साथ कई लोमड़ियों का झुण्ड आया उनमें से एक ऊँची टेकरी पर खड़ी हो गई, एक दूसरी तरफ। यह थीं चौकीदार उनका काम किसी भी सम्भावित हमले की सूचना अपने साथियों को देना होता है। शेष लोमड़ियां आगे बढ़ीं और एक साथ शक्ति लगाकर वजनदार पत्थर को उठाकर अलग कर दिया और खाना चुरा ले गई।
अब काफिले वालों ने एक ऊपर एक पत्थर रखकर ऊंचा खम्भा उठाया और उसके ऊपर खाना रखा पर लोमड़ियां से वह तब भी नहीं बचा सका। अब लोमड़ियों ने अपनी पीठ पर चढ़ाकर किसी चुस्त लोमड़ी को ऊपर चढ़ा दिया उसने ऊपर से खाना गिराया। गिरे हुये खाने को सबने उठाया और फिर ऊपर चढ़ी लोमड़ी को उतारा और दूर एकाँत में जाकर सारा खाना बाँटकर खा लिया।
इस घटना की समीक्षा करते हुए स्टेलर ने लिखा है कि आश्चर्य की बात है कि लोमड़ी जैसे छोटे जीव ने सहयोग और सहकारिता के महत्व को समझा और उसका लाभ उठाया जब कि मनुष्य बुद्धिशील प्राणी परस्पर स्पर्द्धा रखता ईर्ष्या, द्वेष और मनोमालिन्य रखता है यह वृत्तियाँ उसे आगे बढ़ने से रोकती हैं सुख और शाँति समृद्धि और सम्पन्नता का राजमार्ग यह है कि मनुष्य भी मिल जुलकर रहना सीखें अपने हित को दूसरे के हित से जुड़ा हुआ मानकर एक दूसरे के साथ सहयोग करना सीखें यही वृत्ति सामाजिक जीवन को व्यवस्थित बना सकती है।
अमेरिका के पश्चिमी इलाके लावा, प्रेग्यु लावा, सवान्नाह चिड़ियों का सामाजिक जीवन मनुष्य को पारस्परिक सहयोग की महत्वपूर्ण प्रेरणा देता है। यह पक्षी अपने भोजन के लिए एकान्त में घूमते हैं पर उदर पोषण की आवश्यकता पूरी हुई कि सामाजिक जीवन का आनन्द लेने के लिए इकट्ठे हो जाते हैं और फिर उनमें तरह-तरह के खेल-कूद होते हैं उसे देखकर ऐसा लगता है कि मनुष्य को क्लबों की प्रेरणा शायद इन पक्षियों ने ही दी हो। सच पूछा जाये तो सारा मनुष्य समाज एक क्लब है यदि लोगों ने पेट और प्रजनन को एक साधारण कर्त्तव्य मानकर उसी के लिये लड़ाई-झगड़े बढ़ाये न होते जीवन को इन पक्षियों की तरह क्रीड़ा समझा होता और हिल-मिलकर खेला होता तो आज जो असंख्य सामाजिक समस्याएं शाँति और व्यवस्था में संकट उत्पन्न कर रही हैं न होतीं, मनुष्य हँसी खुशी का जीवन जी रहा होता।
मनुष्य में सहयोग की भावना ही परस्पर श्रद्धा अनुशासन, प्रेम और कर्तव्यनिष्ठा के भाव भरती है। सहानुभूति विहीन जीवन कष्ट और उलझन का ही नहीं हिंसा और बर्बरता का भी जीवन बन जाता है। ऐसा तो असभ्य जंगली जानवर तक नहीं पसन्द करते मनुष्य को क्यों पसन्द करना चाहिये? रूसी प्राणी विशेषज्ञ श्री साइबर्ट सोफ मैदानी क्षेत्र में रहने वाले जानवरों का अध्ययन कर रहे थे- तब उनके सामने एक विचित्र घटना घटित हुई उन्होंने देखा एक सफेद पूँछ वाला उकाब पक्षी आकाश में मंडरा रहा है। आधा घण्टे तक वैसे ही मंडराते रहने के बाद उसने एक प्रकार की ध्वनि की। यह आवाज तेज थी लगता था उसने किसी को दौड़कर आने के लिए पुकार हो। वह आवाज सुनते ही दूसरे उकाब ने आवाज की और दौड़कर उसके पास आ गया। इस तरह दस बारह उकाब वहाँ एकत्रित हो गये। फिर जाने क्या बात हुई वे सब गायब हो गये। दोपहर के लगभग उकाबों का पूरा झुण्ड उसी थान पर उतरा। साइबर्टसोफ ने ऐसी पोजीशन ली जहाँ से उनकी सारी हरकत देखी जा सके। सभी उकाब एक घोड़े की लाश के पास पहुँचे। सबसे पहले बूढ़े उकाबों ने उसका माँस खाया फिर वे हटकर निगरानी करने लगे और तब सारे उकाबों ने माँस खाया। उकाबों की - इस सामाजिक भावना ने साइबर्ट सोफ को बहुत प्रभावित किया।
यह घटना एक बार फिर से भारतीय परिवारों की आदर्श परम्पराओं की ओर ध्यान ले जाती है आज की तथाकथित पाश्चात्य सभ्यता ने युवकों में वृद्धों के प्रति प्राण सी भर दी है फलस्वरूप वृद्धों को कष्टपूर्ण जीवन जीना पड़ता है कितनों को तो आखिरी समय भीख तक माँगनी पड़ती है। इसे शाप कहें या मनुष्य की नासमझी का फल युवा वर्ग बुजुर्गों के दीर्घकालीन अनुभवों का लाभ नहीं पाता और वह स्वतः भी संघर्ष पूर्ण, कलह पूर्ण विवादों और चिन्ताओं से भरा हुआ जीवन जीता है। मनुष्य ने सहयोग के महत्व को समझा होता तो पारस्परिक सुख शान्ति का खाँचा बैठाने वाले श्रद्धा प्रेम अनुशासन जैसे प्रवृत्तियों के लाभ से वंचित न हो जाता। आज के यही विभाव मनुष्य की दुःखी बना रहे हैं।
प्रिंस क्रोंपाटिन ने अपना सारा जीवन प्रकृति के अध्ययन में लगाया। उन्होंने जीव-जन्तुओं के व्यवहार से निष्कर्ष निकाले हैं उन्हें ‘संघर्ष नहीं सहयोग’ पुस्तक में कृत्रित कर बताया है कि मनुष्य जाति की सुख समुन्नति पर्द्धा में नहीं भावनाओं के विकास में है भावनाओं के विकास से वह अभावपूर्ण जीवन में आनन्द और उल्लास सी और खुशी प्राप्त कर सकता है। उन्होंने लिखा है- ध्रुव प्रदेश के राजहंस परस्पर कितने प्रेम और विश्वास के साथ रहते हैं उसे देखकर मानवीय बुद्धि पर तरस आता है और लगता है कि मनुष्य ने बुद्धिमान होकर भी जीवन की गहराइयाँ पहचानी नहीं। कई बार कोई राजहंसिनी अपने बच्चों को घमण्ड में या आवेश में ठुकरा देती है, तो उन पिता रहित बच्चों को बगल की मादा अपने साथ मिला लेती है, उसके अपने भी बच्चे होते हैं पर वे सब बच्चे इस तरह घुल-मिल जाते हैं मानों वे दो पेट से पैदा हुये न होकर एक ही नर और मादा की सन्तान हों। मादा उन सबको समान दृष्टि से प्यार देती है और उनकी साज सम्हाल तब तक रखती है जब तक वे बड़े नहीं हो जाते। बड़ी बतखें घर बनाने की अभ्यस्त नहीं होती इसलिये उन्हें अपने अण्डे रखने की दिक्कत आती है। संसार में अभाव न हो तो गति कहाँ से आये? प्रगति के लिये तो कठिनाइयाँ आवश्यक भी हैं मनुष्य उसे नहीं समझता जब कि मनुष्येत्तर प्राणी उसे समझकर अपने जीवन को हास उल्लासमय तथा निर्द्वंद्व बनाये रखते हैं। बड़ी बतखें अपने अण्डे इकट्ठा एक ही स्थान पर रख देती हैं। और क्रम-क्रम से बैठ कर उन्हें सेती रहती है। इससे कई बतखों का परिश्रम बचता है। परेशानी बचती है। संगठित परिवारों की परस्पर भारतीय जीवन पद्धति का ऐसा ही आदर्श है पर आज तो हमीं लोग उसे भूलते जा रहे और एकाँतवाद की पीड़ाओं से जकड़ते चल जा रहे हैं।
परस्पर सहयोग की महत्ता समझने वाले लोग देश और जातियां अपराजित होती है वे कहीं भी चले जायें वही अपना प्रभाव स्थापित कर लेती हैं। एक बार फोरल नामक प्राणी विशेषज्ञ ने एक स्थान की चींटियों के झुण्ड को एक थैले में भरा और उसे एक ऐसे स्थान पर लाकर छोड़ दिया जहाँ बहुत से चींटी भक्षी- ग्राम हापर्स तथा पतिंगे रहते थे, बर्र, मकड़ियां और गुबरैलों की जहाँ जमाते लगी थीं। इनमें से एक भी जीव ऐसा न था जो चींटियों से कई गुना बलवान न रहा हो। चींटियों के वहाँ पहुँचते ही बर्रों ने युद्ध ठान दिया पर संगठित चींटियां घबराई नहीं। उनमें से कितनी ही शहीद हो गई पर उनके संगठित हमले के आगे बर्रे न टिक सकीं। गुबरैले यह देख कर बिना प्रतिरोध वहाँ से खिसक गये पतिंगों और ग्राम हापर्स ने अपने बने बनाये किले चींटियों के लिये खाली कर दिये। निर्वासित चींटियों ने संगठित शक्ति के बल पर वहाँ भी पहले जैसा ही साम्राज्य स्थापित कर लिया।
यह उदाहरण मनुष्य जाति के, देश और समाज की सुख समुन्नति के आधार है। जो भी इस समझ पाया निहाल हो गया, सर्व समर्थ हो गया जिसने सहयोग के महत्व को भुलाया वह टूट गया, बिखर गया और जीवन के मोर्चे पर हार गया समझना चाहिये।